पतन करनेवाले तीन आकर्षण
आपने अपने पत्रमें जो दो दोष लिखे—१—दूसरी स्त्रियोंके प्रति मन खराब होना और २—मान-बड़ाई पानेकी इच्छा; और इनके नाश होनेका उपाय पूछा सो आपकी बड़ी सदिच्छा है।
सचमुच जगत्में तीन ही सबसे बड़े आकर्षण हैं। १—धन, २—स्त्री (स्त्रीके लिये पुरुष) और ३—मान-बड़ाई। इसीलिये शास्त्रकारों और अनुभवी सन्तोंने कांचन, कामिनी और मान-प्रतिष्ठाको परमार्थ साधनमें सबसे बड़े विघ्न मानकर इनसे बचनेका उपदेश दिया है। इनमें जिनका चित्त आसक्त है, उनसे कौन-सा पाप नहीं हो सकता? पापोंके होनेमें प्रधान कारण इनमें हमारे चित्तकी आसक्ति ही है। इससे बचनेका उपाय है इनमें वैराग्य होना और भगवान्में आसक्ति होना। याद रखना चाहिये जैसे विषयासक्ति समस्त पापोंका मूल है उसी प्रकार भगवदासक्ति समस्त पापोंका समूल नाश करनेके लिये महान् शस्त्र है। विषयोंमें दोष-दु:ख देखकर उनसे मन हटाना और भगवान्के दिव्य गुण, प्रभावको पढ़-सुन और समझकर उनमें मन लगाना—ये दोनों कार्य साथ-साथ चलने चाहिये। भगवान्के दिव्य गुण और उनके सौन्दर्य-माधुर्यमें विश्वास हो जानेपर तो विषयोंके आकर्षण अपने-आप ही नष्ट हो जाते हैं। सूर्यके सामने दीपकको कौन पूछता है। जबतक वैसा न हो तबतक भगवान्के दिव्य गुणोंमें विश्वास जमाने और मन लगानेकी तथा विषयोंसे मन हटानेकी कोशिश करनी चाहिये। सोचना चाहिये जिस स्त्रीके शरीरको हम रमणीय मानते हैं, वस्तुत: वह कैसा है। हड्डी, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा, विष्ठा, मूत्र, श्लेष्म, चर्म आदिमें यथार्थमें कौन-सी वस्तु रमणीय है? स्त्रीके शरीरके अन्दर क्या है इस बातको विचारपूर्वक देखना चाहिये। तब उससे मन हटेगा, घृणा हो जायगी। श्रीसुन्दरदासजी महाराजने कहा है—
कामिनीको अंग अति मलिन महा अशुद्ध,
रोम-रोम मलिन, मलिन सब द्वार हैं।
हाड़, मांस, मज्जा, मेद, चर्मसूँ लपेट राखे,
ठौर ठौर रकतके भरे हू भंडार हैं॥
मूत्र हू पुरीष-आँत एकमेक मिल रही,
और हू उदर माँहि विविध विकार हैं।
सुन्दर कहत नारी नख सिख निन्दारूप,
ताहि जो सराहै सो तो बड़ोई गँवार हैं॥
यही बात स्त्रीको पुरुष-शरीरके लिये समझनी चाहिये। इस प्रकार विचार करनेसे स्त्रीमें रमणीयता-बुद्धिका नाश होकर वैराग्य हो जाता है।
दूसरा उपाय है—स्त्रीमें भोग्यबुद्धिका नाश होना। जगत्की सारी स्त्रियोंमें जगज्जननी भगवतीकी भावना करके सबमें मातृभाव हो जानेसे भोग्यबुद्धिका नाश हो जाता है।
स्त्री-दर्शन तो बुरा है ही, स्त्री-चिन्तन भी बहुत बुरा है। जहाँतक हो सके स्त्री-चिन्तनसे चित्तको हटाना चाहिये। ‘स्त्रीकी ओर दृष्टि न डालनेकी कोशिश करनेपर भी उसके पैरोंकी आहट सुनते ही मन उधर दौड़ने लगता है।’ इसका कारण यही है कि स्त्रीके रूप और सुखमें चित्त आसक्त है। आसक्ति ज्यों-ज्यों कम होगी, त्यों-ही-त्यों आकर्षण नष्ट होगा।
गायत्री-जाप बढ़ानेसे भी इस पापवासनासे छुटकारा मिल सकता है। इसी कामनासे गायत्री-जाप करना चाहिये।
मान-बड़ाईकी बीमारी तो बड़ी दु:साध्य है। भगवान्की कृपासे ही इसका यथार्थ नाश होता है। मान-बड़ाईमें मनुष्य एक प्रकारके सुखका-सा अनुभव करता है। मानसे भी बड़ाईकी कामना अधिक प्रबल होती है। बड़ाईके लिये मनुष्य मानका भी त्याग कर देता है। वस्तुत: मानका ही विशेष विकसित रूप बड़ाई है। मान-बड़ाई किसी अंशमें लाभदायक भी माने जाते हैं। कारण, मान-बड़ाईके लोभसे मनुष्य बहुत बार दान-पुण्य, सेवा-सत्संग, भजन आदि सत्कार्य करता है जो मान-बड़ाईकी इच्छा होनेके कारण उसको मोक्षस्वरूप महान् फल न दे सकनेपर भी अन्त:करणकी शुद्धिमें सहायक होते हैं। परन्तु मान-बड़ाईकी इच्छा दम्भकी उत्पत्तिमें बड़ी सहायक होती है। मान-बड़ाईकी इच्छासे किये जानेवाले कर्मका उद्देश्य ऊँचा नहीं होता। सत्संग, भजन आदि भी मान-बड़ाईके उद्देश्यसे होते हैं। ऐसी अवस्थामें ऐसा करनेवालेको सत्संग-भजनकी इतनी परवा नहीं होती—जितनी मान-बड़ाईकी होती है। धीरे-धीरे सत्संग-भजनसे उसका मन हट जाता है और फिर वह मान-बड़ाईकी चाहसे भजन-सत्संग आदिका दम्भ करता है। और यदि भजन-सत्संगादि सत्कार्योंमें मान-बड़ाई मिलनेकी आशा नहीं होती तो फिर वह भजन-सत्संगादिको स्वरूपत: भी त्याग देता है। जिन कार्योंमें मान-बड़ाई मिलती है, वही करता है। अतएव मान-बड़ाईकी इच्छा सन्मार्गमें रुकावट तो है ही। कुसंगवश बुरे लोगोंमें मान-बड़ाई पानेकी इच्छा उत्पन्न होनेपर यह बड़े-से-बड़े पतनका कारण भी बन जाती है। यही सब सोचकर मान-बड़ाईसे चित्त हटाना चाहिये।
आपने लिखा प्रभुके सामने रोनेके सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है, सो यह उपाय तो सर्वोत्तम है। रोना अभी नकली हो तो भी घबराइये नहीं; नकली ही साधनस्वरूप होनेसे एक दिन असली बन जायगा। और जिस दिन असली आँसू गिरेंगे उस दिन भगवान् आँसू पोंछनेको तैयार मिलेंगे और हमारी प्रार्थना सुनकर हमें इन पापोंसे मुक्त कर देंगे।