अस्तेय
(चोरीका अभाव)
मानव-धर्मका चौथा लक्षण है ‘अस्तेय’। चोरीके अभावको अस्तेय कहते हैं। दूसरे स्वत्व (हक)-का ग्रहण करना चोरी कहलाती है। चोरी अनेक प्रकारसे होती है, किसीकी वस्तुको उठा लेना, वाणीसे छिपाना, बोलकर चोरी करवाना, मनसे परायी वस्तुको ताकना आदि सब चोरीके ही रूप हैं। स्थूल चोरीका स्वरूप तो किसीकी चीज उसकी बिना जानकारीके ले लेना ही है। ऐसे चोरोंके लिये दण्डका विधान भी है। परन्तु सभ्यताकी आड़में, कानूनसे बचकर आजकल कितनी अधिक चोरियाँ होती हैं; यदि उनका हिसाब देखा जाय तो पता लगता है कि शायद समाजकी प्रगति चोरीकी ओर बड़े वेगसे बढ़ रही है। जितने ही अधिक कानून बनते हैं, उतनी ही चोरीकी नयी-नयी क्रियाओंका आविष्कार होता है। आज बड़े-बड़े राष्ट्र एक-दूसरेका स्वत्वापहरण करनेके लिये पक्के चोरकी भाँति अपनी-अपनी कुशलताको काममें ला रहे हैं। सभ्यतासे ढकी हुई चोरियाँ बड़ी भयानक होती हैं और उन्हींकी संख्या आजकल बढ़ रही है। अंग्रेजोंके शासनाधीन होनेके बाद जहाँ भारतवर्षमें स्थूल डकैतियोंकी संख्या घटी है, वहाँ सभ्यताकी आड़में होनेवाली चतुराईकी डकैतियाँ और चोरियाँ उतनी ही अधिक बढ़ी हैं। पहलेके जमानेमें चोरोंका एक भिन्न समुदाय था, जो घृणाकी दृष्टिसे देखा जाता था; परन्तु इस समय संक्रामक-बीमारीकी तरह प्राय: सारा समाज इस दोषसे आक्रान्त हो चला है। छोटे-छोटे गाँवमें भी चतुराईकी चोरियाँ प्रारम्भ हो गयी हैं। यह बहुत बुरे लक्षण हैं। आज बड़े-बड़े लोगोंमें इसका प्रवेश देखनेमें आता है; मामूली चोरियाँ पकड़ी जाती हैं, चोरोंको दण्ड भी मिलता है; परन्तु ये बारीक चोरियाँ प्राय: पकड़ी नहीं जातीं, ये चोरियाँ तो चतुराई और होशियारीके नामसे पुकारी जाती हैं। समाज ऐसे चोरोंको धिक्कार नहीं देता, बल्कि जो जितनी अधिक आसानीसे दूसरेका हक हड़प कर सकता है, वह उतना ही अधिक चतुर और बुद्धिमान् समझा जाता है। न्यायालयतक ऐसे चोरोंको प्रथम तो जाना ही नहीं पड़ता, यदि किसी पापके खुल जानेपर उसे कहीं अदालततक जानेकी नौबत आती है तो वहाँ धनके बल और कानूनी दाव-पेंचोंसे उसका छूट जाना प्राय: सहज समझा जाता है।
व्यापारियोंमें तो ऐसी चोरीका नाम ‘रस-कस’ है। दूसरे विभागोंमें यह ‘ऊपरकी पैदा’ या ‘चतुराईकी उपज’ कहलाती है। इन पंक्तियोंका लेखक स्वयं व्यापार करता था, इसलिये उसे व्यापारियोंकी चोरीका विशेष अनुभव है, अतएव यहाँपर व्यापारियोंकी इस ‘रस-कस’ रूपी चोरीके तरीकोंकी संक्षिप्त सूची उपस्थित की जाती है।
१-अपनी स्थितिका झूठा रोब जमाकर लोगोंको धोखा देना।
२-घटिया मालको बढ़िया बताकर बेचना।
३-नमूना एक दिखलाकर माल दूसरा देना। बढ़िया नमूना बतलाकर माल घटिया देना।
४-घटिया मालका भाव करके बेचनेवालेसे छिपाकर चालाकीसे बढ़िया ले लेना या बढ़ियाका भाव करके खरीदारको घटिया दे देना।
५-खरीदारको चालाकीसे वजनमें कम तौलना और बेचनेवालेसे चालाकी करके अधिक तुलवाना।
६-इसी तरह नापमें कम देना और अधिक लेना।
७-एक चीजको दूसरी बतलाकर बेचना।
८-आढ़त-दलालीमें चालाकीसे छिपाकर कम देना या अधिक लेना।
९-आढ़तियेके लिये खरीदे हुए या बेचे हुए मालका भाव कुछ बढ़ाकर या घटाकर उसे लिखना।
१०-झूठा बीजक बनाना या जहाँ मुनाफेकी बोलीपर माल बेचा जाता है, वहाँ आढ़तियोंको लिखकर झूठा बीजक बनवाकर मँगाना।
११-व्यापारी-संस्थाओंके माने हुए नियमोंको चालाकीसे भंग करना।
१२-सस्ता समझकर चोरीके मालको खरीदना।
१३-अपवित्रको पवित्र कहकर या एक चीजमें दूसरी चीज मिलाकर बेचना।
१४-दूसरोंका उदाहरण देकर चालाकीसे ग्राहकको धोखेमें डालना।
१५-जबान पलट जाना या छिपाकर उसका दूसरा रूप बतलाना।
१६-झूठे समाचार गढ़कर लोगोंको धोखेमें डालना।
१७-तेजी-मन्दीके तारोंको छिपाकर सस्तेमें माल ले लेना या महँगेमें बेच देना।
१८-रुपये कम देकर अधिकके लिये रसीद लिखवाना।
१९-किसानोंको फुसलाकर और धमकाकर दस्ताबेज करवा लेना।
२०-चालाकीसे दूसरेको मूर्ख बनाकर बात बदल देना।
सूची तो बहुत बड़ी बन सकती है, यह तो कुछ प्रधान-प्रधान बातें हैं। ये चोरियाँ दिन-दहाड़े बाजारोंमें बैठ-बैठकर ‘रस-कस’ के नामपर की जाती हैं। कई लोग तो व्यापारमें इस प्रकारकी कुछ चालाकियोंका रहना आवश्यक मानते हैं। उनकी समझमें इनके अभावसे व्यापारमें सफलता प्राप्त करना असम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य है। जो बेचारे धर्मभयसे इन कामोंको नहीं कर सकते, वे व्यापारी जगत्में अयोग्य और अनभिज्ञ समझे जाते हैं। कितना भयानक पतन है।
बड़े दु:खका विषय है कि यदि हमारे यहाँ एक नौकर तरकारी खरीदकर लानेमें दो पैसोंकी चोरी कर लेता है तो उसे हम पुलिसके हवाले करना चाहते हैं, परंतु हम स्वयं दिनभर एकके बाद दूसरी चोरीकी लगातार आवृत्ति करते रहते हैं जिनका कोई हिसाब नहीं।
बाजारमें बैठकर लम्बी-चौड़ी बातें करना और नामके लिये विपुल धनराशिमेंसे थोड़ा-सा धन दान कर देना ही धर्मका लक्षण नहीं है। जहाँतक ये चोरीकी आदतें नहीं छूटतीं वहाँतक हम परमात्मासे बड़ी दूर हैं। चोरीसे लाखोंकी सम्पत्तिका संग्रह कर उसमेंसे थोड़ा-सा हिस्सा धर्मखाते जमा कर लेने या किसीको दे देनेसे पापसे छुटकारा नहीं मिल सकता। एक मारवाड़ी कविने कहा है—
ऐरणकी चोरी करै, करै सुईको दान।
चढ़ चौबारे देखण लाग्यौ, कद आसी बीमान॥
बहुत-से लोहेसे बने हुए धनकी चोरी करके बदलेमें जरा-से लोहेकी एक सूईका दान करके जो ऊपर चढ़कर अपने लिये स्वर्गके विमानकी प्रतीक्षा करता है, वह जैसा हास्यास्पद है वैसा ही वह है जो दिनभर चोरी करके बदलेमें जरा-सा धन देकर पापोंसे मुक्त होनेकी आशा करता है।
व्यापारी समाजको चाहिये कि अपनी छातीपर हाथ धरकर अपनी चोरियोंको देखे और उन्हें छोड़नेका प्रयत्न करे।
व्यापारी समाजकी तरह अन्यान्य समाजोंमें भी खूब चोरियाँ होती हैं। पुलिस-विभाग—जो चोरोंसे समाजकी रक्षा करनेके लिये बना है—रिश्वतखोरीके लिये प्रसिद्ध है। पुलिस-विभागके एक अवसरप्राप्त सज्जनने मुझसे कहा था कि जब कोई नया आदमी इस विभागमें भर्ती होता है, तब वह पहलेसे ही इस बातको सोच लेता है कि मेरा बीस रुपयेका वेतन है तो दस रुपये ऊपरके होंगे। रुपया रोज पड़ जायगा। इस ‘ऊपरके’-का अर्थ घूस या चोरी ही है। रेलवे-कर्मचारियोंके साथ मिलकर बड़े-बड़े व्यापारी और सभ्यताभिमानी लोग भाड़ा चुकानेमें चोरी करते हैं और इसको चतुराई समझते हैं। बड़े-बड़े मिल-मालिकलोग सवाई-ड्योढ़ी कांजी देकर कपड़ेका वजन बढ़ाते हैं। बड़े-बड़े वकील-वैरिस्टर अपने मवक्किलोंको कोर्टसे बचनेके लिये तरह-तरहकी सलाह दिया करते हैं, जो चोरीका ही रूपान्तर होता है। अनेक धर्मोपदेशक और समाज-सुधारक शास्त्रोंके यथार्थ अर्थको छिपाकर मत-प्रचार या स्वार्थ-सिद्धिके लिये विपरीत अर्थ करते देखे जाते हैं। डॉक्टर-वैद्योंकी सभ्यताके परदेमें होनेवाली चोरियोंका बहुतोंको अनुभव है। कला और साहित्य-संसारमें भी दिनदहाड़े चोरियाँ होती हैं। सारांश यह कि आजकल प्राय: सभीमें यह पाप फैल गया है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। इस समय प्राय: ऐसी स्थिति हो रही है। ऐसे बहुत थोड़े असली भाग्यवान् जन हैं, जो इन कर्मोंको पाप समझकर इनसे सर्वथा बचे हुए हैं।
बहुत-से लोग तो इनको पाप ही नहीं समझते। कुछ लोग पाप तो समझते हैं, परंतु कुसंगतिमें पड़कर लोभसे या परिस्थितिसे बाध्य होकर वे ऐसा कर्म कर बैठते हैं। उन्हें पश्चात्ताप तो होता है, परंतु वे अपनी कमजोरीसे बच नहीं सकते।
समाजकी इस बुरी परिस्थितिके लिये हम सभी उत्तरदायी हैं। समाजमें फिजूलखर्ची, देन-लेनकी प्रथा और विलासिता बहुत बढ़ गयी है। अपनी इज्जत बचाये रखनेके लिये एककी देखा-देखी दूसरेको भी अवसरपर उतना ही खर्च करना पड़ता है। पैसे पास होते नहीं ऐसी अवस्थामें यदि कहींसे मिल जाते हैं तब तो ठीक, नहीं तो उसे किसी-न-किसी प्रकार चोरी करनी पड़ती है। ऋण हो जाता है तो उसको चुकानेके लिये भी यही उपाय सूझता है। समाजके दोषोंसे सब कुछ महँगा हो गया। २०, ३० रुपये मासिक वेतनका आदमी शहरमें रहकर बड़े कुटुम्बका पालन नहीं कर सकता, उसे भी चोरी करनी पड़ती है, अवश्य ही इन कर्मोंका समर्थन तो किसी भी अवस्थामें नहीं किया जा सकता। चोरी करनेकी अपेक्षा भूखके मारे मर जाना अच्छा है। परंतु यह बात कहनेमें जितनी सहज है, परिस्थितिमें पड़नेपर पालन करनेमें उतनी ही कठिन है। समाजके धनी-मानी और अगुआ लोगोंको चाहिये कि वे लोगोंको इस पापसे मुक्त करनेके लिये आगे होकर फजूलखर्ची बंद करें, विलासिताका त्याग करें, लोगोंके सामने ऐसा आदर्श रखें कि जिससे कम खर्च करनेमें किसीको लज्जा या संकोच न हो। बड़े-बड़े धर्माचार्य, उपदेशक, नेता, देश-भक्त, धनी, व्यवसायी, मुनीम, सेवक, सरकारी कर्मचारी, रेलवे कर्मचारी आदि सभीको इन चोरियोंसे बचकर सर्व साधारणको यह बतला देना चाहिये कि चतुराईके नामपर परस्वापहरणकी जो कुछ चेष्टा होती है सो सब पाप है। जब लोग इस चतुराईको पाप समझने लगेंगे तब स्वयं उससे हटेंगे। किसीके भी हकको किसी प्रकारसे भी हरण करनेकी इच्छा, चेष्टा या क्रिया नहीं होनी चाहिये। इसीका नाम अस्तेय है।