कर्मोंका भगवान्में अर्पण
तुम्हारा पत्र मिला। उपदेश देनेका तो मैं अधिकारी नहीं हूँ। सलाहके तौरपर यही कह सकता हूँ कि आलस्य, असंयम और अविश्वासका त्याग करके श्रीभगवान्का नामजप करना चाहिये तथा नामजप करते हुए ही भगवत्सेवाके भावसे कर्तव्य-कर्म करनेकी आदत डालनी चाहिये। कर्मसे भागना नहीं चाहिये। कर्म बन्धन करनेवाला नहीं है, बन्धन करनेवाला नीचा भाव है। भगवान्के कथनानुसार, यदि यज्ञार्थ कर्म हो तो उससे बन्धन नहीं होता। भगवान्ने कहा है—‘जो कुछ भी कर्म करो, सब मेरे अर्पण करो। इस प्रकार करनेसे तुम शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाओगे और अन्तमें मुझको ही प्राप्त होओगे।’ (गीता ९। २७-२८) भगवान्ने कर्मका निषेध नहीं किया; कर्म करनेकी तो आज्ञा दी, परन्तु सब कर्मोंका अर्पण अपनेमें (भगवान् में) करनेको कहा। कर्म किये बिना मनुष्य रह ही नहीं सकता। जो कर्मसे भागता है, उसे भी कर्म करना पड़ता है। और जबतक कर्ममें आसक्ति है, तबतक उसके कारण बन्धनका भय है। बड़े-बड़े प्रलोभनोंको लात मारकर आये हुए विद्वज्जन भी छोटे-छोटे प्रलोभनोंमें फँसकर गिरते देखे-सुने जाते हैं। असली चीज तो है भाव और उस भावसे होनेवाला भजन। भाव न भी हो तो भी भजन करना चाहिये। कलियुगमें तो नाम-भजन ही मुख्य है।.....
स्नेह और कृपा तो भगवान्की सबपर है, सदा ही है और अनन्त है। शरणमें रखनेकी सामर्थ्य भी उनमें ही है। उन्हींके शरण होना चाहिये।