विषयकामनाकी आग
आपने अपने दोषोंकी बात लिखी सो यह आपकी सौजन्यता है। दोष दीखने लगते हैं तो उनका प्रतीकार करनेकी भी इच्छा और चेष्टा होती है। दोष तो मनुष्यमें आ ही गये हैं और तबतक उनका पूरा नाश नहीं होता जबतक कि भगवत्-साक्षात्कार न हो जाय। सत्संग, शुद्ध सात्त्विक वातावरण, भजन आदिसे वे दोष दब जाते हैं, वैसे ही छिप जाते हैं जैसे अच्छे शासकके राज्यमें चोर-डाकू; परन्तु वे सहज ही मरते नहीं। यदि बाहरसे कोई सहायक या साथी न मिले और लगातार दबते ही चले जायँ तो क्षीण होते-होते अन्तमें वे मरणतुल्य हो जाते हैं, सिर उठानेलायक नहीं रहते और फिर भगवत्साक्षात्कार होते ही सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, फिर उनकी जड़ ही नहीं रह जाती। परन्तु जबतक ऐसा नहीं होता तबतक उनसे सावधान ही रहना चाहिये। इसका उपाय यही है कि सदा-सर्वदा शुद्ध वातावरणमें रहे, सत्संगका पहरा रखे और भजनके द्वारा उन्हें दबाता चला जाय। दरवाजा बन्द हो, बाहर पहरा हो और अन्दर बराबर मार पड़ती रहे तो स्वाभाविक ही फिर नये दोष आ नहीं सकते और पुराने क्षीण होते रहते हैं। ऐसा न होनेसे द्वार खुला रखने और पहरा न बैठानेसे अर्थात् विषयमोहपूर्ण वातावरणमें रहने और सत्संग न करनेसे बाहरके दोष आते रहते हैं जिनसे अन्दरवालोंको बल मिलता रहता है। और नये डाकुओंके आ जानेसे जैसे पुरानोंका बल बढ़ता है और पुरानोंके मिल जानेसे नये भी प्रबल हो उठते हैं, ऐसे ही नये दोषोंके आते रहनेसे पुराने उभड़ पड़ते हैं, बलवान् हो जाते हैं और नयोंको भी बलवान् बना देते हैं। इसलिये जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसे बड़ी सावधानीके साथ नये दोषोंको समीप आने न देना चाहिये और सदा जाग्रत् रहकर पुरानोंको मारनेका प्रयत्न करते रहना चाहिये। उन्हें दबे देखकर—सामने प्रत्यक्ष न पाकर यह नहीं समझ लेना चाहिये कि मैं निर्दोष हो गया; अब कुछ भी करूँ, कोई भय नहीं है। जरा-सी ढिलाई पाते ही मौका मिलते ही इर्द-गिर्दमें छिपे हुए नये दोष आकर पुरानोंको प्रबल कर देंगे और जगत्में मनुष्य-जीवनके लिये इससे बढ़कर और कोई हानि नहीं है। संसारका बड़े-से-बड़ा ऐश्वर्य प्राप्त होनेपर भी यदि ये दोष रह जाते हैं और मनुष्य भगवान्की ओर नहीं लग पाता तो उसका जीवन व्यर्थ ही नहीं, भावी दु:खके कारणरूप पाप बटोरनेका साधन हो जाता है। वह यहाँ और वहाँ कहीं भी शान्ति नहीं पा सकता, मोहवश किसी-किसी समय शान्ति मान बैठता है। विषयोंका कहीं अन्त आता ही नहीं, भला इनसे किसको शान्ति मिली है? ये तो ज्यों-ज्यों मिलेंगे त्यों-ही-त्यों कामनाकी आगको भड़काते ही रहेंगे। ज्वाला और पाप बढ़ेंगे, घटेंगे नहीं। यह ध्रुव सत्य है। मनुष्य मोहसे ही इनमें शान्ति और शीतलता खोजता है। आखिर किसी-न-किसी समय भगवत्कृपासे उसको इनसे निराशा होती है; तब वह उस शाश्वत, नित्य और सत्य सुख-शान्तिकी खोजमें लगता है; और तभी उसका जीवन सच्ची साधनाकी ओर अग्रसर होता है। दोष और पापोंका जन्म तो होता है इस विषयासक्तिसे। इससे बचना चाहिये; और इसके बदलेमें विषयविरागपूर्वक भगवच्चरणोंमें आसक्ति पैदा करनी चाहिये। वस्तुत: वे ही बड़भागी हैं जो भगवच्चरणानुरागी हैं। विषयोंके पीछे पड़े हुए सदा अतृप्तिकी आगमें जलनेवाले मनुष्य बड़भागी नहीं हैं। भले ही उनके पास औरोंकी अपेक्षा विषयसम्पत्ति कहीं प्रचुर हो। आग जितनी बढ़ी होगी, उतनी ही अधिक भयानक होगी, यह याद रखना चाहिये।
धनमें तो एक विशेष प्रकारका नशा होता है जो मनुष्यकी विचारशक्तिको प्राय: भ्रमित कर देता है। उसकी बुद्धि चक्कर खा जाती है। इसीसे वह अशुभमें शुभ और अकल्याणमें कल्याण देखता है।
कनक कनक तें सौगुनी मादकता अधिकाय।
वह खाये बौरात है यह पाये बौराय॥
हाँ, यदि संसारके सब कर्म शुद्ध और निष्कामभावसे केवल भगवत्पूजाके लिये ही होते हों तो अवश्य ही वे बाधक नहीं होते। वैसी स्थितिमें धन कमाना और विषयसेवन करना भी बुरा नहीं है बल्कि उससे भी लाभ होता है; परन्तु यह होना है कठिन। उसका तरीका और फल भगवान् बतलाते हैं—
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
(गीता २।६४)
‘राग-द्वेष न हो, शरीर-मन-इन्द्रियाँ पूर्णरूपमें वशमें हों। किसी विषयपर मन-इन्द्रियाँ न चलें, कर्तव्यवश भगवत्सेवाके लिये ही बिना किसी आसक्तिके और द्वेषके निर्दोष विषयोंका सेवन हो तो उससे प्रसादकी प्राप्ति होती है।’ और प्रसादसे सारे दु:खोंका नाश हो जाता है। ‘प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।’ (गीता २।६५) परन्तु संसारमें ऐसे कितने विषयसेवी हैं जो इस प्रकार विषयोंको भगवान्की पूजाकी सामग्री बनाकर केवल भगवत्पूजाके लिये ही उनका अनासक्तभावसे सेवन करते हैं।
आपने बहुत सत्संग किया है। आप सब समझते ही हैं। थोड़ी-बहुत जो काई आ गयी है, उसे हटाकर भगवत्-भजनमें लग जाना चाहिये। इससे यह मत समझिये कि मैं काम छोड़नेके लिये कहता हूँ, छोड़नेके लिये कहता हूँ विषयासक्तिको जिससे दोष जाग्रत् होते हैं और बढ़ते हैं। भगवान् पर विश्वास रखकर साधनमें लगे रहिये। फिर वे आप ही बचा लेंगे। कातरभावसे उनके सामने व्याकुल होकर कभी-कभी रोइये, दीन और करुण पुकारपर उनका मन बहुत शीघ्र ही खिंचता और द्रवित होता है।