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विषयोंमें सुख नहीं है

× × × मौतके मुँहमें पड़े हुए मनुष्यका भोगोंकी तृष्णा रखना वैसा ही है जैसा कालसर्पके मुँहमें पड़े हुए मेढकका मच्छरोंकी ओर झपटना! पता नहीं कब मौत आ जाय। इसलिये भोगोंसे मन हटाकर दिन-रात भगवान‍्में मन लगाना चाहिये। जबतक स्वास्थ्य अच्छा है तभीतक भजनमें आसानीसे मन लगाया जा सकता है। अस्वस्थ होनेपर बिना अभ्यासके भगवान‍्का स्मरण होना भी कठिन हो जायगा। इसीसे भक्त प्रार्थना करता है—

कृष्ण त्वदीयपदपङ्कजपञ्जरान्ते
अद्यैव मे विशतु मानसराजहंस:।
प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तै:
कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते॥

‘श्रीकृष्ण! मेरा यह मनरूपी राजहंस तुम्हारे चरणकमलरूप पिंजरेमें आज ही प्रवेश कर जाय। प्राण निकलते समय जब कफ-वात-पित्तसे कण्ठ रुक जायगा, इन्द्रियाँ अशक्त हो जायँगी तब स्मरण तो दूर रहा, तुम्हारा नामोच्चारण भी नहीं हो सकेगा।’ अतएव अभीसे मनको भगवान‍्में लगाना और जीभसे उनके नामका जप आरम्भ कर देना चाहिये।

धन-ऐश्वर्य, कुटुम्ब-परिवार सभी क्षणभंगुर हैं। इनकी प्राप्तिमें सुख तो है ही नहीं वरं दु:ख ही बढ़ता है। संसारमें ऐसा कोई भी विचारशील पुरुष नहीं है जो विवेक-बुद्धिसे यह कह सकता हो कि इनमेंसे किसीसे भी उसे कोई सुख मिला है। यहाँकी प्रत्येक स्थितिमें विरोधी स्थिति वर्तमान है—सुख चाहते हैं मिलता है दु:ख, स्वास्थ्य चाहते हैं आती है बीमारी, प्रकाशके पीछे अन्धकार लगा है, जवानीके साथ बुढ़ापा सटा है, जीवनका विरोधी मरण सिरपर सवार है। यहाँ कौन-सा सुख है, जिसमें आसक्त होकर मनुष्यको अपना जीवन बरबाद करना चाहिये। यह तो मूर्खता है जो हम विषयोंमें सुख मानकर दुर्लभ मानव-जीवनको खो रहे हैं। भगवान् श्रीराम कहते हैं—

एहि तन कर फल बिषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई।
गुंजा गहइ परस मनि खोई॥

परन्तु विचार कर देखिये, मनुष्य सचमुच इसी तरह अपने अमृत-से मानव-जीवनको विषय-विष बटोरने और चाटनेमें ही खो रहा है। इसीसे उसे एकके बाद दूसरे—लगातार दु:खोंकी परम्परामें ही रहना पड़ता है। याद रखना चाहिये, यहाँकी कोई भी चीज, कोई भी सम्बन्धी उसको दु:खोंसे नहीं छुड़ा सकता। भगवान‍्का भजन ही एक ऐसी चीज है जो मनुष्यको दु:खके सारे बन्धनोंसे छुड़ा सकता है। अतएव मन लगाकर खूब भजन कीजिये। बस रटते रहिये—

गोविन्द गोविन्द हरे मुरारे
गोविन्द गोविन्द रथांगपाणे।
गोविन्द गोविन्द मुकुन्द कृष्ण
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

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