शौच
मानव-धर्मका पाँचवाँ लक्षण शौच है। शौच कहते हैं पवित्रताको। पवित्रता साधारणत: दो प्रकारकी होती है—बाहरकी और भीतरकी। दोनों ही आवश्यक हैं। बाह्य शौचसे शरीरकी पवित्रता बनी रहती है, दूसरोंके रोग तथा पापोंके परमाणु सहसा अपने अंदर प्रवेश नहीं कर सकते एवं आन्तर शौचसे मन पवित्र होकर परमात्माका साक्षात्कार करनेकी योग्यता प्राप्त कर लेता है। मनुष्य-जीवनका लक्ष्य है ‘भगवत्प्राप्ति’। इसी उद्देश्यको सामने रखकर भारतके त्रिकालदर्शी ऋषि-मुनियोंने धर्मशास्त्रोंकी ऐसी रचना की थी कि जिससे मनुष्यकी प्रत्येक क्रिया नदीके सागराभिमुखी प्रवाहकी तरह स्वाभाविक ही भगवदभिमुखी हो। आज हम न तो प्राय: शास्त्रोंको मानते हैं और न हमारी शास्त्रवचनोंमें श्रद्धा ही है। कई तो स्पष्टरूपसे शास्त्रोंका विरोध करते हैं और शास्त्रकारोंपर अनर्गल आक्षेप करते हैं। कुछ लोग जो अपनेको शास्त्रका अनुयायी बतलाते हैं, वे भी प्राय: मनमाना अर्थ गढ़कर शास्त्रोंको अपने मतके अनुकूल ही बनाना चाहते हैं। इसीलिये इतनी विशृंखलता हो रही है, इसीलिये भारत सुख, समृद्धि, स्वतन्त्रता और नीरोगतासे वंचित होकर परमुखापेक्षी और दु:खित हो रहा है तथा इसीलिये आज यह ब्रह्मनिष्ठ त्यागी महात्माओंकी प्रिय आवासभूमि—ब्रह्मानन्दरसपूर्ण विकसित पुष्पोंकी यह प्राचीन सुरम्य वाटिका मुरझायी और सूखी हुई-सी प्रतीत होती है।
शरीरकी शुद्धि
शरीरकी शुद्धि भी दो प्रकारकी होती है—एक बाहरी और दूसरी भीतरी। अस्पृश्य पदार्थोंका स्पर्श न करना, जल-मृत्तिका और गोमय आदिसे शरीरका स्वच्छ रखना बाहरी शुद्धि है और न्यायोपार्जित पवित्र पदार्थोंके भक्षणसे शरीरके साधक रस-रुधिरादि सप्त धातुओंका शुद्ध रखना भीतरी पवित्रता है। आजकल इस विषयमें प्राय: अवहेलना की जाती है। शरीरकी शुद्धिको अधिकांश लोग अन्याय्य, अव्यवहार्य, व्यर्थ और आडम्बर समझते हैं। अस्पृश्यता-सम्बन्धी न्यायानुमोदित शास्त्रोक्त बातें तो सुनना ही नहीं चाहते। किसी भी समय किसी भी पदार्थके स्पर्श करने तथा परस्पर परमाणुओंके आदान-प्रदान करनेमें कोई हानि नहीं समझते। गर्भकालमें माताके देखे-सुने और स्पर्श किये हुए पदार्थोंके परमाणु गर्भके अंदर बालकपर अपना प्रभाव डालते हैं, यह बात प्राय: सभीको स्वीकार है; परन्तु बिना किसी रुकावटके एक-दूसरेके स्पर्शमें और खान-पानमें कुछ भी पंक्तिभेद न रखनेमें उन्हें कोई दोष नहीं दीखता। कई लोग तो ऐसा करनेमें उलटा गौरव समझते हैं। समयकी बलिहारी है।
गोमय और मृत्तिका आदिसे शरीरको धोना, पोंछना तो धीरे-धीरे असभ्यता और जंगलीपन माना जाने लगा है। पशुओंकी चर्बीसे बना हुआ साबुन लगानेमें तथा सुगन्धित द्रव्योंके नामसे शरीरपर विदेशी मदिरा लेपन करनेमें कोई हानि नहीं समझी जाती। परन्तु मिट्टीके नामसे ही बाबुओंकी नाक-भौं सिकुड़ने लगती है। कारण स्पष्ट है। लोगोंमें ऊपरसे सुन्दर सजनेका जितना खयाल है, उतना वास्तविक पवित्रताका नहीं। इसीलिये साबुन आदिके बुरे परमाणु जो शरीरके अंदर जाते हैं, उनकी कोई परवा नहीं की जाती। जलशुद्धिका विचार प्राय: छूट ही गया है। स्पर्शास्पर्शका विचार रखना अन्याय्य और अव्यवहार्य तथा जल-मृत्तिकाका व्यवहार व्यर्थ और आडम्बर माना जाता है। यह तो शारीरिक बाह्य शुद्धिकी बातें हैं। अब रही—
शरीरकी आन्तरिक शुद्धि
जो प्रधानत: आहारकी शुद्धिसे ही होती है; परन्तु इस तरफ तो आजकल लोगोंका बहुत ही कम खयाल है। देशमें खासकर बड़े शहरोंमें ऐसा द्रव्य बहुत कठिनतासे मिल सकता है जो सर्वथा न्यायोपार्जित हो। धनोपार्जनमें न्याय-अन्यायका विचार प्राय: छोड़ दिया गया है। असत्य और चोरीका व्यवहार बड़े-बड़े व्यापारिक समुदायमें आवश्यक साधन-सा माना जाने लगा है। इतना अध:पतन हो गया है कि लाखों-करोड़ोंकी सम्पत्ति होनेपर भी व्यापारमें दस-पाँच रुपयेकी आमदनीके लिये लोग अन्यायका आश्रय ले लेते हैं। पाप-पुण्यका विचार करनेकी मानो आवश्यकता ही नहीं रही। प्राचीन कालमें साधुलोग सुनारोंका अन्न प्राय: नहीं खाते थे। लोगोंकी ऐसी धारणा थी कि सुनारोंके यहाँ सोने-चाँदीकी कुछ चोरी हुआ करती है, यद्यपि सभी सुनार ऐसे नहीं होते थे। परन्तु आजकल तो ऐसी कोई जाति ही नहीं देखनेमें आती, जो धन कमानेमें पापका आश्रय सर्वथा न लेती हो। कुछ व्यक्ति बचे हुए हों तो दूसरी बात है। इस प्रकार जब धन ही अन्यायोपार्जित है, तब उसके द्वारा खरीदे हुए अन्नमें पवित्रता कहाँसे आ सकती है? जिस प्रकारका अन्न भक्षण किया जाता है, प्राय: उसी प्रकारका मन बनता है और जैसा मन होता है वैसी ही क्रियाएँ होती हैं, यों उत्तरोत्तर पापका प्रवाह बढ़ता चला जाता है। इसीलिये आर्य-ऋषियोंने आहारकी शुद्धिपर विशेष जोर दिया है।
आहारकी शुद्धि
केवल यही नहीं देखना चाहिये कि भोजन कैसे स्थानपर और किसके हाथका बना हुआ है। यद्यपि भोजन पवित्र स्थानमें पवित्र मनुष्यके द्वारा पवित्रताके साथ पवित्र सामग्रियोंसे बनना चाहिये, परंतु इनमें सबसे अधिक आवश्यकता है अन्नशुद्धिकी। न्याय-अन्यायके विचारसे रहित करोड़ों रुपयेके व्यापार करनेवाले बड़े-से-बड़े प्रसिद्ध पुरुषके द्रव्यसे पवित्र चौकेकी सीमाके अंदर ब्राह्मणके हाथसे बना हुआ भोजन उस भोजनकी अपेक्षा सर्वथा निकृष्ट है जो एक गरीब मेहनती सच्चे मजदूरके द्रव्यसे बनता है। इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिये कि ऐसे पवित्र हृदयका मनुष्य यदि नीच वर्णका हो तो उनके यहाँ उच्च वर्णका पुरुष शास्त्र-मर्यादाको भंगकर उसके साथ उसके हाथसे ही खावे। ऐसे पवित्र पुरुष तो ऐसा आग्रह ही नहीं रखते कि लोग हमारे हाथका बनाया हुआ खायँ। अतएव सबसे अधिक ध्यान इस विषयपर देना चाहिये कि जिससे द्रव्य शुद्ध रहे। अशुद्ध द्रव्य उपार्जन करनेवाला अपना अनिष्ट तो करता ही है साथ ही वह घर, परिवार और अतिथिवर्गके मनोंमें भी अपवित्र भावोंकी उत्पत्तिका कारण बनता है।
आजकल भोजनकी सामग्रियोंमें अभक्ष्य और अपेय पदार्थोंका समावेश भी बढ़ रहा है। अंग्रेजोंके संसर्ग और अंग्रेजी शिक्षाके अधिक विस्तारसे खान-पानके पदार्थोंमें रुकावट बहुत कम हो चली है। इस मर्यादानाशका परिणाम बहुत ही बुरा दीखता है। अतएव सबको सावधान हो जाना चाहिये। शारीरिक शुद्धिका विधान शास्त्रोंमें बड़े विस्तारसे है, इसलिये यहाँ उसकी पूरी विधि नहीं लिखी गयी है।
भीतरकी पवित्रता अर्थात् अन्त:करणकी शुद्धि
महानिर्वाणतन्त्रमें कहा है—
ब्रह्मण्यात्मार्पणं यत्तच्छौचमान्तरिकं स्मृतम्॥
आत्माको ब्रह्ममें अर्पण करना ही आन्तरिक शौच है। वास्तवमें जबतक इस हाड़-मांसके शरीरमें अहंबुद्धि रहती है, तबतक शौचकी सिद्धि नहीं हो सकती। शरीरको कोई चाहे जितना भी धो-पोंछकर रखे; परंतु वह बना ही ऐसे पदार्थोंसे है जो सर्वथा अपवित्र है। रक्त, मज्जा, मेद, मांस, अस्थि, वीर्य, कफ, पसीना, थूक, गीड़ आदिमें कौन-सा ऐसा पदार्थ है जो शुद्ध हो? चमड़ेकी थैलीमें भरे हुए इन अपवित्र पदार्थोंके समूहको जो अपना रूप मानता है, वह तो सर्वदा ही अशुचि है। सुन्दर, सुगन्धित और रुचिकर पदार्थ भी जिस शरीरमें प्रवेश करनेके साथ ही अपवित्र, असुन्दर, घृणित और दुर्गन्धयुक्त बन जाते हैं, बढ़िया-से-बढ़िया पक्वान्न जिसके अंदर जाकर थोड़े ही समयमें विष्ठाके रूपमें परिणत हो जाता है, ऐसे अपवित्र शरीरमें अहंबुद्धि करनेवाले वास्तवमें कभी शुद्ध नहीं हो सकते। बाहरी और भीतरी शुद्धिके द्वारा जब अपने शरीर और उसीके साथ-साथ दूसरे शरीरमें वैराग्य तथा मनमें प्रसन्नता और प्रकाशका प्रादुर्भाव होता है, तब कहीं आत्मसाक्षात्कारकी कुछ योग्यता प्राप्त होती है। महाराज पतंजलिने शौचका फल बतलाया है—
शौचात्स्वांगजुगुप्सा परैरसंसर्ग:।
(योग० पाद २ सूत्र ४०)
शौचकी स्थिरतासे अपने शरीरमें घृणा और दूसरेमें संसर्गका अभाव होता है। शरीरको शुद्ध करनेकी इच्छा इसको अशुद्ध देखकर होती है, परंतु शरीरकी अशुद्धि तो कभी मिट ही नहीं सकती। बार-बार बाह्य शौचका अभ्यास करते-करते जब शरीरके अपवित्र होनेका दोष प्रत्यक्ष हो जाता है तब उसमें घृणा उत्पन्न होती है, जब अपना ही बार-बार धोया-पोंछा हुआ शरीर उसे शुद्ध नहीं प्रतीत होता तब दूसरोंके मैले-कुचैले शरीरोंसे उसका संसर्ग स्वयं ही छूट जाता है। यह बाह्य शौचका फल है। इसके पश्चात् पतंजलि महाराज आन्तर शौचकी शुद्धि बतलाते हुए कहते हैं—
सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्रॺेन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च।
(योग० पाद २ सूत्र ४१)
शौचकी स्थिरतासे सत्त्वशुद्धि, प्रसन्नता, एकाग्रता, इन्द्रियोंपर विजय और आत्मसाक्षात्कारकी योग्यता प्राप्त होती है।
आन्तर शुद्धिके साधनोंसे जब अन्त:करणके राग-द्वेषादि मल कुछ धुल जाते हैं, तब रज और तमकी न्यूनतासे सत्त्व प्रबल हो उठता है। चित्त निर्मल हो जाता है। निर्मलतासे प्रसन्नता होती है। प्रसन्नतासे विक्षेपोंका अभाव होकर एकाग्रता आती है। एकाग्र होनेपर मन अपनी अधीनस्थ इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार जब मन भलीभाँति पवित्र और सूक्ष्म वस्तुके ग्रहण करनेमें समर्थ हो जाता है तब उसमें आत्मदर्शनकी योग्यता प्राप्त हो जाती है। यही शौचका शुभ परिणाम है। पूर्वकालमें शौचका अनुष्ठान किया जाता था केवल इसी फलके लिये। आजकलकी तरह साबुन-तैलसे साफ-सुथरे और चिकने-चुपड़े होकर अपना सौन्दर्य बनाने या अनेक बार अनावश्यकरूपसे घड़े-के-घड़े जलसे स्नान कर अपनेको पवित्र और आचारसम्पन्न सिद्ध करनेके लिये नहीं। स्मरण रखना चाहिये कि बाह्य भावोंसे आभ्यन्तरिक भावोंका मूल्य सदा ही अधिक है।
एक मनुष्य दिनमें बार-बार सेरों मिट्टीसे हाथ-पैर धोता और अनेक बार नहाता है, परंतु जिसके मनमें घृणा, द्वेष, हिंसा, अभिमान, काम, क्रोध, लोभ, स्तेय और व्यभिचार आदि मैले पदार्थ भरे पड़े हैं, वह उस पुरुषकी अपेक्षा सर्वथा निकृष्ट है जो केवल जल-मृत्तिकाके प्रयोगमें ही शुद्धिकी इतिश्री नहीं समझता; बल्कि निरन्तर आत्मनिरीक्षण करता हुआ बड़ी सावधानीसे अपने अन्तरके मलोंको धोकर अन्त:करणको स्वच्छ रखता है। कहा है—
आत्मा नदी संयमपुण्यतीर्था
सत्योदका शीलतटा दयोर्मि:।
तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र
न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा॥
‘हे पाण्डुपुत्र! संयम जिसके पुण्यतीर्थ हों, जिसमें सत्यरूपी जल भरा हो, शीलरूपी जिसके घाट हों और दयाकी जिसमें लहरें उठती हों, ऐसी आत्मारूपी नदीमें नहाकर तू पवित्र हो, अन्तरात्माको जल शुद्ध नहीं कर सकता।’ अतएव मनकी शुद्धि चाहनेवाले पुरुषोंको निरन्तर आत्मविचार, इन्द्रियसंयम, सत्य, शील और दया आदि गुणोंका अनुशीलन करना चाहिये।
पतंजलिभगवान्के बताये हुए मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा आदि साधनोंके यथोचित प्रयोगको भी आत्मशुद्धिमें बड़ी सहायता मिलती है।
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदु:खपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।
(योग० पाद १ सूत्र ३३)
‘सुखी मनुष्योंसे प्रेम, दु:खियोंके प्रति दया, पुण्यात्माओंके प्रति प्रसन्नता और पापियोंके प्रति उदासीनताकी भावनासे चित्त प्रसन्न होता है।’
(क) जगत्के सारे सुखी जीवोंके साथ प्रेम करनेसे चित्तका ईर्ष्या-मल दूर होता है। डाहकी आग बुझ जाती है, संसारमें लोग अपनेको और अपने आत्मीय स्वजनोंको सुखी देखकर प्रसन्न होते हैं; क्योंकि वे उन लोगोंको अपने प्राणोंके समान प्रिय समझते हैं। यदि यही प्रिय भाव सारे संसारके सुखियोंके प्रति अर्पित कर दिया जाय तो कितने आनन्दका कारण हो। दूसरेको सुखी देखकर जलन पैदा करनेवाली वृत्तिका नाश ही हो जाय।
(ख) दु:खी प्राणियोंके प्रति दया करनेसे पर-अपकाररूप चित्तका मल नष्ट होता है। मनुष्य जैसे अपने कष्टोंको दूर करनेके लिये किसीसे भी पूछनेकी आवश्यकता नहीं समझता। भविष्यमें कष्ट आनेकी सम्भावना होते ही पहलेसे उसे निवारण करनेकी चेष्टा करने लगता है। यदि ऐसा ही भाव जगत्के सारे दु:खी जीवोंके साथ हो जाय तो कितने ही लोगोंका दु:ख दूर हो सकता है। दु:ख-पीड़ित लोगोंके दु:ख दूर करनेके लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर देनेकी प्रबल भावनासे मन सदा प्रफुल्लित रह सकता है।
(ग) धार्मिकोंको देखकर हर्षित होनेसे दोषारोप नामक असूया मल नष्ट होता है। साथ ही धार्मिक पुरुषकी भाँति चित्तमें धार्मिक वृत्ति जाग्रत् हो उठती है। असूयाके नाशसे चित्त शान्त होता है।
(घ) पापियोंके प्रति उपेक्षा करनेसे चित्तका क्रोधरूप मल नष्ट होता है। पापोंका चिन्तन न होनेसे उनके संस्कार अन्त:करणपर नहीं पड़ते। किसीसे भी घृणा नहीं होती, इससे चित्त शान्त रहता है।
इस प्रकार इन चारों साधनोंसे अन्त:करणकी बड़ी शुद्धि होती है। उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध हो गया कि मोक्षधर्मी मनुष्यके लिये शौच एक परम आवश्यक धर्म है और उसका पूरा प्रयोग करनेके लिये बाह्य और आन्तर दोनों प्रकारके साधनोंको काममें लाना चाहिये। सब प्रकारके शौच सामान्यत: पाँच भागोंमें बाँटे जा सकते हैं।
मन:शौचं कर्मशौचं कुलशौचं च भारत।
शरीरशौचं वाक्छौचं शौचं पंचविधं स्मृतम्॥
‘मनकी पवित्रता, कर्मोंकी पवित्रता, कुलकी पवित्रता, शरीरकी पवित्रता और वाणीकी पवित्रता—यह पाँच प्रकारकी पवित्रता कही गयी है।’
(१) अभिमान, वैर, द्वेष, हिंसा, दम्भ, काम, क्रोध, लोभ और ईर्ष्या आदिसे मन अपवित्र होता है, इसलिये यथासाध्य इन दुर्गुणोंको मनसे सदा निकालते रहना चाहिये।
(२) कामना, द्वेष, दम्भ, लोभ और अभिमान आदिके कारण जो शास्त्रविरुद्ध कर्म होते हैं वे कर्म अपवित्र कहलाते हैं। अतएव भगवत्-अर्पण-बुद्धिसे और लोकसेवाके विशुद्ध भावसे शास्त्रोक्त कर्म करने चाहिये।
(३) व्यभिचार आदिसे संकरता उत्पन्न होने और पारस्परिक मर्यादाका नाश होनेपर कुल अपवित्र होता है। अतएव कुलको वर्ण-संकरतासे बचाना और यथायोग्य बर्ताव कर मर्यादाकी रक्षा करनी चाहिये।
(४)अस्पृश्य पदार्थोंके स्पर्श, मृतकादि अशौच और मल-मूत्रादिके त्याग करनेपर शरीर अपवित्र होता है। अतएव मिट्टी-जल और स्नान, आचमन आदिसे शरीरको पवित्र रखना चाहिये।
(५) असत्य, कड़वे, दूसरोंकी निन्दा या अपनी प्रशंसासे भरे और व्यर्थके वचनोंसे वाणी अपवित्र होती है। अतएव सदा-सर्वदा अविकारी, सत्य, मधुर और हितकर वचन बोलने चाहिये। शौचका एक सर्वोत्तम उपाय और है। वह है हार्दिक प्रेमके साथ श्रीभगवान्के पवित्र नामका सतत स्मरण करना। शास्त्रकी अन्यान्य विधियोंका पालन करनेके साथ-ही-साथ मन लगाकर श्रीभगवान् का जप, कीर्तन और स्मरण अवश्य करना चाहिये। यह श्लोक प्रसिद्ध है—
अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
य: स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:॥