Hindu text bookगीता गंगा
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प्रेम और विकार

......आप लिखते हैं ‘मैं प्रेम-धनसे शून्य हूँ। बिना प्रेमके जीवन कैसा, वह तो बोझरूप है।’ यह आपका लिखना सिद्धान्तत: ठीक ही है। प्रेमशून्य जीवन शून्य ही है। परन्तु वास्तवमें यह बात है नहीं। प्रेम सभीके हृदयमें है, भगवान‍्ने जीवको प्रेम देकर ही जगत‍्में भेजा है। हमने उस प्रेमको नाना प्रकारसे इन्द्रियचरितार्थतामें लगाकर विकृत कर डाला है, इसीलिये उसके दर्शन नहीं होते और कहीं होते हैं तो बहुत ही विकृतरूपमें होते हैं। विकृत स्वरूपका नाश होते ही मोहका पर्दा फट जाता है; फिर प्रेमका असली ज्योतिर्मय स्वरूप प्रकट होता है, जिसके प्राकट्यमात्रसे ही आनन्दाम्बुधि उमड़ पड़ता है। प्रेम और आनन्दका नित्ययोग अनिवार्य है। भगवान‍्के आनन्दसे ही प्रेमकी सृष्टि हुई है और इस प्रेमसे ही आनन्दका विकास और पोषण होता है। प्रेमकी कोई भी दशा ऐसी नहीं है, जहाँ आनन्दका अभाव हो और आनन्द भी कोई ऐसा नहीं, जिसमें कारणरूपसे प्रेम वर्तमान न हो। परन्तु जहाँ प्रेमके नामपर कामकी क्रीड़ा होने लगती है, वहाँ प्रेम अपनेको छिपा लेता है। चिरकालसे मलिना मायाके मोहवश हम कामकी क्रीड़ामें लगे हैं। कामको ही प्रेम समझ बैठे हैं। इसीलिये प्रेम हमसे छिप गया है और इसीलिये प्रेमके अभावमें हम आनन्दरहित केवल ‘चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिता:’ और ‘कामोपभोगपरमा’ (गीता१६।११) होकर शोक-विग्रह बन गये हैं। इस कामकी कालिमाको धोनेके लिये आवश्यकता है किसी ऐसे क्षारकी, जो इसकी जड़तकका नाश कर दे, और वह क्षार वैराग्य है। गोविन्द-पदारविन्द-मकरन्द-मधुकर विषय-चम्पक-चंचरीक होता ही है। बार-बार उस परम प्रेमार्णव—अनन्त प्रेमार्णव-सुधासार श्यामसुन्दरका स्मरण करना और उसकी दिव्य पद-नख-ज्योतिके प्रकाशसे समस्त संचित मोहान्धकारका नाश करनेके निश्चयसे प्रत्येक क्षणके प्रत्येक चिन्तनमें अपार अलौकिक आनन्दका अनुभव करना (अनुभव न हो तो भावना करना) कर्तव्य है। उसके इस मधुर चिन्तनके प्रभावसे जगत‍्के समस्त रस नीरस, कटु और त्याज्य हो जायँगे। तब उस रसविग्रहकी रश्मियाँ हमारे ऊपर पड़ेंगी और हमारे सुप्त प्रेमको जगाकर हमें उसके दिव्य दर्शन करायेंगी।

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