गीता गंगा
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साधकोंसे

......अपने दोषोंका दीखने लगना साधन-स्तरमें ऊपर चढ़नेका इच्छाका लक्षण है, दोषोंका दीखते रहना दोषनाशकी प्रवृत्तिका कारण है, दोषोंके लिये जीमें जलन पैदा हो जाना दोष-नाशका आरम्भ हो जाना है, जरा-से भी दोषका हृदयमें सदा शूल-सा चुभना दोषोंसे बहुत कुछ मुक्त हो जानेका लक्षण है और दूसरेके दोषोंका सर्वथा न दीखना एवं अपने दोष-नाशकी भी स्मृति न रहना दोषोंका नाश है। दोषोंका सर्वथा नाश और भगवान‍्का सर्वदा सर्वत्र दर्शन प्राय: एक ही कालमें होनेवाली स्थिति है। आपलोगोंको अपने दोष दीखते रहते हैं और खटकते भी हैं, यह शुभ लक्षण है। परन्तु इतनेसे ही सन्तुष्ट न हो जाइये। जबतक जरा-सा भी विकार मनमें होता है तबतक दोषके बीजका नाश नहीं हुआ है। जहाँ बीज है, वहाँ अनुकूल संयोग मिलनेपर उसके अंकुरित होने और फूलने-फलनेमें कौन देर लगती है। दोषका बीज नाश करनेकी चेष्टा कीजिये। यह दोषबीजनाश भगवान‍्की अहैतुकी कृपासे होता है और उनकी अपार और अनन्त कृपाका अनुभव करनेसे ही कृपा फलवती होती है। अतएव पद-पदपर और पल-पलमें भगवान‍्की अपार कृपाका अनुभव करते रहना चाहिये। उनके सर्वदोषहर वरद कोमल करकमलको सदा अपने सिरपर समझना चाहिये और उनके अपरिमित बलसे अपनेको सदा बलवान् मानकर पाप-तापकी स्फुरणातकको नष्ट कर देना चाहिये। उनके बलके सामने पाप-तापका बल किस गिनतीमें है। भगवान‍्के नाममें पूरा आनन्द नहीं आता, इसका कारण यही है कि भगवान‍्में अभीतक प्रियतम-बुद्धि नहीं है। जिसमें प्रियतम-बुद्धि हो जाती है, उसके नामकी तो बात ही निराली है, उसकी फटी जूतीका चिथड़ातक अत्यन्त प्यारा लगता है। भगवान‍्में प्रियतम-बुद्धि हो जानेपर उनके सारे जगत् में—भयानक जगत‍्में भी उन्हींके नाते अत्यन्त प्रेम हो जायगा और सभी वस्तुएँ आनन्ददायिनी बन जायँगी; क्योंकि सबमें फिर उन्हीं परम प्रियतमका सम्बन्ध दीख पड़ेगा, सभी उनके कर-कमलोंसे संस्पृष्ट जान पड़ेंगी। फिर नाम परम मधुर हो जायगा। नाम सुनानेवाला परम प्रिय और परम पूज्य जान पड़ेगा। उनकी स्मृति करा देनेवालेके चरणोंमें चित्त लुट पड़ेगा।

बड़े भाग्यसे गंगाका विमल तट, तीर्थराजकी पावन भूमि, दिन-रात श्रीभगवन्नामके श्रवण-कीर्तनका संयोग प्राप्त होता है। यह श्रीभगवान‍्की कृपाका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इससे पूरा लाभ उठाइये। तन-मन-वाणीको, प्रत्येक इन्द्रियको भगवान‍्की ओर लगा दीजिये। ऐसा तन्मय हो जाना चाहिये कि आपलोगोंको देखकर दूसरोंमें भी उत्साह उमड़ आवे।

मान-बड़ाईकी चाहका चित्तमें न रहना ही आश्चर्य है, रहनेमें कुछ भी अचरज नहीं। हाँ, चोरीसे चित्तमें छिपी हुई इस चाहको जितनी ही सावधानीसे बार-बार बाहर निकाला जाय, उतना ही उत्तम है और भगवान‍्की कृपासे ही ऐसा हो सकता है। यह भी भगवान‍्की कृपा ही समझिये कि आपलोगोंको मान-बड़ाईकी चिन्ताका पता लग गया है। इसे भगवान‍्के बलसे प्राप्त दैन्य, विनय, शील, सौजन्य, अपने दोषोंको देखनेकी सतत प्रवृत्ति और अपरिमित आत्मबल आदि हथियारोंसे तुरन्त मार हटाना चाहिये।

सब साधकोंको अपनेसे बड़े समझकर सबका सम्मान करना चाहिये। स्वयं सच्चे मनसे अमानी बनकर सबको मान देना चाहिये। मन, नेत्र और क्रियामें कहीं काम-क्रोधका अंकुर भी न आ जाय, इसके लिये बड़ी सावधानीसे सर्वदा सचेत रहना चाहिये। आलस्य और प्रमाद भी न हो। ऐसा निश्चय होना चाहिये कि इस अवधिमें ही भगवान् हमारे चिरकालके मनोरथको पूर्ण कर देंगे। सच्चा विश्वास होनेपर भगवत्कृपासे ऐसा होना कुछ भी बड़ी बात नहीं है। भगवान‍्ने कहा है कि ‘महान् दुराचारी भी अपने शेष जीवनको मुझमें लगानेका निश्चय करके अनन्य चित्तसे मेरा चिन्तन करता है तो वह साधु ही है और बहुत ही शीघ्र—पलक मारते-मारते वह धर्मात्मा होकर शाश्वती शान्तिको प्राप्त हो जाता है।’

भगवान‍्के आश्वासन-वचनोंपर विश्वास करके हमें उनके अनन्य चिन्तनमें दृढ़ निश्चयपूर्वक लग जाना चाहिये। वहाँ आपको और करना ही क्या है?

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