संस्कृति—विनाशकी ओर
आपका पत्र मिला। आजका युवक जिस पथपर चल रहा है; मेरी तुच्छ सम्मतिमें वह विनाशका पथ है। कम-से-कम हमारी भारतीय संस्कृतिके तो सर्वथा प्रतिकूल ही है। पता नहीं, इसका परिणाम क्या होगा। भगवान् मंगलमय हैं, इसलिये यह विश्वास तो होता है कि यह विपरीत गति भी हमारे कल्याणके लिये ही है। परन्तु कल्याण किस प्रकार होगा, यह बात समझमें नहीं आती। भगवान्की लीला अति विचित्र है, पता नहीं वे किस पर्देसे क्या दृश्य दिखलाना चाहते हैं!
आजका युवक जिस पथपर चलना चाहता है, उसका उद्गमस्थान पश्चिमकी विचारधारा है। भारतीय संस्कृतिके साथ इसका कोई श्रद्धाका सम्बन्ध तो है ही नहीं, उसके साथ इसका मेल भी नहीं खाता। अध्यात्म और धर्म उसके सामने व्यर्थकी वस्तुएँ हैं। सारे विचारोंका मानदण्ड है केवल अर्थ, केवल भोग। भारतका आदर्श है भगवान् और भगवान्के लिये त्याग। भला, उससे इसका मेल कैसे खायेगा? आज भारतकी उन्नतिका झण्डा जिस पथकी ओर बढ़ रहा है, खेदके साथ कहना पड़ता है कि वह भारतीय संस्कृतिके ध्वंसका मार्ग है। यह मार्ग तो जडवादका है। पार्थिव भोग ही इस मार्गके पथिकोंका लक्ष्य है। ‘कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिता:।’ यह कामभोग-परायणता, पता नहीं हमें कहाँ ले जायगी। आज इसीसे भोग-त्यागकी खिल्ली उड़ायी जाती है और भोगविमुखताको मूर्खता कहा जाता है, मानो भोगके बिना उन्नति हो ही नहीं सकती। इसीसे आज भोगप्राप्तिके लिये हम भारतीय युवकोंको बड़े वेगसे बिना सोचे-समझे अपनी संस्कृतिके विनाशके मार्गपर जाते देख रहे हैं। बस, भोग मिले, आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त हो, विदेशी शासनका इसीलिये नाश हो कि वह हमारी भोगकामनामें—आर्थिक स्वतन्त्रतामें बाधक है। भोग-कामनामें बाधा देनेवाले ईश्वरका, धर्मका, माता-पिताका, गुरुजनोंका, अपनी संस्कृतिका—किसीका भी तिरस्कार करनेसे उसे इनकार नहीं है। किसीके स्वार्थका नाश करना हो, किसीको पीड़ा पहुँचानी हो, कोई परवा नहीं, हमारी भोगलालसाका कण्टक दूर होना चाहिये!
वर्णाश्रमधर्म, पातिव्रतधर्म, खान-पानका संयम, स्वामी-सेवक या गुरु-शिष्यके भाव भी इसीलिये नष्ट हो जाने चाहिये कि इनसे उच्छृंखलतामयी भोग-वासनामें किसी-न-किसी तरह न्यूनाधिक रूपसे बाधा पहुँचती है। इसीसे आज मनमाने विवाह, हर किसीकी जूँठन खाने, स्त्रियोंको पुरुषोंके विरुद्ध उभाड़ने, हरिजनोंको उच्च वर्णोंके साथ लड़ाने, किसान-जमींदारोंमें झगड़ा खड़ा करने, मालिकोंके साथ मजदूरोंका विरोध कराने आदिमें जनहित समझा जाता है, और दम्भसे नहीं, स्वार्थसे नहीं—बहुत-से महानुभाव तो सचमुच इसीमें जनकल्याण समझकर ऐसा करते-कराते हैं। इसका प्रधान कारण हमारी संस्कृतिके महत्त्वज्ञानका अभाव ही है। शिक्षापद्धति और पाश्चात्य देशीय साहित्यका प्रचार इसमें विशेष सहायक हो रहा है। इसीसे आज जगह-जगह कलह और हिंसा-द्वेषका बोलबाला हो रहा है। युवती बालिकाएँ माता-पिताको रुलाकर आये दिन अपने गुरुओंके साथ भाग रही हैं। पुत्र पिता-माताकी आज्ञा नहीं मानकर उन्हें अपने मतके अनुकूल बनाना चाहते हैं। जो सौम्य प्रकृतिके हैं, वे माँ-बापको रुलाकर भाग निकलते हैं, आत्महत्या कर बैठते हैं; और जो कठोर प्रकृतिके हैं, वे तीव्र आग्रह करके बलपूर्वक माता-पिताको बाध्य करते हैं। माँ-बाप चुपचाप आँसू पोंछ लेते हैं और हृदयसे रोते हुए स्नेहवश सन्तान-सुखकी कामनासे उन्हें मनमाना करने देते हैं।
स्त्रियोंमें तलाककी बात उठने लगी है। हिन्दू-स्त्री तो आज भी इसी गिरी अवस्थामें भी घरकी रानी है। आज भी, सब नहीं तो, भारतकी अधिकांश स्त्रियाँ घरमें अपने स्वामित्वका गौरव अनुभव करती हैं। परन्तु पाश्चात्य उच्छृंखलतामयी सभ्यताका असर यहाँ भी—हमारी युवती बहिनोंपर भी होने लगा है। वे यह नहीं सोचतीं कि स्त्री-पुरुषका आध्यात्मिक बन्धन यदि नष्ट हो गया, और यदि उनका पारस्परिक सम्बन्ध केवल भोग या रुपयेके लिये ही रह गया तो वही दशा होगी जो आज यूरोपमें हो रही है। यूरोपमें जब विवाह होता है, तब पत्नीके नाम प्राय: अलग रुपये जमा करने पड़ते हैं। कम-से-कम वहाँकी स्त्रियाँ अपने भावी पतियोंसे इतना तो लिखवा ही लेती हैं कि वे उनको साप्ताहिक खर्चके लिये इतने पैसे देंगे। विषयोपभोगके लिये स्त्रीकी आवश्यकता है तो रुपये देने ही पड़ेंगे। सम्बन्ध है तो केवल रुपयोंको लेकर ही है। पिछले दिनों वहाँ एक Wives Trade Union नामक संस्था बनी थी, इसका उद्देश्य है स्त्रियोंको पतियोंसे आर्थिक अधिकार प्राप्त कराना। इस संस्थाकी एक प्रधान महिलाने अभी कहा है—‘पति बहुत जुल्म करते हैं, वे पत्नियोंको सिर्फ भोजन, वस्त्र और रहनेके लिये स्थान ही देते हैं। स्त्रियाँ दिन-रात घरका काम करती हैं, बच्चोंका पालन-पोषण करती हैं; फिर भी उन्हें कोई निश्चित वेतन नहीं मिलता। न उन्हें बीमाका फायदा मिलता है, न छुट्टी मिलती है और न पेन्शन ही!’ जब हमारे यहाँकी स्त्रियाँ भी स्वतन्त्र हो जायँगी, ऑफिसोंमें काम करने लगेंगी, पतियोंपरसे उनके पालनका भार कम हो जायगा, तब यहाँ भी यही दशा होगी। यह उन्नति है या अवनति, उत्थान है या पतन? क्या कहा जाय! स्थिति देखकर सब रोते हैं, परन्तु चलते हैं उसी मार्गपर। यही तो मोह है। हमारा आजका सुधार तो सचमुच संहार ही है!