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दम

मानव-धर्मका तीसरा लक्षण है दम। दमका साधारण अर्थ इन्द्रियदमन समझा जाता है, परन्तु इस श्लोकमें भगवान् मनुने इन्द्रिय-निग्रहको अलग लिखा है, इसलिये यहाँ दमका अर्थ मनका निग्रह करना समझा जाता है। मन ही एक ऐसा पदार्थ है जो सतत जगत‍्के अस्तित्वको सिद्ध करता है और मायासे मोहित मनुष्यको विषयोंके प्रबल बन्धनमें बाँध देता है। ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो:’ स्वयं अनात्म और जड होनेपर भी बन्ध और मोक्ष इसीके अधीन हैं। मनपर विजय प्राप्त किये बिना जगत‍्का कोई भी कार्य सुचारुरूपसे सम्पादन नहीं किया जा सकता। जो मनको जीत लेता है, वह अनायास ही जगत‍्को जीत लेता है; परन्तु मन है बड़ा चंचल और हठीला। अनन्त युगोंसे निरन्तर विषयोंमें रमण करते रहनेसे इसका स्वरूप विषयाकार बन रहा है। इसे निग्रह करनेके लिये दो ही उपाय शास्त्रोंमें बतलाये गये हैं—‘अभ्यास और वैराग्य’—

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:।
(योगदर्शन समाधिपाद १२)

अभ्यास और वैराग्यसे ही इसका निरोध होता है, यही बात भगवान् ने श्रीगीतामें कही है—

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।
(६।३५)

मनरूपी नदीका प्रबल प्रवाह अविवेक और विषयरूपी पथपर बहता हुआ निरन्तर संसार-सागरमें पड़ रहा है। इस प्रवाहको इस मार्गसे हटाकर ईश्वराभिमुखी करनेके लिये अभ्यास और वैराग्यरूपी उपाय करने चाहिये। वेगसे बहती हुई नदीके जलको व्यर्थतामें जानेसे बचानेके लिये आवश्यकता होती है नदीमें बाँध बाँधनेकी; परन्तु केवल बाँधसे ही काम नहीं चलता। बाँधसे प्रवाहका बढ़ना तो रुक सकता है, परन्तु उसका आना नहीं रुकता, पीछेसे जोरका वेग आते ही या तो बाँध टूट जाता है या पानी बढ़कर नदी-तीरस्थ गाँवों और खेतोंको डुबा देता है। इसलिये बाँधके साथ-साथ नदीमें कुछ ऐसी नहरें और नाले निकालने चाहिये जिससे नदीमें आता हुआ जल आवश्यकतानुसार नहरों और नालोंमें बँटकर यथोचितरूपसे खेतोंमें जा सके। न तो केवल नहर निकालनेसे ही पूरा काम होता है, न केवल बाँध बाँधनेसे ही। नदीके सागराभिमुखी प्रवाहको रोककर उसे खेतोंमें यथायोग्य ले जानेके लिये बाँध और नाले दोनोंकी ही आवश्यकता होती है। इसी प्रकार चित्त-नदीके प्रवाहको संसारसे हटाकर परमात्माभिमुखी करनेके लिये वैराग्य और अभ्यास दोनोंकी ही समान आवश्यकता है।

इस लोकके साधारण पदार्थसे लेकर ब्रह्मलोकतकके सुखोंमें दु:ख-दोष देख-देखकर उनसे वृत्तियोंको रोकना वैराग्यका बाँध तैयार करना है और विषयोंसे हटती हुई कभी निकम्मी न होनेवाली चित्तकी वृत्तियोंको चारों ओरसे परमात्माके मननमें निरन्तर लगानेकी चेष्टा करना अभ्यासके नाले निकालना है। यों करते-करते जब चित्तकी वृत्तियाँ संसारके विषयोंमें क्रमश: रमणीयता, सुख, प्रेम और सत्ताका अभाव देखती हुई लुप्त हो जाती हैं और अभ्यास करते-करते जब परमात्माके सर्वत्र व्याप्त सम-स्वरूप भूमाका संसार-वासना और संसार-चिन्तासे शून्य शुद्ध चित्तमें दर्शन होता है, तभी साधक परमात्माको पानेका अधिकारी होता है। बस, इसके अनन्तर ही उस अविचल नित्यानन्द-स्वरूप परमपदकी प्राप्ति होती है और उसे पाकर वह कृतार्थ हो जाता है; परन्तु यदि कोई मनको वशमें किये बिना ही भव-बन्धनसे छूटकर परमात्माको प्राप्त करना चाहे तो उसकी भूल है। भगवान् ने कहा है—

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत:॥
(गीता ६।३६)

‘जिसका मन वशमें नहीं है, उसके लिये परमात्माकी प्राप्तिरूप योगका प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है, यह मेरा मत है; परन्तु मनको वशमें करनेवाले प्रयत्नशील पुरुष साधनद्वारा योग प्राप्त कर सकते हैं।’

इससे यह सिद्ध होता है कि परमात्माकी प्राप्ति चाहनेवाले प्रत्येक साधकको वैराग्य और अभ्यासके द्वारा मनको वशमें करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। यह तो हुई परमार्थके मार्गकी बात, परन्तु संसारके कार्योंमें सिद्धि लाभ करनेके लिये भी मनको वशमें करनेकी बड़ी आवश्यकता है। चंचल मनवाले मनुष्यका किसी भी कार्यमें सिद्धि प्राप्त करना कठिन है।*

* इस विषयकी ‘मनको वश करनेके कुछ उपाय’ नामक पुस्तिका प्रत्येक साधकको पढ़नी चाहिये और उसमें बतलाये हुए महात्माओंद्वारा अनुभूत उपायोंको अपने-अपने अधिकारके अनुसार काममें लाना चाहिये, ऐसा करनेसे बहुत कुछ लाभ होनेकी सम्भावना है।

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