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जगत‍्का स्वरूप और मनुष्यका कर्तव्य

सादर हरिस्मरण। आपका पत्र मिले बहुत दिन हो गये, उत्तर लिखनेमें विलम्ब हो गया, इसके लिये क्षमा करें। आपके विस्तृत पत्रके उत्तरमें मेरा तो यही निवेदन है कि इस दृश्यमान जगत‍्में जन्म-मरणका खेल अविराम चल रहा है। यहाँ इस प्रकृतिके जादूघरमें कुछ भी स्थिर या नित्य नहीं है। संहारको हृदयसे लगाये हुए ही सृजनका उदय होता है। आज जो सुन्दर है, मनोहर है, सौन्दर्य-माधुर्यसे भरा है, सरल बालकेलिसे सबको प्रमुदित कर रहा है, वही कुछ दिनोंमें यौवन, जरा और व्याधिकी घाटियोंको लाँघता हुआ आसन्नमृत्यु होकर—अत्यन्त कुरूप, भीषण, मलिन, वीभत्स, दुर्गन्धयुक्त और महान् दु:ख-दोषमय बनकर सबके लिये कष्टप्रद हो जाता है और अन्तमें चेतन आत्मायुक्त सूक्ष्मशरीरसे वियुक्त होकर तो वह सर्वथा घृणित, हेय, अस्पृश्य हो जाता है एवं बिना किसी सहानुभूतिके हम उसे श्मशानमें ले जाकर फूँक डालते हैं या भीषण सुनसान स्थानमें जमीन खोदकर गाड़ देते हैं। यही तो परिणाम है इस शरीरका! आज प्यारी पत्नी, प्राण-प्रियतम पति, श्रद्धास्पद माता-पिता,अभिन्नहृदय मित्र, प्राणोंके पुतले प्यारे पुत्र आदिको परस्पर पाकर सब अपनेको परम सुखी समझते हैं, सबके प्राण हँसते हैं; परन्तु दूसरे ही दिन मृत्युके भयानक आघातसे हमारे ये प्राणप्यारे आत्मीय निधन हो जाते हैं, हमारा प्यारका भण्डार लूट लिया जाता है। हम हाय-हाय करते हैं, रोते हैं, चिल्लाते हैं, पर कुछ भी नहीं कर पाते। यही हाल संसारकी सभी चीजोंका है। असलमें यह अपनापन, यह ममता ही हमारे दु:खोंमें हेतु है। जो पाकर हँसता है, उसको खोकर उससे कई गुना अधिक रोना ही पड़ता है और यहाँका यह पाना होता ही है खोनेके लिये—जन्म होता ही है मृत्युके लिये—संयोग उत्पन्न ही होता है वियोगके निश्चित विधानको साथ लेकर! हम कुछ दिन रोते हैं, दु:खी होते हैं फिर उसी भाँति हम भी इस चोलेको छोड़कर नयेके लिये चलते हैं; चोला पुराना होनेपर भी मोहवश छोड़ते हम घबड़ाते हैं; ममत्वके कारण किसी प्रकारकी भी जरा भी विनाशकी आशंका हमें व्याकुल कर देती है; परन्तु विनाश तो अवश्यम्भावी है; नवीन सृजनके लिये उसकी आवश्यकता है, वह होता ही है और होता ही रहेगा। कबतक? सो कौन कह सकता है। परन्तु इतना तो कहा जा सकता है कि यह जन्म-मरणयुक्त जगत् चाहे सदा रहे; परन्तु इसमें हमारा जो विषयोंके साथ ममत्वका सम्बन्ध है, वह तो सदा कभी नहीं रहेगा। आज हम अपने इस शरीरमें माता, पिता, स्त्री, स्वामी, पुत्र-कन्या आदिसे प्रेम करते हैं, उनके बिना क्षणभर भी नहीं रह सकते। उनका जरा-सा अदर्शन भी हमें असह्य हो जाता है। पर जब हम उन्हें छोड़ जाते हैं और दूसरे चोलेमें पहुँच जाते हैं, तब उनकी याद भी नहीं करते। न मालूम कितनी बार कितनी योनियोंमें हमारे प्रिय माता, पिता, स्त्री, पुत्र, यश, कीर्ति, घर, जमीन हो चुके हैं; परन्तु आज हमें उनकी याद भी नहीं है। हमारे वे पहलेके माता-पिता कहाँ—किस दशामें हैं। हमारी प्राण-प्रियतमा पत्नी किस शरीरमें है, उसकी क्या दशा है। हमारे आत्मासे भी बढ़कर प्यारे पुत्र-पौत्र किस स्थितिमें हैं। हमें क्या उनका कुछ भी पता है? हमें उनकी दशा जाननेके लिये कुछ भी उत्कण्ठा, इच्छा या जिज्ञासा है? हम उन्हें भूल गये हैं, जैसे हम उन्हें भूल गये हैं, वैसे ही वे भी हमें भूल गये हैं। उनको भूलकर आज हम अपने नये संसारमें, नये घरमें, नये सम्बन्धियोंके प्रेममें मस्त हैं। आगे चलकर इनको भी भूल जायँगे। ऐसे विनाशी क्षणस्थायी सम्बन्धको यथार्थ सम्बन्ध समझकर सुखी-दु:खी होना मूर्खता नहीं तो क्या है? ऐसे सम्बन्धको लेकर ममत्व करना और फिर रोना-पीटना धोखा ही तो है। इसमें जो नित्य है, सत्य है, जिससे कभी विछोह नहीं होता, जो सदा साथ ही रहता है और रहेगा उसीसे प्रेम करना चाहिये। वे हैं श्रीकृष्ण। उन्हींके अनेक नाम हैं। हैं वे एक ही। वे ही हमारे सब अवस्थाओंके और सब समयके मित्र हैं; वे नित्य सुन्दर हैं, मधुर हैं। वे सदाके संगी हैं, वे हमारे प्राणोंके प्राण हैं, आत्माके आत्मा हैं। इन श्रीकृष्णको छोड़कर अन्य जिस किसीसे भी प्रेम करोगे उसीमें धोखा होगा, जिसको चाहोगे, वही दगा देगा। न मालूम हमने कितनी योनियोंमें सुखके संसार रचे हैं, वहाँ हमारे सभी सम्बन्धी थे। हम सबको धोखा दे आये। आज उनकी तनिक भी चिन्ता हमें नहीं है। वे हमसे प्रेम करते थे; परन्तु हमसे उन्होंने क्या पाया? बस, यही बात है। इसलिये एकमात्र श्रीकृष्णको ही अपना समझो। उन्हींसे प्रेम करो। सबमें उन्हींको देखकर फिर सबसे प्रेम करो। किसीमें खास ममत्व नहीं करना चाहिये। जीवन-मृत्यु उनका—श्रीकृष्णका खेल है। सबमें सब समय सब ओरसे उन्हींको देखो, उन्हींको पकड़ लो, तभी जीवन सार्थक होगा, तभी सुखके, सच्चे सुखके—परमानन्दके यथार्थ दर्शन होंगे!

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