Hindu text bookगीता गंगा
होम > लोक परलोक का सुधार > सब भगवान‍्की पूजाके लिये हो

सब भगवान‍्की पूजाके लिये हो

भाई साहब! श्रीभगवान‍्को छोड़कर संसारमें सभी कुछ दु:खमय है। यहाँ जो सुख दीखता है, वह यदि वास्तविक है तो भगवान‍्के सुख-समुद्रका कोई एक कणमात्र है और यदि वास्तविक नहीं है तो सुखके रूपमें दु:ख ही सामने आ रहा है। उसका रूप वैसे ही छिपा है जैसे किसीके विनाशके लिये बनायी हुई मिठाईमें विष छिपा रहता है।

श्रीभगवान‍्के सम्बन्धसे ही सबका सम्बन्ध है, श्रीभगवान‍्के प्रियत्वसे ही सबमें प्रियभाव है। भगवान‍्के बिना तो यह जगत् भयंकर है। चारों ओरसे काटनेको दौड़ता है। ऐसे भगवत्-सम्बन्धरहित विषयोंमें जो ममत्व और सुखबुद्धि हो रही है, यही मोह है। भगवान‍्ने भोगोंको ‘दु:खयोनि’ दु:ख उपजानेवाले बतलाया है। चाहे वे एक व्यक्तिके लिये हों या समस्त विश्वके लिये। जो मनुष्य अपने सुखके लिये भोगादि न चाहकर समष्टिके लिये चाहता है, वह अवश्य ही उदार और त्यागी है, परन्तु वह भी है यथार्थमें भूलमें ही। भूलमें न होता तो ‘दु:खयोनि’ विषयोंमें उसे सुख दीखता ही कैसे? भोगोंसे वैराग्य हुए बिना यथार्थ भगवत्प्रेमका सच्चा विकास नहीं होता। जबतक मनोभूमिमें विषयानुरागका गन्दा कीचड़ भरा हुआ होता है, तबतक उसमें बोया हुआ प्रेमका बीज उगता नहीं। उगना तो दूर रहा, प्रेमका यथार्थ बीज वहाँ पहुँचता ही नहीं। चित्तभूमि जब वैराग्यके द्वारा शुद्ध हो जाती है तभी उसमें भगवत्प्रेमका बीज बोया जा सकता है और तभी वह अंकुरित, पुष्पित और फलित होता है। परन्तु इस वैराग्यका उदय भी अन्त:करणकी शुद्धिकी अपेक्षा रखता है और वह होती है भजनसे। भजन ही अन्त:करणके मलको जला डालनेवाली आग है। इसलिये भजन करना चाहिये और विचार तथा भगवत्प्रार्थनाके द्वारा भोगोंसे वैराग्य उत्पन्न करते रहना चाहिये। जब भगवत्प्रेमकी झाँकी हो जायगी तब जगत‍्के सभी सुख नीरस, नाचीज और हेय लगने लगेंगे। फिर सहज ही उनसे मन हट जायगा। भक्तवर नागरीदासजी (किसनगढ़के भगवद्भक्त महाराज)-ने भगवत्प्रेमकी जरा-सी झाँकी होनेके बाद यह पद गाया है। इसमें अपने पहले जीवनके लिये कितना पश्चात्ताप किया है, देखिये—

किते दिन बिनु बृन्दावन खोये।
यों ही बृथा गये ते अबलों राजस-रंग समोये॥
छाड़ि पुलिन-फूलनिकी सैया, सूल-सरनि सिर सोये।
भीजे रसिक अनन्य न दरसे, बिमुखनिके मुख जोये॥
हरि बिहारकी ठौर रहे नहि अत अभाग्य बल बोये।
कलह सराय बसाय भट्यारी माया राँड बिगोये॥
इकरस ह्याँके सुख तजिके ह्वाँ कबौं हँसे कबौं रोये।
कियो न अपनो काज, पराये भार सीसपर ढोये॥
पायो नहिं आनंद लेस मैं सबै देस टकटोये।
नागरिदास बसे कुंजनमें जब सब बिधि सुख भोये॥

यह है राजाके आनन्दका असली स्वरूप। परन्तु यह असली रूप देख पड़ता है—भोगोंके मायाजालसे छूटनेपर ही।

मेरा इससे यह मतलब नहीं है कि घर-बार छोड़कर कहीं चले जाना चाहिये। कोई कहीं भी जाय, जबतक मनमें राग (आसक्ति) है, तबतक फँसावट है ही। सबकी अपनी-अपनी अलग दुनिया है और अलग-अलग छोटे-बड़े क्षेत्र हैं। सम्राट् अपने बड़े भारी राज्यके कार्योंमें राग-द्वेष करता है, दूकानदार छोटी-सी दूकानदारीके सम्बन्धसे उतनी-सी दुनियामें और बच्चा खेलके खिलौनोंमें। दु:खी सभी हैं, रोना सभीको है—क्योंकि प्रतिकूलताके दर्शन सबको होते हैं, प्रतिकूलतामें ही दु:ख और द्वेष है। इसीलिये घर न छोड़कर घरकी मालिकी छोड़नी चाहिये। अपने सब कुछपर श्रीभगवान‍्का अधिकार स्थापित करके भगवान‍्की पूजा करनेके लिये घरमें रहना चाहिये। घर भगवान‍्का पूजा-मन्दिर बने, हम पुजारी बनें। आसक्ति भगवान‍्में हो, घरमें नहीं; घरकी चीजें प्यारी हों तो इसीलिये कि वे भगवान‍्की हैं, भगवान‍्की पूजाके लिये हैं! पूजाके लिये न हों तो—

जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ॥
••••
अंजन कहा आँखि जेहि फूटैं, बहुतक कहौं कहाँ लौं।

जैसे घर भगवान् का, वैसे ही यह सारा जगत् भगवान् का—बस इसी नाते जगत‍्में रहना, जगत‍्के कार्य करना, प्यारे भगवान् जिस कार्यमें लगा दें उसीको करना। आसक्ति भगवान् में—कार्य भगवान् का। वे चाहे जगत‍्के विकासके रूपमें अपनी सेवा करावें या विनाशके रूपमें। याद रखनेकी इतनी ही बात है—भोगोंमें सुख नहीं, सुख एकमात्र भगवान‍्में है। जगत् भोगोंसे सुखी होगा, यह भ्रान्त धारणा है। सुखी होगा भगवान् से। चाहे भोग न रहें—उनकी पूजाके लिये रहें और वे रखना चाहें तो वह भी उत्तम है—असलमें सेवा भगवान‍्की करनी है, भोगोंकी नहीं। भोगोंसे भगवान‍्को रिझाना है, भगवान‍्से भोगोंको पाना नहीं!
इसलिये मुझे तो बस, आप बड़े हैं, यही आशीर्वाद दीजिये कि भगवान‍्के चरणोंमें अपनेको निवेदन कर सकूँ और उनके इंगितके अनुसार कार्य करता हुआ उनके नामका स्मरण करता रहूँ।

अगला लेख  > सच्चा धन