गीता गंगा
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जीवनका उद्देश्य और उसकी पूर्तिके उपाय

आप........ घण्टे जप और....... घण्टे स्वाध्याय कर रहे हैं, सो बड़ी अच्छी बात है। श्रीभगवान‍्के प्रेमकी प्राप्तिको छोड़कर जीवनका और कोई भी उद्देश्य न रहे तथा जीवनमें प्रतिक्षण होनेवाली प्रत्येक चेष्टा इसी उद्देश्यके लिये हो। जैसे गंगाका प्रवाह स्वाभाविक ही समुद्रकी ओर जाता है, उसी प्रकार जीवन-प्रवाह भगवान‍्की ओर ही चले—ऐसा प्रयत्न हमलोगोंको करना चाहिये। इस प्रयत्नमें प्रधान बातें—भगवान‍्की अहैतुकी कृपामें विश्वास, भगवान् ही एकमात्र प्राप्त करनेयोग्य सर्वश्रेष्ठ परम वस्तु हैं—यह निश्चय, भगवान‍्की ओरसे हटानेवाले अत्यन्त प्रिय-से-प्रिय और आवश्यक-से-आवश्यक पदार्थमें तुच्छ और त्याज्य-बुद्धि, भगवान‍्की नित्य-निरन्तर स्मृति बनाये रखनेकी भरपूर चेष्टा, भगवान‍्के पवित्र नामोंका निरन्तर उच्चारण और भगवत्सेवाके भावसे ही शरीर, मन और वाणीसे क्रिया करना।

भगवान‍्की कृपामें ऐसी अमोघ और अनिवार्य शक्ति है कि वह असाध्यको भी साध्य बना देती है। अपनी तमाम इच्छाओंको, तमाम भावनाओंको भगवत्कृपाके अर्पण कर देना चाहिये। भगवत्कृपा सभीपर है, परन्तु हमने अपनेको निर्भरताके साथ भगवत्कृपाके प्रति अर्पण नहीं कर दिया है। अर्पण ही—सब कुछ भगवान‍्को पूर्णरूपसे सौंप देना ही भगवत्कृपाके परम लाभकी प्राप्तिका प्रधान साधन है। बड़ी सीधी-सी बात है, यदि मनुष्य कर सके। भगवान‍्की कृपा तैयार खड़ी है हमारे सामने, हमारा कल्याण करनेके लिये—बस, विश्वास करके उसपर निर्भर हो जाइये।

‘मनुआ महाराज’ की बात आपने लिखी सो बहुत ठीक है। मन बड़ा ही बलवान् और चंचल है। कामनाओंसे भरा है और ज्यों-ज्यों कामनाओंकी पूर्ति होती है, त्यों-ही-त्यों उसकी कामनाका क्षेत्र बढ़ता जाता है। उसका बल और उसकी चंचलता इसमें सहायता करती है। यदि कामनाओंका दमन कर लिया जाय—एकमात्र भगवत्कृपाके ऊपर ही सब कुछ छोड़ दिया जाय, तो यही मन अपना सारा बल इसी काममें लगा देगा और चंचलता तो कामनाओंका त्याग करनेमें ही नष्ट हो जायगी। फिर रह जायगी अखण्ड शान्ति और अपार आनन्द। याद रखना चाहिये, कामनाकी पूर्तिमें—वासनाकी तृप्तिमें दु:ख बढ़ते हैं। आनन्द तो, सच्चा आनन्द तो वासना-कामनापर विजय प्राप्त करनेपर ही प्राप्त होता है। कामनाओंकी पूर्तिसे होनेवाले आनन्दमें और कामनाओंके विजयसे होनेवाले आनन्दमें बड़े महत्त्वका भेद है; परन्तु हमें तो उस आनन्दका अनुभव ही नहीं; इसीसे हम कामनापूर्तिके आनन्दको आनन्द मानकर—जो वस्तुत: सच्चे आनन्दका सच्चा आभास भी नहीं है— विषयोंके पीछे भटक रहे हैं। आप चेष्टा कीजिये मनको श्रीभगवान‍्के चिन्तनमें लगानेकी। निरन्तर ऐसा विचार और निश्चय कीजिये कि भगवान‍्से बढ़कर सुन्दर, मधुर, ऐश्वर्यपूर्ण पदार्थ कोई है ही नहीं। यदि मन केवल उन्हींकी कामना करने लगेगा तो वह निहाल हो जायगा। आपको भी निहाल कर देगा। फिर तो आप आनन्दमें गर्क हो जाइयेगा।

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