गीता गंगा
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कार्यकर्ता साधकोंके प्रति

इधर आपसमें कुछ कलह तथा द्वेष बढ़ा दीखता है, यह नया नहीं है। मनमें छिपा था वही बाहर निकल रहा है। पहले थोड़ा काम था और थोड़े कार्यकर्ता थे, इससे थोड़े रूपमें था। अब ज्यों-ज्यों काम बढ़ा, आदमी बढ़े, त्यों-ही-त्यों छिपे दोषोंका भी अधिक प्रकाश और प्रसार होता गया। फिर, इस समय तो सारे भूमण्डलका ही वातावरण विक्षुब्ध हो रहा है। ऐसी अवस्थामें ऐसा न होना ही आश्चर्यकी बात थी। तथापि जो लोग साधनाके उद्देश्यसे यहाँ काम करने आये हैं या करना चाहते हैं उनके लिये तो यह स्थिति अवश्य ही शोचनीय है। सच पूछिये तो बात यह है कि लोगोंने अभीतक अपने जीवनका एक उद्देश्य ही निश्चित रूपसे स्थिर नहीं किया है और जिन्होंने कुछ किया था, वे भी प्रपंचमें पड़कर शायद उसे भूल-से गये हैं। शुद्ध सेवाके भावसे, खास करके परमार्थ-साधनके उद्देश्यसे काम करनेवालोंको नीचे लिखी बातोंपर अवश्य ध्यान देना चाहिये और जहाँतक बने इन सब बातोंको अपनेमें प्रकट करनेकी पूरी कोशिश करनी चाहिये।

१—जीवनका उद्देश्य है—भगवत्प्रेमकी प्राप्ति(या भगवत्प्राप्ति)। यह उद्देश्य हमेशा याद रहे और प्रत्येक चेष्टा इसी उद्देश्यकी पूर्तिके लिये हो। सदा यह ध्यान रहे कि मुझे लौकिक या पारलौकिक प्रत्येक कार्यके द्वारा केवल ‘भगवत्सेवा’ करना है। जैसे धन कमानेकी इच्छावाला मनुष्य स्वाभाविक ही सदा सावधान रहता है और जान-बूझकर ऐसा कोई काम नहीं करता जिससे धनकी आमदनीमें बाधा हो या धनका व्यर्थ व्यय और नाश हो। उसे धनकी जरा-सी हानि भी सहन नहीं होती, इसी प्रकार सच्ची सेवा करनेवाला साधक कोई भी ऐसा काम नहीं करता जो भगवान‍्की रुचिके प्रतिकूल हो या भगवत्प्रेमकी प्राप्तिके पथमें जरा भी विघ्नरूप हो।

२—सब जीवोंमें भगवान‍्का निवास है—यह समझकर सबका सम्मान करे, सबसे प्रेम करे, सबका हित-साधन करे और सबके साथ निष्कपट सत्य-व्यवहार करे। जिसके व्यवहारमें सम्मान, प्रेम, हित और सत्य समाया है वह सहज ही सबका प्रिय हो जाता है। कटुता तो अभिमान, द्वेष, अहित और कपटसे आती है।

३—धार्मिक भाव हो—

(क) प्रात:काल उठते और रातको सोते समय अपने इष्टदेव भगवान‍्का स्मरण करे।

(ख) अपने शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार सन्ध्या, गायत्रीजप और प्रार्थना प्रतिदिन यथासमय करे।

(ग) भगवान‍्के नामका नियमित जप तो करे ही; दिनभर जीभसे नामजप करनेकी आदत डाले। नित्य भगवद‍्गीता और रामचरितमानस आदिका नियमित स्वाध्याय करे।

(घ) भगवान‍्में और अपने धर्ममें श्रद्धा-विश्वास रखे और उसे बढ़ाता रहे।

(ङ) भगवान‍्के विधानमें न तो कोर-कसर देखे और न उसे पलटनेकी कभी इच्छा ही करे।

(च) जहाँतक बने—अहिंसा, सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्यव्रतका अधिक-से-अधिक पालन करे। जान-बूझकर इन व्रतोंको भंग न करे।

(छ) संग्रह-परिग्रह कम-से-कम करे। योगक्षेमके लिये भगवान् पर अटूट श्रद्धा रखे। किसी भी लाभके लोभसे कभी भूलकर भी अन्याय और अधर्मका आश्रय न ले।

(ज) बाहर और भीतरसे स्वच्छ रहनेकी चेष्टा करे। शरीर, दाँत और कपड़ोंपर मैल न जमने दे। रहनेके स्थानको भी साफ-सुथरा रखे। सद्विचारोंके द्वारा मनको पवित्र करता रहे।

(झ) गुरुजनोंपर तथा शास्त्रपर श्रद्धा रखे। माता-पिताकी सेवा करे। स्त्री-बच्चे तथा सेवकोंके साथ प्रेमपूर्ण सद‍्व्यवहार करे। अपनी हानि सहकर भी दूसरोंकी सेवा करे। याद रखना चाहिये, दूसरोंका भला करनेवालोंका परिणाममें कभी बुरा हो ही नहीं सकता।

(ञ) खान-पानमें संयम, सादगी और शुद्धिका पूरा खयाल रखे।

(ट) तन-वचनसे ऐसा कोई भी काम कभी न करे जिसको देख-सुनकर घरके लोगों, साथी कार्यकर्ताओं, सेवकों और पड़ोसियों आदिमें भगवान‍्के प्रति अविश्वास, धर्ममें शिथिलता और चरित्रमें दोष आनेकी सम्भावना हो।

(ठ) गरीब, दीन, मजदूर और विपत्तिग्रस्त नर-नारियोंके प्रति विशेष सहानुभूति तथा प्रेमका बर्ताव करे।

(ड) पर-निन्दा, पर-चर्चा, परदोष-दर्शन आदिसे यथासाध्य बचा रहे।

४—चरित्र शुद्ध हो—

जिसके आचरण शुद्ध हैं, वही सच्चा मनुष्य और वही भगवत्प्रेमका भी अधिकारी हो सकता है। यह जानकर इन बातोंपर ध्यान रखे—

(क) जहाँतक हो, युवती स्त्रियोंसे मिलना-जुलना बहुत कम रखे। एकान्तमें तो साथ रहे ही नहीं। कार्यवश किसीसे मिलनेकी जरूरत पड़े तो दृढ़ताके साथ उसमें भगवद‍्बुद्धि या मातृबुद्धि करे। स्त्रीमात्रमें ही भगवती या मातृभावना करनी चाहिये। मनमें इतनी विशुद्धि पैदा कर लेनी चाहिये कि किसी भी स्त्रीके चिन्तन, दर्शन या बातचीतसे मनमें कोई विकार आवे ही नहीं।

(ख) रुपये-पैसेके सम्बन्धमें सदा स्पष्ट और ईमानदार रहे। दूसरेकी छदामपर भी चित्त न चले। छोटे या बड़े प्रत्येक लेन-देनमें एक-एक पैसाका हिसाब पूरा और दुरुस्त रखे और उसे अधिकारियोंको दिखानेमें जरा भी संकोच या अपमान न समझे। जहाँतक हो हिसाब हाथों-हाथ दे दिया जाय।

(ग) गन्दे साहित्य, गन्दी बातचीत और गन्दे नाटक-सिनेमा आदिसे सर्वथा बचा रहे।

(घ) चरित्र-सम्बन्धी दिनचर्या प्रतिदिन लिखे और अपनी भूलोंपर पश्चात्ताप करके भविष्यमें भूल न करनेका निश्चय करे।

५—स्वार्थसिद्धिकी कामना न हो। जैसे—

(क) सेवा करनेसे लोगोंकी मुझपर श्रद्धा होगी तो मैं महात्मा कहलाऊँगा, लोग मुझे अपना गुरु, सरदार या नेता समझेंगे। मेरा सम्मान-पूजन करेंगे, मेरे आज्ञाकारी होंगे। मेरी कीर्ति फैलेगी और इतिहासोंमें मेरा नाम अमर रहेगा।

(ख) मुझे खाने-पीने-पहननेकी कोई तकलीफ नहीं होगी। शिष्यों, सेवकों तथा अनुयायियोंके द्वारा मुझे सदा अच्छा आराम और अभावपूर्तिके लिये आवश्यक सामग्रियाँ अपने-आप मिलती रहेंगी। फिर जीविकाका तो कोई प्रश्न रहेगा ही नहीं।

६—अभिमान न हो। जैसे—

(क) मैंने सेवाके लिये कितना त्याग किया है जो तन-मन-धनसे सेवामें लगा हूँ।

(ख) मैं योग्यता होनेपर भी अवैतनिक या केवल निर्वाहमात्रके लिये थोड़ेसे रुपये लेकर इतना काम करता हूँ, अतएव वेतन लेकर या अधिक वेतन लेकर काम करनेवालोंसे श्रेष्ठ हूँ। वे मेरी बराबरी कैसे कर सकते हैं?

(ग) मैं धर्म या देशकी सेवा करता हूँ, दूसरे लोग तो केवल परिवार या अपने ही भरण-पोषणमें लगे हैं, इसलिये मैं उनसे श्रेष्ठ हूँ।

(घ) मुझमें विद्या अधिक है, मैं एम० ए०, आचार्य आदि डिग्रियोंको प्राप्त हूँ। कम पढ़े-लिखे लोग बुद्धि-विचारमें मेरे समान कैसे हो सकते हैं?

७—स्वभाव और वाणीके व्यवहारमें दृढ़ताके साथ पूरी नम्रता, कोमलता और प्रेम हो।

(क) कार्यपद्धति या संस्थाके नियमोंका पालन स्वयं दृढ़तासे करके अपने साथियोंसे करवावे।

(ख) परन्तु स्वभावमें और वाणीमें अमृत-सी मिठास भरी हो, जिससे किसीको भी उसका व्यवहार अखरे नहीं।

(ग) स्वयं आचरण करके अपने साथियोंमें नम्रता, कोमलता, विनय, प्रेम तथा शुद्ध सेवाका भाव जाग्रत् करे—उपदेश या आदेशसे नहीं। जो स्वयं उत्तम आदर्श व्यवहार नहीं करता, उसके उपदेशका दूसरोंपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और उसे यह आशा भी नहीं रखनी चाहिये कि मेरे उपदेशसे लोग उत्तम व्यवहार करेंगे। दूसरोंकी बाट न देखकर उत्तम व्यवहारकी शुरुआत पहले अपनेसे ही करनी चाहिये।

८—आर्थिक लोभ न हो—

सेवाके भावसे ही सेवा-कार्य हो; स्वच्छन्द जीविकानिर्वाह और धनकी वृद्धिके उद्देश्यसे नहीं। इसका यह अर्थ नहीं कि अपने और परिवारके निर्वाहके लिये—यदि किसी संस्थामें पूरा समय देकर काम करना है तो वहाँसे कुछ ले ही नहीं। निर्वाहके लिये खर्च लेनेमें जरा भी आपत्ति नहीं; बल्कि न लेनेमें आपत्ति है। खर्च नहीं लिया जायगा तो समय तथा बुद्धि दोनोंका व्यय करके निर्वाहकी चेष्टा दूसरी तरहसे करनी पड़ेगी जिससे अबाध सेवाकार्यमें रुकावट होगी। परन्तु इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि अनावश्यक खर्च जरा भी बढ़ाया तो जाय ही नहीं जहाँतक हो इन्द्रिय-संयम, भोजनाच्छादनमें सादगी तथा अपना काम अपने हाथों करनेकी आदत डालकर उत्तरोत्तर खर्च घटाता रहे। आवश्यकता और अभाव जितना ही कम होगा, उतना ही खर्च भी कम होगा और खर्चके लिये रुपयोंकी जरूरत जितनी कम होगी उतनी ही सेवा शुद्ध होगी। रहन-सहनमें गरीबों और त्यागियोंका आदर्श सामने रखना चाहिये, भोगियों और धनवानोंका नहीं। झूठी मान-बड़ाई, आरामतलबी और विलासितामें पैसा खर्च करना अथवा पैसे बटोरकर धनी बननेकी चाह रखना—दोनों ही बातें साधकके लिये अत्यन्त हानिकर तथा सेवामें कलंक लगानेवाली हैं।

९—आत्मश्रद्धा, समयका सदुपयोग, नियमानुवर्तिता, आज्ञाकारिता, सहयोग और श्रेय—

(क) भगवान् में, भगवत्कृपामें और भगवत्कृपाके बलपर अपनी आत्मामें पूर्ण श्रद्धा हो। यह दृढ़ निश्चय करे कि मैं सब दोषोंसे मुक्त रहकर स्वाभाविक ही सत्कार्योंके द्वारा पूरी सफलताके साथ भगवान‍्की सेवा कर सकता हूँ और करूँगा।

(ख) जिस कामके लिये जो समय नियत हो, उस समय वही काम करे, समयका दुरुपयोग तो कभी न करे। व्यर्थकी बातोंमें, दूसरोंके दोषकथनमें, ताश-शतरंजमें और आलस्य-प्रमादमें जीवनके बहुमूल्य समयको जरा भी न खोवे। सदा-सर्वदा किसी-न-किसी अच्छे कामोंमें लगा रहे। निकम्मे आदमीको ही प्रमाद सूझा करता है।

(ग) संस्थाके सिद्धान्तों और नियमोंका पालन करे और उसके उद्देश्यकी सिद्धिके लिये पूरी जिम्मेवारी मानकर तत्परताके साथ अपना कार्य करे और उसीके अनुकूल अपना जीवन बनानेकी श्रद्धायुक्त चेष्टा करे।

(घ) नम्रताके साथ अधिकारियोंकी आज्ञाका कर्तव्य समझकर सुखपूर्वक पालन करे। कभी भी व्यवस्थामें गड़बड़ी पैदा न करे। अपनी ऐसी सुविधा न चाहे जिससे संस्थाकी कार्य-व्यवस्थामें अड़चन आवे और दूसरोंपर बुरा असर पड़े।

(ङ) आवश्यकतानुसार मिल-जुलकर काम करनेमें कभी अपमान न समझे, सहयोगियोंके साथ राग-द्वेषरहित प्रेमका बर्ताव करे, उनके कार्यकी उचित प्रशंसा करके—नये हों तो सम्मानपूर्वक उन्हें काम सिखाकर उत्साह दिलाता रहे और उन्हें अपनेसे नीचा न समझे। प्रतिद्वन्द्विता और दलबन्दी कभी न करे।

(च) किसी भी कार्यकी सफलताका श्रेय अपनेको न मिलकर अपने किसी साथीको मिले तो उसमें यथार्थ ही सुख माने। शुद्ध सेवक श्रेय मिलनेके लिये काम नहीं करता, वह तो भगवत्सेवाके लिये करता है। उसे अपने कर्तव्यपालनसे काम है, नाम या यशसे नहीं। इसलिये उसे तो चाहिये कि काम स्वयं करे और श्रेय साथियोंको दिलावे। किसी दूसरेकी सफलताके श्रेयमें हिस्सा बँटानेकी कभी इच्छा या चेष्टा न करे और न डाहसे उसके कार्यमें दोषारोपण करके उसके श्रेयको कम करने या मिटानेकी ही कल्पना करे।

मेरी समझसे इन बातोंपर खयाल रखकर इनका पालन करनेसे बहुत कुछ सुधार हो सकता है। यद्यपि है तो यह मेरा परोपदेशमात्र ही। अच्छा तो तब था जब मैं स्वयं इनका पालन करता। मेरी स्थिति तो उस चोरकी-सी समझिये जो स्वयं चोरी नहीं छोड़ सकता; परन्तु अपने अनुभवके रूपमें चोरीके बुरे नतीजे—जेलके कष्ट आदिको बतलाकर दूसरे लोगोंसे कहता है कि ‘भैया! मैं तो अपनी करनीका फल पा रहा हूँ; परन्तु आपलोग ऐसा काम न कीजियेगा जिससे मेरी ही भाँति आपलोगोंको भी पछताना पड़े।’

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