श्रीमद्भागवत-सम्बन्धी कुछ शंकाएँ
सादर हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। आपने श्रीमद्भागवतके विषयमें कुछ शंकाएँ की हैं। उनके विषयमें मेरा जैसा विचार है, लिखता हूँ। इससे यदि आपको कुछ सन्तोष हो जाय तो बड़ी प्रसन्नताकी बात है—
स्कन्ध २
१—आप लिखते हैं कि यहाँ श्रीकृष्ण-लीलाका वर्णन हो ही गया है। इसलिये यह असम्भव है कि उसके विषयमें परीक्षित् ने फिर पूछा हो। किन्तु मेरे विचारसे यह कोई गम्भीर कारण नहीं है। जो भगवल्लीलाओंके रसिक हैं वे तो उन्हें बार-बार सुनकर भी नहीं अघाते और निरन्तर उन्हें ही सुनना चाहते हैं। उनकी दृष्टिमें पुनरुक्ति और पिष्टपेषण कभी आते ही नहीं हैं। यहाँ तो श्रीकृष्ण-लीलाओंका उल्लेखमात्र है। क्या किसी भगवल्लीलाओंके रसिकके लिये इतना ही पर्याप्त होता है? इसके सिवा यह शंका केवल कृष्ण-लीलाओंके लिये ही क्यों हुई? इस अध्यायमें तो भगवान्के सभी अवतारोंकी लीलाओंका उल्लेख हुआ है, अत: आपके सिद्धान्तानुसार तो पीछे किसी भी भगवदवतारके चरित्रका चित्रण नहीं होना चाहिये था और यदि अवतारचरित्रोंको भागवतमेंसे निकाल दिया जाय तो फिर उसमें रहता ही क्या है? असली बात तो यह है कि हमारे पूर्वाचार्योंकी यह शैली ही रही है कि पहले वे संक्षेपमें सारा वर्णनीय विषय कह देते हैं और फिर सारे ग्रन्थमें उसीका विस्तार करते हैं। वाल्मीकीय रामायणके प्रथम अध्यायमें ही सारा रामचरित कह दिया गया है, जिसे मूलरामायण कहते हैं। महाभारतके प्रथम अध्यायमें भी संक्षेपमें महाभारतकी सारी गाथा कह दी है तथा अन्य अनेक ग्रन्थोंमें भी प्राय: इसी नियमका पालन किया गया है। अर्वाचीन आचार्योंमें भगवान् शंकराचार्यने जो केनोपनिषद्पर भाष्य लिखा है, उसकी तो शैली ही यह है कि पहले एक वाक्यमें अपना सिद्धान्त कह देते हैं और फिर उसीका आगे विस्तार करते हैं; अत: संक्षेप और विस्तारसे ग्रन्थको ग्रथित करना—यही भारतीय आचार्योंकी शैली है।
आप कहते हैं इस अध्यायमें भगवान्की रासलीलाका उल्लेख नहीं है; अत: वह प्रक्षिप्त होनी चाहिये, सो कृपा करके इसका ३३ वाँ श्लोक देखें—
क्रीडन् वने निशि निशाकररश्मिगौर्यां
रासोन्मुख: कलपदायतमूर्च्छितेन।
उद्दीपितस्मररुजां व्रजभृद्वधूनां
हर्तुर्हरिष्यति शिरो धनदानुगस्य॥
(२। ७। ३३)
रास तो रसराज श्यामसुन्दरकी लीलाओंका प्राण है, उसके बिना तो वे निष्प्राण हो जाती हैं।
स्कन्ध ३
२—नियोग-प्रथा पहले थी, किन्तु वह आपद्धर्मके रूपमें थी और जो असाधारण संयमी पुरुष होते थे वे ही इसके लिये नियुक्त किये जाते थे। यह होनेपर भी वर्तमान कालमें इसका समर्थन नहीं किया जा सकता, क्योंकि अब लोगोंमें इतना संयम नहीं है कि केवल पुत्रोत्पत्तिके लिये ही अनासक्त भावसे एक बार सहवास करके फिर उस देवीके साथ जीवनभर पूर्णतया शुद्ध भाव रख सकें। शास्त्रानुसार भी कलियुगमें यह निषिद्ध है।
स्कन्ध ६
३—डॉक्टर भण्डारकर और Goldstucker का कथन इतना परम प्रमाण कैसे माना जा सकता है कि उसके आधारपर भागवतकारके मतको भी ठुकरा दिया जाय? जब स्वयं भागवतमें ही उसके प्रणेता व्यास और वक्ता शुकदेव कहे गये हैं तो आधुनिक विद्वानोंके अनुमानका उसके आगे क्या मूल्य हो सकता है?
इसके सिवा एक बात और है! महर्षि पतंजलिके रचे हुए योगसूत्रोंपर भगवान् व्यासका भाष्य है। इससे भी सिद्ध होता है कि वे व्यासजीसे पूर्ववर्ती होने चाहिये। व्यासभाष्यकी प्राचीनता इससे सिद्ध होती है कि उन्होंने अन्य किसी भी दर्शनके टीकाकारका मत उद्धृत नहीं किया, जबकि अन्य टीकाकारोंने उनका मत उद्धृत किया है।
पतंजलिका उल्लेख केवल भागवतमें ही नहीं, अन्यान्य पुराणोंमें भी है। इससे भी वे व्यासजीसे पूर्ववर्ती ही सिद्ध होते हैं। अत: भण्डारकर आदि आधुनिक विद्वानोंका अनुमान प्रामाणिक नहीं माना जा सकता।
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४—भगवत्पूजाके सामने देवताओंकी पूजा नि:सन्देह निम्न कोटिकी है, किन्तु जो लोग स्वयं उच्चाधिकारी नहीं हैं, वे किसी कामनाकी पूर्तिके लिये यदि इन्द्रादि देवताओंकी पूजा करें भी तो क्या हानि है? जो लोग किसी लौकिक लाभके लिये कलक्टर, इनकमटैक्स-अफसर और पुलिस अफसरोंकी पूजा करनेमें नहीं हिचकते, वे यदि स्वर्गादि अलौकिक लाभके लिये इन्द्रादिकी उपासना करें तो क्या हर्ज है? फिर देवता तो भगवान्के ही प्रतीक माने गये हैं।
स्कन्ध ९
५—विशेष अवस्थाओंमें अपनेसे निम्न वर्णकी स्त्रीसे विवाह करनेकी शास्त्रमें आज्ञा है; किन्तु वह उत्तम पक्ष नहीं है। श्रेष्ठ तो सवर्ण विवाह ही माना गया है।
६—इस श्लोकमें जो दृष्टान्त दिया गया है, उससे न जाने आपने यह अर्थ कैसे लगा लिया कि शूद्र वेद पढ़ने लगे थे। यह आधा श्लोक इस प्रकार है—
‘अस्मद्धार्यं धृतवती शूद्रो वेदमिवासती’
देवयानी शर्मिष्ठासे कहती है—असती (दुष्टा शर्मिष्ठाने) अस्मद्धार्यं (हमारे पहननेका वस्त्र) शूद्रो वेदम् इव (जैसे शूद्र वेदको धारण करे, उस प्रकार) धृतवती (धारण कर लिया) अर्थात् जैसे शूद्रका वेद धारण करना अनुचित है, उसी प्रकार शर्मिष्ठाका मेरे वस्त्रोंको धारण करना अनुचित है। इस प्रकार यहाँ तो शूद्रके वेदाध्ययनको अनुचित ही बताया गया है। स्कन्ध १० अध्याय ३८ के चौथे श्लोकमें भी शूद्रके लिये वेद-पाठकी दुर्लभता ही कही गयी है, इसलिये इसका पूर्वकथनसे कोई विरोध नहीं है।
७—भागवतमें कल्कि-अवतारका तीन-चार जगह वर्णन तो हुआ है, परन्तु उनमें आपसमें क्या विरोध है, यह आपने लिखा नहीं और मुझे उनमें कोई विरोध जान नहीं पड़ता। यदि आप लिखते तो कुछ समाधान करनेका प्रयत्न करता।
स्कन्ध १०
८—अध्याय ४ को पढ़नेसे आपको श्रीकृष्णलीला क्यों आलंकारिक जान पड़ती है—इसका कारण मैं नहीं समझता। यदि आप कारणसहित अपना विचार लिखते तो मैं भी कुछ निर्णय कर सकता।
९—अरिष्टासुरका वध करके भगवान्ने यह शिक्षा कभी नहीं दी कि उत्पाती बैलको मार डालना चाहिये, क्योंकि वे तो जानते थे कि यह राक्षस है बैल नहीं है, और मरनेसे पूर्व वह उस रूपमें प्रकट भी हो गया था।
१०—भगवान्के समय ही नहीं; आजकल भी भारतवर्षके बहुत-से प्रान्तोंमें पर्दा नहीं है। पर्दा-प्रथा तो एक सामाजिक रीति है। अत: वह समयानुसार बदल भी सकती है तथा देश, काल और व्यक्तिकी दृष्टिसे उसका त्याग और ग्रहण भी हो सकता है। मुख्य दृष्टि तो हमें उसके त्याग और ग्रहणके उद्देश्यपर रखनी होगी। यदि हम शौकीनी, उच्छृंखलता और विषयलिप्साकी तृप्तिके लिये उसे त्यागते हैं तो हमारा वह त्याग सात्त्विक नहीं कहा जा सकता, उससे तो हानि ही होगी।
११—सम्बन्धियोंमें विवाह-सम्बन्ध होना शास्त्रदृष्टिसे तथा सामाजिक दृष्टिसे भी विशेष उपयोगी नहीं माना जाता। राजाओं और विशेष व्यक्तियोंमें ऐसे नियमोंकी कुछ शिथिलता कभी-कभी हो जाती है। किन्तु इससे वह सर्वसाधारणके लिये उपयोगी नहीं हो सकता। पहले राजकुमारियोंका स्वयंवर होता था, किन्तु वह नियम राजकुमारियों और विशिष्ट योग्यतावाली कन्याओंके ही लिये था, सर्वसाधारणके लिये नहीं। अत: ऐसा नियम प्रचलित था—यह नहीं कह सकते।
१२—‘व्यास’ पद तो अवश्य है, किन्तु ‘कोई व्यक्ति नहीं।’ यह कैसे कह सकते हैं, क्या बिना व्यक्तिका भी कोई पद होता है? यह तो किसी-न-किसी व्यक्तिको ही आश्रय करके रहता है। अत: ‘व्यास’ पद भी व्यक्तिको आश्रय करके रहनेवाला है और वह व्यक्ति एक चतुर्युगीमें एक ही होता है। यह ठीक है, किसी भी कथावाचकको ‘व्यास’ कह सकते हैं, किन्तु वेदोंका विभाग और महाभारत एवं अठारह पुराणोंकी रचना करनेवाले व्यासदेव तो सत्यवतीनन्दन ही थे। उन्हींके प्रतीक मानकर अन्य कथावाचकोंको भी ‘व्यास’ कहते हैं।
इन उत्तरोंसे आपको कुछ सन्तोष हो तो ठीक है, न हो तो भी ठीक ही है। बुद्धि और विचार विभिन्न हैं। मैं क्यों ऐसा दावा करूँ कि मैं जो सोचूँ, आप उसीको मान लें। मैंने केवल अपने विचार लिखे हैं। क्षमा कीजियेगा।