गीता गंगा
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वैराग्यमें राग और प्रभु-प्रार्थना

आपको यह याद रखना चाहिये कि जीव मनुष्ययोनिमें प्रभुकी इच्छासे उनकी विशेष कृपासे एक बहुत बड़े महत्त्वके कार्यको पूर्ण करने आया है। वह कार्य है भगवद्दर्शन या भगवत्प्रेम। जो मनुष्य इस महान् कार्यकी पूर्तिमें लगा रहता है वही यथार्थमें मनुष्य है, नहीं तो, सच्ची बात तो यह है कि भगवान‍्को भूलकर विषयोंमें लगे हुए मनुष्य कहने-सुननेमें कैसे ही क्यों न माने जायँ, मनुष्यत्वसे परे ही हैं। भगवत्प्रेमकी प्राप्तिके लिये अन्त:करणकी निर्मलता आवश्यक है और जबतक भोगोंमें सच्चा विराग नहीं होता तबतक अन्त:करणकी पूर्ण निर्मलता नहीं मानी जाती। आप विराग चाहती हैं यह तो अच्छी बात है, परन्तु आश्चर्य और खेदकी बात तो यह है कि कभी-कभी मनुष्यके हृदयमें राग ही विराग-सा बन जाता है और विषयासक्ति ही प्रकारान्तरसे विषय-विरागकी चाहके रूपमें दीखने लगती है। बड़ी सावधानीसे जो चित्तवृत्तियोंका निरीक्षण करते रहते हैं उनके सामने मोहावृत वृत्तियोंका यह स्वाँग प्रत्यक्ष हो जाया करता है। खास करके प्रतिकूल स्थितिमें त्याग-वैराग्यकी जो भावना होती है उसमें प्राय: अनुकूलताकी कामना ही छिपी रहती है और जहाँतक मेरा विश्वास और अनुभव है। इस प्रकारके धोखोंसे बचनेका उपाय आतुर और विह्वल होकर प्रभुसे प्रार्थना करना है। शक्तिभर चित्तको छलहीन और शुद्ध करके भगवान‍्से आर्त पुकार करनी चाहिये। प्रभो! मेरा अन्त:करण बड़ा ही मलिन है, मैं अत्यन्त दीन-हीन हूँ, मैं जब विराग चाहती हूँ तब राग ही विरागका रूप धारण करके सामने आ जाता है, मैं जब तुम्हारे लिये अपने जीवनको न्योछावर करनेकी कल्पना करती हूँ तब चित्तकी वृत्तियाँ धोखेसे यह सिद्ध करना चाहती हैं कि ‘तेरा जीवन तो न्योछावर हो चुका’ पर दूसरे ही क्षण जब हृदयमें भाँति-भाँतिकी विषय-कामना जाग्रत होती है तब मालूम होता है कि यह तो मनका धोखा था। प्रभो! मैं बिना केवटकी नैयाके समान आधारहीन हुई भवसागरमें गोते खा रही हूँ। तुम्हारे सिवा मुझे बचानेवाला और कौन है। मैं तुम्हारे शरण हूँ, मुझे तुम्हीं मार्ग बताओ—तुम्हीं मार्गपर ले चलो और तुम्हीं मार्गके साथी बनकर मुझे अपने शान्तिमय परमधाममें पहुँचा दो प्रभो!

न धर्मनिष्ठोऽस्मि न चात्मवेदी
न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविन्दे।
अकिञ्चनोऽनन्यगति: शरण्यं
त्वत्पादमूलं शरणं प्रपद्ये॥
न निन्दितं कर्म तदस्ति लोके
सहस्रशो यन्न मया व्यधायि।
सोऽहं विपाकावसरे मुकुन्द
क्रन्दामि सम्प्रत्यगतिस्तवाग्रे॥
निमज्जतोऽनन्त भवार्णवान्त-
श्चिराय मे कूलमिवासि लब्ध:।
त्वयापि लब्धं भगवन्निदानी-
मनुत्तमं पात्रमिदं दयाया:॥

‘प्रभो! न तो मेरी धर्ममें निष्ठा है, न मुझे आत्मतत्त्वका ज्ञान है और न आपके चरण-कमलोंमें मेरी भक्ति ही है। मैं अकिंचन हूँ, तुम्हारे सिवा मेरा दूसरा कोई सहारा नहीं है। मैं सब ओरसे निराश होकर शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले तुम्हारे चरणोंकी शरणमें आ पड़ी हूँ। मुकुन्द! संसारमें ऐसा कोई निन्दित कर्म नहीं है, जिसे मैंने हजारों बार न किया हो, वही मैं आज उन कर्मोंके फल-भोगके समय तुम्हारे सामने असहाय होकर विलाप कर रही हूँ। भगवन्! मैं इस अपार भवसागरमें न जाने कबसे डूब रही थी, आज बहुत कालके बाद तुम इस भवसागरके तटकी भाँति मुझे मिले हो। साथ ही तुमको भी आज मैं दयाकी सर्वोत्तम पात्र मिल गयी। (अब अपनी अहैतुकी दयासे ही मुझे पार लगाओ नाथ!)’

इस प्रकार हृदयकी सच्ची और कातर प्रार्थनासे भगवान् ऐसा सुन्दर प्रकाश और बल देंगे जिससे सहज ही मोहित करनेवाली वृत्तियाँ नष्ट हो जायँगी और भगवच्चरणोंमें दृढ़ अनुराग प्राप्त होगा। तभी मनुष्यजीवनका उद्देश्य सफल हो सकेगा।

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