प्रेम और ब्राह्मी स्थिति
....... के बाद आपके कृपापत्रका उत्तर लिख रहा हूँ। आप स्वयं शास्त्रविद् और परम साधनसम्पन्न पुरुष हैं, मुझसे कुछ पूछकर तो केवल बड़ाई देते हैं। आपने अपनी लघुता और मेरी महत्ता बतलानेवाले शब्द पत्रमें लिखे हैं इससे आपकी आदर्श-साधुता देखकर तो चित्तमें प्रसन्नता होती है और आपके चरणोंमें मस्तक झुक जाता है; परन्तु अपने लिये बहुत संकोच मालूम होता है। शायद अपनी प्रशंसा सुननेमें अभी चित्तको पूरा संकोच नहीं होता और छिपी हुई चाहके कारण कुछ आनन्द आता है, इसीसे तो अपनी तारीफके शब्द पढ़े-सुने जाते हैं। समतामें स्थित वीतराग महापुरुषोंकी बात अलग है, हम-जैसे लोगोंका हित तो प्रशंसाको गाली और निन्दाको प्रशंसाके समान समझनेमें ही है। आपके प्रश्नोंका उत्तर, समाधान करनेकी योग्यता समझकर नहीं, आपके आज्ञा-पालनके लिये संक्षेपमें लिखता हूँ।
आप यह न समझें कि मैं जो कुछ लिखता हूँ, यही सोलहों आने यथार्थ है। इसमें जो कुछ त्रुटि हो, मुझे समझाकर लिखनेकी कृपा कीजियेगा। आपकी कृपासे कुछ समय सच्चिन्तनमें लग जाता है, इसके लिये मैं आपका कृतज्ञ हूँ। आपकी कृपा सदा मुझपर रहती ही है।
१—मैंने जिस प्रेमकी बात लिखी थी उस ‘प्रेम’ की स्थितिमें और ‘ब्राह्मी स्थिति’ में कोई अन्तर नहीं है। तथापि साधनमें अन्तर होनेके कारण विभिन्न अधिकारियोंके लिये दोनों अलग-अलग समझे जाते हैं। प्रेमी भी सुध-बुध भूलता है और ज्ञानी भी। परन्तु इस सुध-बुध भूलनेका अर्थ शारीरिक बाह्य-ज्ञानशून्य अवस्था नहीं है। यह वह स्थिति है जिसमें परमात्माको छोड़कर ‘बाह्य’ और कुछ रहता ही नहीं। इसी प्रकार प्रेम भी ज्ञानकी भाँति प्रेमास्पद या ब्रह्मकी प्राप्तिके लिये ही आरम्भ किया जाता है। वह पहले अपने लिये होता है, फिर भगवान्के लिये होता है और अन्तमें अपने और भगवान्के भेदका अभाव हो जाता है। निरतिशय आनन्दस्वरूप भगवान्का कोई उद्देश्य नहीं है। प्रेमादि गुण स्वयं भगवान्का आश्रय लेकर भक्तोंको—प्रेमियोंको सुख देते हैं—‘निर्गुणं मां गुणगणा भजन्ते निरपेक्षकम्।’ प्रेमियोंके लिये भगवान् उन गुणोंपर कृपा करके इन्हें स्वीकार कर लेते हैं। प्रयोजन यही है कि प्रेमीगण अनन्ताचिन्त्यदिव्यगुणगणविशिष्ट सौन्दर्यमाधुर्यरसाम्बुधि भगवान्की प्रेम-सामग्रीसे पूजा करके अचिन्त्य गुणोंको प्राप्त करेंगे। परन्तु यह भी प्रेमियोंकी प्राथमिक पाठशालाका ही पाठ है। आगे चलकर न तो प्रेमियोंको कोई उद्देश्य दृष्टिगोचर होता है, और भगवान्में तो किसी प्रयोजनकी कल्पना ही भगवान्की दृष्टिसे नहीं हो सकती। वहाँ उपादेय और हेयकी तो कोई बात ही नहीं है। वहाँ तो प्रेम और आनन्द घुल-मिलकर एक हो जाते हैं। वहाँ राधा और कृष्णकी अलग-अलग पहचान नहीं रहती। दोनों एक हो जाते हैं—
राधा भईं कान्ह अरु कान्ह भये राधा रानी,
द्वै ह्वैकै फेरि दोनों एक ही लखात हैं।
साधनकालमें जैसे ज्ञानीको ध्यानावस्थामें बाह्य ज्ञान नहीं रहता ऐसे ही प्रेमीको भी नहीं रहता। जैसे ज्ञानी निरन्तर ब्रह्माकारवृत्ति बनाये रखना चाहता है, ऐसे ही प्रेमी भी आठों पहर प्रेमास्पद भगवान्के आनन्दमय चिन्तनमें चित्तको लगाये रखना चाहता है। जैसे ज्ञानीका मनोवांछित कुछ नहीं रहता, इसी प्रकार प्रेमीका भी मनोवांछित प्रेमको छोड़कर और कुछ नहीं रहता। अधिकार या रुचिभेदसे साधनमें अन्तर है, वास्तविकतामें—साध्यके स्वरूपमें कोई अन्तर नहीं है—क्योंकि वह तो एक ही है।
अभेद भक्ति और ज्ञान
२—अभेद भक्तिका दूसरा नाम ज्ञान ही है, यही बात उस प्रश्नके उत्तरमें लिखी गयी है। गीतामें ऐसे ही ज्ञानीको भक्त कहकर श्रीभगवान्ने अपना आत्मा (स्वरूप) बतलाया है। अध्याय ७ श्लोक १६, १७, १८, १९ में देखिये।
मोक्षमें प्रतिबन्धक
३—यह प्रश्न आपका यदि पूर्ण ज्ञानीके सम्बन्धमें है तब तो यह कहना ही नहीं बनता कि उसके मोक्षमें कोई प्रतिबन्धक है या नहीं? पूर्ण ज्ञानी तो मुक्त ही होता है। मुक्तकी फिर मुक्ति कैसी? और उसके लिये प्रतिबन्धक कैसा? वह तो जिस समय ज्ञानी होता है, उसी समय उसके संचित कर्मोंका नाश हो जाता है। क्रियमाणमें अहंकृति न रहनेसे उसका संचित बनता नहीं। रह जाता है केवल प्रारब्ध, वह भोगसे क्षय हो जाता है। वस्तुत: इस प्रारब्धभोगका भी वहाँ कोई भोक्ता नहीं होता। भोग वहींतक है, जहाँतक पुरुष प्रकृतिस्थ है। ‘स्वस्थ’ होनेके बाद कोई भोक्ता रहता नहीं। हाँ, लोगोंको दीखता है कि अमुक पुरुष अमुक सुख-दु:ख भोग रहा है। लोगोंकी भाँति ही उसे भी ‘द्रष्टा’ मान सकते हैं। इसीलिये ज्ञानी सुख-दु:खमें सम होता है, क्योंकि वह द्रष्टा है, भोक्ता नहीं। अब रही ज्ञानवान्के द्वारा ज्ञानोत्तरकालमें प्रारब्धभोगके लिये शास्त्र-निषिद्ध कर्म होनेकी बात। इसका उत्तर यह है कि यद्यपि ज्ञानी गुणातीत होनेके कारण गुणोंके किसी भी व्यापारसे बँधता नहीं; वह हर अवस्थामें निर्लेप ही है परन्तु उसके शरीरद्वारा पाप बनना सम्भव नहीं। भगवान्ने गीताके तीसरे अध्यायमें पाप होनेमें कारण बतलाया है रजोगुणसमुद्भव ‘काम’ को। ‘रजो रागात्मकं विद्धि’ के अनुसार रजोगुणका रूप आसक्ति या राग है। ज्ञानीमें राग या आसक्ति और काम रहता नहीं, ऐसी अवस्थामें उससे पाप कैसे बन सकता है? पापके लिये चित्तकी कलुषित वृत्ति होनी चाहिये। उसकी कलुषित वृत्ति मुमुक्षु-अवस्थामें अन्त:करणकी शुद्धिके समय ही नष्ट हो गयी। ऐसी अवस्थामें उसके द्वारा पापकी सम्भावना नहीं है। अनिच्छा और परेच्छासे तो पाप होता नहीं, ‘स्वेच्छा’ उसकी पापके लिये होती नहीं। इसके सिवा एक महत्त्वका विचार और है। वह यह है कि प्रारब्धसे पाप होना युक्तिसंगत भी नहीं है। जिस प्रारब्धसे पाप होना माना जा सकता है, वह प्रारब्ध अवश्य ही किसी पापकर्मका ही फल होना चाहिये और पापकर्मके फल-विधानमें पुन: पाप करनेका ही विधान हो, यह न्यायसंगत नहीं।
क—चोरी या खून करनेवालेको जेल या फाँसीका दण्ड मिलता है, पुन: चोरी या खून करनेका दण्ड नहीं मिल सकता। ख—यदि पापका फल पुन: पाप ही हो तो जीव कभी पापसे मुक्त हो ही नहीं सकता। ग—यदि मनुष्य प्रारब्धवश पाप करनेके लिये बाध्य हो तो फिर शास्त्रोंके विधि-निषेधात्मक समस्त वचन व्यर्थ हो जायँगे। घ—जो ईश्वर पापका फल, पाप ही विधान करता है, वही फिर दण्ड-रचना करता है, ऐसा ईश्वर न्यायी नहीं कहा जा सकता। ङ—हरेक पाप करनेवाला मनुष्य कह सकता है कि मैं प्रारब्धवश बाध्य होकर पाप करता हूँ। इसमें मेरा क्या दोष है? च—भगवान्के वचन ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ व्यर्थ हो जाते हैं। इत्यादि अनेक युक्तियोंसे यही बात साबित होती है कि ज्ञानोत्तरकालमें जान-बूझकर स्वेच्छा, परेच्छा या अनिच्छा किसी भी रूपसे पापकर्म नहीं हो सकता। मोक्षमें प्रतिबन्धका तो कोई प्रश्न ही नहीं है। ज्ञानियोंमें दूषित प्रारब्ध रह सकता है और उसका फल शारीरिक पीड़ा, अपमानादि हो सकता है; परन्तु निषिद्ध कर्मके द्वारा उक्त फल नहीं मिल सकता। यद्यपि ज्ञानी विधि-निषेधसे ऊपर उठा हुआ है परन्तु जिस अन्त:करणमें कर्मप्रेरणा होती है, वह अन्त:करण अत्यन्त विशुद्ध हो जानेके कारण उसमें असत्-संकल्प नहीं हो सकते, न उससे असत् कर्म ही बन सकते हैं।
भगवान् स्वार्थी हैं
४—यह प्रश्न महात्माजीने विनोदके रूपमें किया है—मालूम होता है। विनोदकी भाषामें यही उत्तर है कि भगवान् पूरे स्वार्थी, खुशामद-पसन्द और पक्के चोर हैं तथा न्यायी भी नहीं हैं; तभी तो वे सर्वस्व लेकर तब कुछ देते हैं! खुशामद करनेवालोंका पक्ष लेते हैं, ‘दासोऽहम्’ का ‘दा’ चुरा लेते हैं, भक्तोंका चित्त चुरा लेते हैं। स्वयं चोर होते हुए भी चोरके लिये दण्डका विधान करते हैं, परन्तु उनके भक्त भी ऐसे बावले हैं कि इन्हीं दुर्गुणोंपर रीझकर उनको भजते हैं और हर तरहसे उनके गुण गाते हुए भाटकी-ज्यों इधर-उधर भटकते हैं। भला, ऐसे बावले भक्तोंको स्वार्थी भगवान्के द्वारा मुक्ति कहाँसे मिलती? वे सेवा करते नहीं थकते और भगवान् तो सेवा करानेके लिये ही यह जाल फैलाये बैठे रहते हैं। पक्के स्वार्थी हैं न?
भगवान्का नि:स्वार्थ भाव
अब दूसरे प्रकारसे इसका उत्तर यह है कि वस्तुत: भगवान् सर्वगुणातीत केवल निरतिशय विज्ञानानन्दघन हैं। उन सर्वगुणातीतके गुणोंकी कथा कौन कहे? तथा उन सर्वविरुद्धधर्माश्रयी भगवान्में एक ही कालमें निर्गुणत्व-सगुणत्व सभी कुछ सम्भव है। वे गुणातीत हैं, निखिल कल्याणगुणगणविशिष्ट हैं और हेयोपादेयसर्वगुणसम्पन्न हैं। उनके लिये सब कुछ कहा जा सकता है और किसी भी व्याख्यासे उनका यथार्थ वर्णन नहीं हो सकता। भक्त उन्हें दयालु, कृपामय, करुणासागर, भक्तवत्सल, अकिंचनके आश्रय, अनाथनाथ आदि शब्दोंसे ठीक ही पुकारते हैं। वे ऐसे ही हैं। उनमें एक-एक गुण इतना अनन्त, असीम और महान् है कि उस एककी ही महिमा गाते-गाते शेष-शारदाकी शक्ति कुण्ठित हो जाती है। भूल तो इस बातमें होती है कि लोग धन, पुत्र, यश, सम्मानकी प्राप्तिमें तो उनकी कृपा, दया, वत्सलता आदि मानते हैं और इसके विपरीत होनेमें अकृपा या निष्ठुरता! भगवान् उस स्नेहमयी जननीकी भाँति हैं, जो मारनेके समय भी अपने स्नेहार्द्र हृदयको नहीं सुखा सकती। लौकिक माँका स्नेह-स्रोत कहीं सूख भी जाय, परन्तु उस सच्चिदानन्दमयी, स्नेहाम्बुधिहृदया माताका स्नेह तो कभी सूख ही नहीं सकता। उसकी मारमें भी विलक्षण प्यार भरा रहता है। भगवान्के दण्डविधानका स्वरूप तो देखिये—वे या तो विषयोंको हरते हैं या विषयसेवनकी क्षमताको। जिन विषयोंकी सन्निधि तो दूरकी बात है, चिन्तनमात्र सर्वनाशका कारण होती है, जिन विषयोंको विषवत् परित्याग करनेकी अनुभवी महापुरुष और शास्त्रकार आज्ञा करते हैं, उन विषयोंसे सहज ही छुटकारा हो जाय और समझा जाय वह दण्डविधान! उससे छूट जाय पूर्वकृत पापका बन्धन! भला, यह कम दया है? आगमें पड़नेको जानेवाले पतंगेके मार्गमें चादर तान देनेवाला या आग बुझा देनेवाला पुरुष दयालु कहा जायगा या निर्दयी? इसी प्रकार भगवान् रोगीकी अवस्थाके अनुसार ओषधिकी व्यवस्था करके हर हालतमें उसपर कृपा ही करते हैं। भगवान्में जितने गुणोंका आरोप है, वे सभी सार्थक हैं। जिन्हें दु:खोंका दान मिलता है, उनका शीघ्र निस्तार होता है। वे अनाथोंका ही उद्धार करते हैं, नाथोंका नहीं। पतितोंको ही तारते हैं, पुण्याभिमानियोंको नहीं। अशरणको ही शरण देते हैं, आश्रयवान्को नहीं। उनके समस्त अवतार ही नि:स्वार्थताके ज्वलन्त उदाहरण हैं। नि:स्वार्थपनका पाठ तो भगवान्से ही सीखना है।
‘भोगप्रेम’ और ‘भगवत्प्रेम’
५—भावुक सज्जनके प्रश्नका उत्तर यह है कि सम्पूर्णतया निष्कामभाव हो जाय तो सम्भव है कि वे सारी बातें हो जायँ। राजा जनकमें यह सभी कुछ थे। वे प्रपंचमें थे, भोग भी भोगते थे, भोगोंका वियोग उनके साधनकालमें भी नहीं था, यश-कीर्ति भी पर्याप्त थी, ज्ञानी तो प्रसिद्ध थे ही, परन्तु वे निष्कामभावकी मूर्ति थे।
दूसरा उपाय है भगवान्की शरणागति। सुदामाको भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त हुए थे। परन्तु ये दोनों ही बातें होती हैं—अत्यन्त कठिन। इनके हो जानेपर तो भोगोंका महत्त्व ही मिट जायगा और जबतक ये होती नहीं तबतक उपर्युक्त स्थिति होनी कठिन है। शास्त्रकार तो यही कहते हैं कि ‘भोगप्रेम’ के साथ ‘भगवत्प्रेम’ रह ही नहीं सकता। ऐसे प्रश्न करनेवालोंको वस्तुत: भगवान्के महत्त्वका पता नहीं है, तथापि ये भी सराहनीय हैं जो किसी भी रूपमें भगवान्को चाहते तो हैं! इनसे कह दीजिये ये यथासाध्य अधिक-से-अधिक श्रीभगवान्का नामजप करें, नामजप सब रोगोंकी एकमात्र दवा है।