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॥ श्रीहरि:॥

धर्मकी आवश्यकता

महाभारतमें कहा है—

धर्म: सतां हित: पुंसां धर्मश्चैवाश्रय: सताम्।
धर्माल्लोकास्त्रयस्तात प्रवृत्ता: सचराचरा:॥

‘धर्म ही सत्पुरुषोंका हित है, धर्म ही सत्पुरुषोंका आश्रय है और चराचर तीनों लोक धर्मसे ही चलते हैं।’

हिंदू-धर्मशास्त्रोंमें धर्मका बड़ा महत्त्व है, धर्महीन मनुष्यको शास्त्रकारोंने पशु बतलाया है। धर्म शब्द ‘धृ’ धातुसे निकला है, जिसका अर्थ धारण करना या पालन करना होता है। जो संसारमें समस्त जीवोंके कल्याणका कारण हो, उसे ही धर्म समझना चाहिये, इसी बातको लक्ष्यमें रखते हुए निर्मलात्मा त्रिकालज्ञ ऋषियोंने धर्मकी व्यवस्था की है। हिंदू-शास्त्रोंके अनुसार तो एक हिंदू-सन्तानके जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त समस्त छोटे-बड़े कार्योंका धर्मसे सम्बन्ध है। हिंदुओंकी राजनीति और समाजनीति धर्मसे कोई अलग वस्तु नहीं है। अन्य धर्मावलम्बियोंकी भाँति हिंदू केवल साधन-धर्मको ही धर्म नहीं मानते, परंतु अपनी प्रत्येक क्रियाको ईश्वरार्पण करके उसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये साधनोपयोगी बना सकते हैं।

धर्म चार प्रकारके माने गये हैं—वर्णधर्म, आश्रमधर्म, सामान्यधर्म और साधनधर्म। ब्राह्मणादि वर्णोंके पालन करनेयोग्य भिन्न-भिन्न धर्म, वर्णधर्म और ब्रह्मचर्यादि आश्रमोंके पालन करनेयोग्य धर्म आश्रमधर्म कहलाते हैं। सामान्यधर्म उसे कहते हैं जिसका मनुष्यमात्र पालन कर सकते हैं। उसीका दूसरा नाम मानव-धर्म है। आत्मज्ञानके प्रतिबन्धक प्रत्यवायोंकी निवृत्तिके लिये जो निष्काम कर्मोंका अनुष्ठान होता है, वह (यानी समस्त कर्मोंका ईश्वरार्पण करना) साधनधर्म कहलाता है। इन चारों धर्मोंके यथायोग्य आचरणसे ही हिंदू-धर्मशास्त्रोंके अनुसार मनुष्य पूर्णताको प्राप्त कर सकता है। इन चारोंमेंसे कोई ऐसा धर्म नहीं है, जिसकी उपेक्षा की जा सकती हो। वर्ण और आश्रमधर्मका तो भिन्न-भिन्न पुरुषोंद्वारा भिन्न-भिन्न अवस्थामें पालन किया जाता है, परन्तु तीसरा सामान्यधर्म ऐसा है कि जिसका आचरण मनुष्यमात्र प्रत्येक समय कर सकते हैं और जिसके पालन किये बिना केवल वर्ण या आश्रम-धर्मसे पूर्णताकी प्राप्ति नहीं होती। इस कथनका यह तात्पर्य नहीं है कि वर्णाश्रमधर्म सामान्यधर्मकी अपेक्षा कम महत्त्वकी वस्तु है या उपेक्षणीय है तथा यह बात भी नहीं है कि वर्णाश्रमधर्ममें सामान्यधर्मका समावेश ही नहीं है। सामान्यधर्म इसीलिये विशेष महत्त्व रखता है कि उसका पालन सब समय और सभी कर सकते हैं, परन्तु वर्णाश्रमधर्मका पालन अपने-अपने स्थान और समयपर ही किया जा सकता है। ब्राह्मण शूद्रका या शूद्र ब्राह्मणका धर्म स्वीकार नहीं कर सकता, इसी प्रकार गृहस्थ संन्यासीका या संन्यासी गृहस्थका धर्म नहीं पालन कर सकता, परन्तु सामान्यधर्मके पालन करनेका अधिकार प्रत्येक नर-नारीको है, चाहे वह किसी भी वर्ण या आश्रमका हो। इससे कोई सज्जन यह न समझें कि सामान्यधर्मके पालन करनेवालेको वर्णाश्रमधर्मकी आवश्यकता ही नहीं है। आवश्यकता सबकी है। अतएव किसीका भी त्याग न कर, सबका संचय करके यथाविधि योग्यतानुसार प्रत्येक धर्मका पालन करना और उसे ईश्वरार्पण कर परमार्थके लिये उपयोगी बना लेना उचित है।

शास्त्रकारोंमेंसे किसीने सामान्यधर्मके लक्षण आठ, किसीने दस, किसीने बारह और किसी-किसीने पंद्रह, सोलह या इससे भी अधिक बतलाये हैं। श्रीमद्भागवतके सप्तम स्कन्धमें इस सनातनधर्मके तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्वके हैं*।

* सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्॥
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्॥
अन्नाद्यादे: संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेष्वात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव॥
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्॥
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिंशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति॥
(श्रीमद्भा० ७। ११। ८—१२)
सत्य, दया, तप, शौच, तितिक्षा, सत्-असत् का विचार, शम, दम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, आर्जव, संतोष, समदृष्टिसम्पन्न, पुरुषोंकी सेवा, प्रवृत्तिजनक कर्मोंसे निवृत्ति, मनुष्यकृत कर्मोंकी निष्फलताका ज्ञान, व्यर्थ बातोंका त्याग, आत्मविचार, सब प्राणियोंको बाँटकर अन्न खाना, सबमें परमात्माको देखना, श्रीहरिके नाम और गुणोंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना, श्रीहरिकी सेवा करना, पूजा करना, प्रणाम करना, अपनेको श्रीहरिका दास समझना, अपनेको उनका मित्र मानना और श्रीहरिके (चरणकमलोंमें) आत्मसमर्पण कर देना—इन तीस लक्षणोंसे युक्त यह सनातनधर्म सभी मनुष्योंका साधारण धर्म है। इसके पालनसे सर्वात्मा श्रीहरि प्रसन्न होते हैं।

विस्तार-भयसे यहाँपर उनका विस्तृत वर्णन न कर केवल भगवान् मनुके बतलाये हुए धर्मके दस लक्षणोंपर ही कुछ विवेचन किया जाता है, मनु महाराज कहते हैं—

धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
(६।९२)

धृति, क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध—ये दस धर्मके लक्षण हैं।

ये ऐसे धर्म हैं कि जिनमें किसी भी जाति या सम्प्रदायको आपत्ति नहीं हो सकती। सत्य बात तो यह है कि यही मनुष्य-जातिके स्वाभाविक धर्म हैं। मनुष्यमें मनुष्यत्वका विकास इन्हीं धर्मोंके आचरणसे हो सकता है। जिस समय मनुष्य अपने स्वभावके विरुद्ध इन धर्मोंका पालन करना छोड़ देता है, उसी समय उसकी अधोगति होती है। जब मनुष्य-जातिमें इन धर्मोंकी प्रधानता थी तब जगत‍्में सुख और शान्तिका साम्राज्य था; ज्यों-ज्यों इन धर्मोंके पालनसे मनुष्य-जाति विमुख होने लगी, त्यों-ही-त्यों उसमें दु:ख और अशान्तिका विस्तार होने लगा और आज जगत‍्के मनुष्य-प्राणी इन्हीं धर्मोंका बहुत अंशमें ह्रास हो जानेके कारण अपने-अपने क्षुद्र स्वार्थसाधनके लिये, परस्पर वैर-भावको प्रश्रय देते हुए हिंसक पशुओंकी भाँति खूँखार बनकर, एक-दूसरेको ग्रास कर जानेके लिये तैयार हो रहे हैं और इसीसे आज अपनेको बुद्धिमान् समझनेवाले मनुष्योंकी बस्तियोंमें प्राय: कहींपर भी सुख-शान्ति देखनेमें नहीं आती। जिधर देखिये उधर ही देश-के-देश दु:खके दावानलसे दग्ध हो रहे हैं। धनी-से-धनी और गरीब-से-गरीब सभी अशान्त प्रतीत होते हैं। दरिद्र, कंगाल और दलितोंकी अभावमयी अशान्ति और उनका दु:ख तो प्रत्यक्ष ही प्रकट है, परंतु बड़ी ऊँची-ऊँची विशाल अट्टालिकाओंमें रहनेवाले, दिन-रात मखमली गुदगुदे गद्दोंपर लेटनेवाले, मोटरों और वायुयानोंमें स्वच्छन्द सैर करनेवाले, बड़ी-बड़ी मिलों और कारखानोंवाले, सब प्रकारकी विलास-सामग्रियोंको इशारा करते ही अपने पास मौजूद पानेवाले, ऊँचे-से-ऊँचे पदोंपर प्रतिष्ठित होकर जनतापर इच्छानुसार हुकूमत करनेवाले, विज्ञानके नये-नये आविष्कारोंसे जगत‍्को स्तम्भित करनेवाले, युद्धसामग्रियोंके प्रचुर संग्रहसे दूसरे देशों और जातियोंको भयभीत करनेवाले, अपने कवित्वकी अद‍्भुत कलासे लोगोंको मुग्ध करनेवाले, धर्मोपदेशकके आसनपर बैठकर स्वर्गका सीधा मार्ग बतानेवाले, आँख मूँदे हुए सिर हिला-हिलाकर सुननेवाले, सम्पादककी कुर्सीपर बैठकर सारे जगत‍्की समालोचना करनेवाले, बड़ी-बड़ी सभाओंमें चिल्ला-चिल्लाकर शब्दोंकी झड़ी लगानेवाले और संसारके अन्यान्य व्यापारोंमें बड़ी-से-बड़ी कृति करनेवाले लोगोंकी हृदय-गुफाओंमें यदि घुसकर देखा जाय तो सम्भवत: उनमेंसे अधिकांशका अन्तर अशान्तिकी धधकती हुई ज्वालासे जलता हुआ मिलेगा। अपने-अपने हृदयपर हाथ धरकर हमलोग देख लें कि हमारी वस्तुत: क्या दशा है, समस्त बाह्याडम्बरोंके भीतर किस तरह भयानक अग्नि लग रही है। इसका प्रधान कारण यदि विचारकर देखें तो बहुत अंशमें यही प्रतीत होता है कि हमलोगोंने परमात्माको भुलाकर और उसकी प्रसन्नताके हेतुभूत सामान्य मानव-धर्मका न्यूनाधिकरूपमें तिरस्कार कर मनुष्य-स्वभावके सर्वथा विपरीत पशुधर्मका आचरण आरम्भ कर दिया। हमलोग इस बातको प्राय: भूल गये कि—

‘धर्म ही मनुष्यका आधार है, धर्म ही जीवन है और धर्म ही मरनेपर साथ जाता है।’ मनु महाराज कहते हैं—

नामुत्र हि सहायार्थं पिता माता च तिष्ठत:।
न पुत्रदारा न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवल:॥
एक: प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते।
एको नु भंुक्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम्॥
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं क्षितौ।
विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति॥
तस्माद्धर्मं सहायार्थं नित्यं संचिनुयाच्छनै:।
धर्मेण हि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम्॥
(४।२३९—२४२)

‘पिता, माता, पुत्र, स्त्री और जातिवाले ये परलोकमें सहायता नहीं करते, केवल एक धर्म ही सहायक होता है। प्राणी अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही पुण्य-पापका भोग करता है, भाई-बन्धु तो मरे शरीरको काठ और मिट्टीके ढेलेकी तरह पृथ्वीपर छोड़कर वापस लौट आते हैं; केवल धर्म ही प्राणीके पीछे-पीछे जाता है। अतएव परलोककी सहायताके लिये प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा धर्म संचय करे, क्योंकि मनुष्य धर्मकी सहायतासे कठिन नरकादिसे तर जाता है।’

धर्माचरणमें यदि आरम्भमें कुछ कठिनता प्रतीत हो तो भी उसे छोड़ना नहीं चाहिये।

मनु महाराज कहते हैं—

न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत्।
अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन्विपर्ययम्॥
नाधर्मश्चरितो लोके सद्य: फलति गौरिव।
शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति॥
अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।
तत: सपत्नांजयति समूलस्तु विनश्यति॥
(४।१७१-१७२,१७४)

‘पापी, अधर्मियोंकी शीघ्र ही बुरी गति होती है, ऐसा समझकर पुरुषको चाहिये कि धर्मसे दु:ख पाता हुआ भी अधर्ममें मन न लगावे। जैसे पृथ्वी शीघ्र फल नहीं देती, वैसे ही संसारमें किया हुआ अधर्म भी तत्काल फल नहीं देता है, किंतु किया हुआ अधर्म करनेवालेको धीरे-धीरे जड़-मूलसे नष्ट कर देता है। अधर्मी पहले अधर्मसे (सम्भवत:) बढ़ता है, फिर उससे अपना भला देखता है, फिर शत्रुओंको जीतता है और अन्तमें समूल नाश हो जाता है।’

इन वचनोंपर ध्यान देकर हम सबको धर्मका पालन करनेके लिये यत्नवान् होना चाहिये।

अगले दस निबन्धोंमें मनुकथित उपर्युक्त दस धर्मोंपर कुछ विचार किया जाता है।

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