धृति
मनु महाराजके दस धर्मोंमेंसे सबसे पहला धर्म ‘धृति’ है, जिसका अर्थ धैर्य, धारणा, संतोष या सहनशीलता किया जाता है। कहा है—
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा:॥
(भर्तृहरिनीतिशतक)
‘बुद्धिमान् लोग निन्दा करें या स्तुति करें, लक्ष्मीजी आवें या प्रसन्नतासे चली जायँ, मृत्यु आज ही हो जाय या युगान्तरमें हो, परंतु धैर्यवान् लोग न्यायके पथसे कभी विचलित नहीं होते।’
प्राय: प्रत्येक कार्यकी सफलतामें धैर्यकी आवश्यकता हुआ करती है। धैर्यवान् पुरुष बड़े-से-बड़े संकटको आसानीसे पार कर सुखी होते हैं। उन्हें सहजमें पापका स्पर्श नहीं होता। धैर्यकी परीक्षा संकट-कालमें और इच्छित वस्तुकी प्राप्तिमें विलम्ब होनेपर हुआ करती है। ऐसे समय जो लोग धैर्यको बचा सकते हैं, वे बड़ी-बड़ी पाप-वासनाओंको परास्त कर प्राय: इच्छित वस्तुकी प्राप्ति कर सकते हैं। परंतु जो धैर्यका त्याग कर बैठते हैं, उनका अनेक प्रकारके पापोंसे लिप्त होना सम्भव है, जिसका फल अत्यन्त भयप्रद होता है और उनके कार्यकी सिद्धिमें तो सन्देह रहता ही है।
काम, क्रोध, लोभ, भय, व्यसन और शारीरिक कष्टके समय धैर्यका नाश होता है। उदाहरणार्थ—
(१) किसीको स्त्रीकी इच्छा है, परंतु उसकी स्त्री अपने पिताके यहाँ गयी है या अभीतक उसका विवाह नहीं हुआ है। इस अवस्थामें धैर्य धारण करनेवाला ही अपने जीवनको पवित्र बनाये रखता है। धैर्य छोड़ देनेवालेको अवश्य ही पापोंका शिकार बनना पड़ता है और उन पापोंका फल इस लोक और परलोकमें कितना भयानक होता है सो बतलानेकी आवश्यकता नहीं।
(२) मनके विरुद्ध कार्य होते ही मनुष्यके चित्तमें एक ऐसी जलती हुई वृत्ति उत्पन्न होती है जो उसके सारे शरीरमें आग-सी लगा देती है। शरीर और चेहरा लाल हो जाता है, आँखोंमें सबसे अधिक लाली आती है। शरीर काँपने लगता है; इन्द्रियाँ बड़े जोरसे बेकाबू होना चाहती हैं, ऐसी अवस्थामें धैर्य न रखनेवाला मनुष्य अपनी या दूसरेकी बड़ी-से-बड़ी हिंसातक कर बैठता है, जिसका परिणाम प्राय: सभी जानते हैं।
(३) धनकी इच्छा है, परंतु धन मिलनेमें विलम्ब हो रहा है। किसी तरहसे भी हो धन शीघ्र मिलना चाहिये। ऐसी अवस्थामें भी धैर्य छूट जाता है और उसीके परिणामस्वरूप चोरी-डकैती और खून वगैरह हुआ करते हैं।
(४) किसी काममें रुपया लग गया, पासमें है नहीं, न देनेसे इज्जत जाती है; बड़ा भय है; प्राय: भले-भले आदमी ऐसी अवस्थामें धैर्य छोड़कर आत्महत्यातक कर बैठते हैं अथवा पापी अधिकारी कहता है, ‘तुम सत्य बोलोगे तो मार दिये जाओगे।’ ‘भगवान् का नाम लोगे तो जीभ काट ली जायगी!’ ‘धर्म नहीं छोड़ोगे तो दीवारमें चुनवा दिये जाओगे।’ ‘तुम अपना सतीत्व त्यागकर व्यभिचारमें प्रवृत्त न होओगी तो सिर उड़ा दिया जायगा।’ ऐसी धमकियोंमें मनुष्य प्राणभयसे धैर्यको छोड़ देता है। इस अवस्थामें जो धैर्यको सँभालता है, धैर्य उसके धर्म, परलोक और कीर्तिकी रक्षा करता है।
(५) एक रोगी है, उसे मीठा खानेका व्यसन है, पेटमें बीमारी है, वैद्यने मीठा खानेके लिये मना कर दिया है; परंतु वह नहीं मानता। मीठा देखते ही उसका धैर्य छूट जाता है और परिणाममें मृत्युका ग्रास होना पड़ता है।
(६) प्रह्लादका शरीर हाथीसे कुचलवाया जाता है, साँपोंसे कटवाया जाता है, गुरु गोविन्दसिंहके बालक-पुत्रोंको दीवारमें जीते-जी चुनवाया जाता है, ऐसी अवस्थामें धैर्य रखनेसे ही आजतक उनका नाम अमर है। धैर्य न रखनेवाला थोड़े समयके लिये शारीरिक कष्टसे भले ही मुक्त हो जाय, परंतु उसका परिणाम बड़ा ही दु:खद होता है।
इस प्रकार अनेक कारणोंसे धैर्यका छूटना सम्भव होता है, परंतु चेष्टा करनेपर धैर्यकी रक्षा हो सकती है। धैर्य ही सत्य और टेककी रक्षा करता है। यदि धैर्य न होता तो आज हरिश्चन्द्र, मयूरध्वज, पितामह भीष्म, युधिष्ठिर और अर्जुनका इतना नाम नहीं रहता। राणा प्रतापके नामको अमर बनानेवाला धर्म धैर्य ही है, एक बार जरा-सा धैर्य छूटनेपर सारी टेकपर पानी फिरने लगा था, परंतु भगवान् ने उन्हें बचाया।
धैर्य अन्यान्य धर्मोंके पालनमें एक बड़ा सहायक है, इसलिये सम्भवत: मनु महाराजने सबसे पहले इसका नाम लिया है। भगवत्-प्राप्तिके लिये जब साधक पहले-पहल साधनामें प्रवृत्त होता है, तब धैर्य ही उसका प्रधान सहायक होता है। धैर्ययुक्त बुद्धि हुए बिना मनका वशमें होना सम्भव नहीं और मनके वशमें हुए बिना परमात्माकी प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है। जो साधक दस-पाँच दिनोंकी साधनासे ही उकताकर धैर्य छोड़ देता है, वह जहाँ-का-तहाँ रह जाता है, परंतु जो धैर्यके साथ साधनमें लगा रहता है, उसके हृदयमें साधनकी परिपक्वता होनेपर परमात्माको पानेके लिये अचल धैर्यके परिणामस्वरूप एक विलक्षण अधीरता उत्पन्न होती है और उसके उत्पन्न होते ही परमात्माके कल्याणमय दर्शनका शुभ समय आ पहुँचता है।