पापसे बचनेके उपाय
सप्रेम हरिस्मरण! आपका ७ जुलाईका खेदपूर्ण पत्र मिला। आपको अपने छोटे भाईकी असामयिक मृत्युके लिये जो खेद है, वह स्वाभाविक ही है। उसकी मृत्युमें आपका दूसरोंको ठगनेका संकल्प ही कारण था या उसका अपना अदृष्ट—यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। तथापि उसकी मृत्युमें आपका दोष न होनेपर भी आपकी अबतक जो प्रवृत्ति रही है उसके लिये आपको जितना खेद हो उचित ही है। जैसे-तैसे मनुष्य-जीवन मिला। वह कितने दिन रहेगा—इसका भी पता नहीं; फिर उसीके कुछ कल्पित सुभीतेके लिये पापाचारका आश्रय लेना परम दुर्भाग्य नहीं तो क्या है? यह जीवन तो केवल श्रीभगवान्की प्राप्तिके लिये ही होना चाहिये। यह दूसरोंके दु:ख और तापका कारण बने, इससे बढ़कर शर्मकी बात और क्या हो सकती है?
परन्तु अबतक यह जैसा बीता, उसे जाने दीजिये। अब उसके लिये पश्चात्ताप करने या रोने-धोनेसे कुछ बनना नहीं है। जरूरत है भविष्य सुधारनेकी। दिनभरका भूला यदि शामको घर लौट आवे तो भूला नहीं माना जाता। इसलिये पापमय जीवन भी यदि कोई टक्कर खाकर सुधर जाय तो भगवान्की विशेष कृपा ही समझनी चाहिये। इस दुर्घटनासे यदि आपका जीवन निष्पाप और प्रभुपरायण हो जाय तो लौकिक दृष्टिसे बड़ी हानि होनेपर भी आपके लिये तो लाभकी ही बात होगी। परन्तु यह कहा नहीं जा सकता कि आपका आजका पश्चात्ताप भविष्यमें ठहरेगा या नहीं। कष्ट पड़नेपर एक बार तो प्राय: सभीकी आँखें खुल जाती हैं, परन्तु कालकी ऐसी अद्भुत महिमा है कि धीरे-धीरे वह बड़े-से-बड़े दु:खको भी भुला देता है और मनुष्य फिर अपनी वासनाओंका दास होकर मनमाना नाच नाचने लगता है। यदि आप शान्ति चाहते हैं तो अनन्यभावसे भगवान्की शरण लीजिये। हर समय उन्हींका नामजप कीजिये। सब प्रकार कुसंग, कुविचार और कुप्रवृत्तियोंसे दूर रहिये। भजनमें बड़ी शक्ति होती है। वह आपके सारे जीवनको बदल सकता है। जब जीवन बदलेगा और आपमें सत्त्वगुणका विकास होगा तो जो लोग आज आपसे घृणा करते हैं, वे ही प्रेम करने लगेंगे। पहले आप अपनेको शुद्ध कीजिये। उनकी घृणाको अपने पापोंका दण्ड समझकर उनका उपकार मानिये और घृणाके बदलेमें भी उनसे प्रेम कीजिये। बाहर कहीं मत जाइये, उन्हींमें रहिये और उनके तिरस्कारको सहन कीजिये। यह सहनशीलता ही आपके चित्तको शुद्ध कर देगी।
यह निश्चय मानिये कि जिस दिन आपका मन अपने पूर्वजीवनकी ओरसे सर्वथा उदासीन होकर श्रीभगवान्के भजनमें अनन्यभावसे लग जायगा, उसी दिन आप सर्वथा शुद्ध हो जायँगे। गीताजीमें स्वयं श्रीभगवान्ने कहा है—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
(९। ३०)
‘कोई बड़ा भारी भी दुराचारी हो, किन्तु यदि वह अनन्यभावसे मेरा भजन करने लगे तो उसे साधु ही समझना चाहिये, क्योंकि अब उसका निश्चय ठीक हो गया है।’
अत: अब आप अपना निश्चय ठीक करके भगवद्भजनमें लग जाइये। कम-से-कम एक लाख भगवन्नामका नित्य जप कीजिये। यदि आजीविकाके लिये कोई काम करनेके कारण इतना समय न मिले तो कम कीजिये; किन्तु हर समय भगवान्की स्मृति रखिये। बिना संख्याके चुपचाप जीभसे नाम-जप करते रहिये। सबके प्रति सम्मान और सेवाका भाव रखिये। सब प्रकारके पापोंसे दूर रहिये। बहुत सादगीसे कम खर्चसे रहिये और जहाँतक सम्भव हो अपने खाने-पीने लायक पैसा स्वयं ही पैदा कीजिये, किन्तु वह आमदनी किसी पापपूर्ण साधनसे नहीं होनी चाहिये। आपके वहाँ ही जो सत्पुरुष हों—उनका संग कीजिये। अभी बाहर कहीं जानेकी जरूरत नहीं है। कम-से-कम छ: महीने यदि ठीक साधन चलता रहे तो पीछे कहीं जानेका विचार कर सकते हैं। अभी तो वहीं रहकर मनकी गति परखिये।
ब्रह्मचर्य-रक्षाके साधन
ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिये नीचे लिखी बातोंपर ध्यान रखिये—
१—जान-बूझकर कभी किसी स्त्रीकी ओर मत देखिये।
२—स्त्रियोंकी चर्चामें कभी सम्मिलित मत होइये। ऐसा कोई साहित्य नहीं पढ़ना और नाटक-सिनेमा भी नहीं देखना चाहिये।
३—जब कामोत्तेजना हो तो एक गिलास ठण्डा जल पी लीजिये तथा एकान्तमें न रहकर चार आदमियोंके पास आकर कोई सत्-चर्चा चला दीजिये। जोर-जोरसे नामकीर्तन कीजिये।
४—यदि यज्ञोपवीत हो गया हो तो नित्यप्रति कम-से-कम एक घण्टा स्थिर आसनसे बैठकर गायत्रीका जप कीजिये। यज्ञोपवीत न हुआ हो तो १४ माला ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥’ इस मन्त्रका जप कीजिये। आसनोंमें सिद्धासन विशेष उपयोगी रहेगा।
५—शौच जानेके समय मूत्रेन्द्रियको ठण्डे जलसे धोइये।
६—नित्यप्रति पवित्र जीवनके लिये रोकर भगवान्से प्रार्थना कीजिये।
७—सब प्रकारकी शौकीनी—जैसे नाटक-सिनेमा देखना, पान-सिगरेट खाना, इत्र-सेण्ट लगाना, मद्य-मांसादि सेवन करना अथवा बाबुआना वस्त्र धारण करना, सिरपर जुल्फ रखना आदिसे एकदम दूर रहिये। जबतक शौकीनी रहेगी ब्रह्मचर्यकी रक्षा असम्भव है।
८—मिर्च-मसाला आदि छोड़कर सादा भोजन कीजिये। मिठाई अधिक न खाइये। आशा है, ऊपर जो कुछ निवेदन किया गया है उसपर यदि आप ध्यान देंगे तो अवश्य आपको कुछ सहायता मिलेगी। अधिक क्या लिखूँ, शेष भगवत्कृपा।