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धी अर्थात् बुद्धि

मानव-धर्मका सातवाँ लक्षण श्रेष्ठ बुद्धि है। मनुष्यके अंदर बुद्धि ही एक ऐसी अद‍्भुत वस्तु है जिसपर उसका पतन और उत्थान निर्भर है। कठोपनिषद्के वचन हैं—

आत्मानॸरथिनं विद्धि शरीरॸरथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च॥
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयाॸस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिण:॥
(१। ३। ३-४)

‘शरीर रथ है, आत्मा रथी है, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, शब्द-स्पर्शादि विषय मैदान और शरीर, इन्द्रिय तथा मनयुक्त आत्मा भोक्ता है।’

रथ घोड़ोंके बिना नहीं चलता, परंतु उसे ठीक रास्तेसे ले जाना हाथमें लगाम पकड़े हुए बुद्धिमान् और तत्पर सारथीका ही काम है। सारथीमें चार गुण अवश्य होने चाहिये। रथीकी आज्ञाका पालन करना, जहाँ जाना है उस स्थानको जानना, मार्ग जानना और मजबूतीसे लगाम थामकर यथोचितरूपसे ठीक मार्गपर घोड़ोंको चलाना। इनमेंसे किसी भी गुणकी कमी होनेपर रथके गिरने या मार्गभ्रष्ट होनेका भय रहता है। इन्द्रियरूपी बलवान् और मथनकारी घोड़े विषयरूपी मैदानमें मनमाने दौड़ना चाहते हैं; परंतु यदि बुद्धिरूपी बल-बुद्धि-विशारद सारथी मनरूपी लगामको जोरसे खींचकर उन्हें अपने वशमें रखनेमें समर्थ हो तो उन जुते हुए इन्द्रियरूपी घोड़ोंकी इतनी ताकत नहीं कि वे मनरूपी लगामका सहारा मिले बिना ही चाहे जिस तरफ दौड़ सकें।

हमारा मन दूसरी तरफ लगा हुआ हो, उस समय हमारे सामनेसे कोई निकल जाय या कोई कुछ भी बातें करता रहे, आँख और कान मौजूद रहनेपर भी हमें उनका पता नहीं लगता। पूछनेपर हम कह देते हैं कि हमारा मन दूसरे काममें था, इससे हमने देखा या सुना नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि इन्द्रियाँ किसी विषयको तभी ग्रहण कर सकती हैं जब कि मन उनके साथ हो—घोड़े उसी ओर दौड़ते हैं जिस ओर लगामका सहारा हो। लगामको ठीक रखना सारथीका कार्य है। यदि बुद्धिरूपी सारथी विवेकरहित, कर्तव्य-निर्णयमें असमर्थ और बलहीन हो तो इन्द्रियरूपी दुष्ट घोड़े उसके वशमें नहीं रहकर लगामको अपने वशमें कर लेते हैं और मनमाने चाहे जिधर दौड़कर रथको रथी और सारथीसमेत बुरे-से-बुरे स्थानमें ले जाकर पटक देते हैं।

मान लीजिये हम अपने मकानमें कमरेके अंदर बैठे हुए हैं। रास्तेसे कुछ झंकारकी आवाज आयी। आवाजका पता कर्ण-इन्द्रियको लगा। परन्तु उसका यह बतलानेका सामर्थ्य नहीं कि आवाज किस चीजकी है। कानने यह विषय मनके सामने रखा, मन विकल्प करने लगा। (वास्तवमें मनका स्वरूप ही संकल्प-विकल्पात्मक है। मन निर्णय नहीं कर सकता।) मनने यह विषय बुद्धिके सामने रखा, बुद्धिने विचारकर यह फैसला दिया कि किसी राह चलनेवाली स्त्रीके पायजेबकी आवाज है। यह निश्चय होते ही मन फिर चाहता है कि जरा उसे देखूँ, यहाँ यदि बुद्धि धर्ममें सावधान और परमात्मामें निश्चयात्मिका होती है तो तुरंत मनको डराकर या समझा-बुझाकर रोक देती है। परन्तु यदि ऐसा नहीं होता तो बुद्धि मनका साथ दे देती है। बुद्धिसे ढिलाई पाते ही मन इन्द्रियोंके अधीन हो जाता है, फिर पैर दौड़ते हैं, आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं। क्रमश: सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने व्यापारमें लग जाती हैं। जरा-सी बुद्धिकी ढिलाईसे महापाप बन जाता है। इस बातको लिखने-पढ़नेमें बहुत देर लगती है, पर वह इन्द्रिय, मन, बुद्धिका व्यापार निरन्तर क्षणभरमें होता है। कानमें आवाज आते ही मनने सोचा, क्या है, बुद्धिने मीमांसा कर दी, फिर मनमें इच्छा हुई, उसे बुद्धिने या तो रोक दिया या मनकी हाँ-में-हाँ मिला दी।

इससे भी उपर्युक्त दृष्टान्तकी पुष्टि होती है। बुद्धिरूपी सारथीके द्वारा मनरूपी लगामको छूट मिलते ही इन्द्रियरूपी घोड़े स्वेच्छाचारी बन जाते हैं और इन्द्रियोंके वशमें होकर चलनेसे ऐसी कोई बुराई नहीं जो नहीं हो सकती। अतएव सब तरहकी बुराइयोंसे बचकर शरीररूपी रथमें बैठे हुए हम यदि अपने लक्ष्यस्थलपर—परमात्माके परमधाममें पहुँचना चाहते हैं तो बुद्धिरूपी सारथीको परमेश्वरमें निश्चयवाला बनाकर इन्द्रियरूपी घोड़ोंको मनरूपी लगामके सहारेसे रथको सत्त्वगुणी विषयोंरूपी राज-मार्गपर चलना चाहिये, जिससे कि वह जहाँतक जा सकता हो वहाँतक ठीक मार्गपर ही जाय। शरीर-रथमें स्थित आत्माके लिये लक्ष्यतक पहुँचनेका दूसरा कोई रास्ता नहीं है। चलना इसी रथके द्वारा, इन्हीं साधनोंसे है, भेद केवल सुमार्ग और कुमार्गका है। सुमार्गगामी रथ सीधा अपने घरके पास पहुँचा देता है और कुमार्गगामी रथ बारम्बार अन्धकारमय गड्ढेमें डालकर दु:ख देता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि परमधाममें नहीं जा सकते, उसे न पाकर वापस लौट आते हैं, परंतु जहाँतक जिसकी गम्य है, वहाँतक तो उसीके सहारेसे हमें चलना होगा।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:॥
(गीता ३। ४२)

‘इस शरीरसे इन्द्रियोंको श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं, इन्द्रियोंसे मन परे है, मनसे परे बुद्धि है और जो बुद्धिसे भी अत्यन्त परे है, वह आत्मा है।’

रथके दृष्टान्तमें यह बात ठीक मिलती है। रथ वहींतक जा सकता है जहाँतक सीधी सड़क है। महलके सामनेकी सड़कतक रथ गया, घोड़े उससे आगे महलके आगेके मैदानतक जा सके, वहाँ वे छायामें वृक्षतले बाँध दिये गये, लगाम आदि साज बाहरके डेरेतक लाये जा सके— चमड़ा होनेसे महलमें उनका प्रवेश नहीं हो सकता, शूद्र सारथी महलकी ड्योढ़ीतक गया, अंदर प्रवेश करनेका उसका अधिकार नहीं, अन्त:पुरमें चला गया। रथी घरका मालिक घरमें घुसकर वापस नहीं लौटा, सारथी बाहरसे महलको देखकर वापस लौटा, साजके समीप आकर उसने साज लिया, आगे आकर घोड़े साथ लिये, सड़कपर आकर रथ जोड़ा और रथीहीन उस रथको लेकर वह वापस लौट आया। ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ उसीने वापस आकर बाहरसे देखी हुई महलकी शोभा और उसके सुखोंका वर्णन किया। इसीलिये ब्रह्मका स्वरूप वर्णन नहीं किया जा सकता। जो पहुँच जाता है वह तो वापस लौटता नहीं और जो लौटता है वह अंदरका रहस्य जानता नहीं, परंतु बुद्धि अन्तिम दरवाजेतक पहुँचनेवाली होती है, इससे वह बाहरकी सारी बातें बतला सकती है। अबतक ब्रह्मका जितना वर्णन किया गया है, वह सब इसी प्रकार मुक्तपुरुषोंकी लौटाकर आयी हुई बुद्धिका कार्य है जो लक्ष्यको ठीक बताता है, लक्ष्यतक पहुँचानेमें अच्छी और यथार्थ सहायता करता है; परंतु लक्ष्यका असली रहस्य नहीं बता सकता, तथापि उस ब्रह्मका स्वरूप सूक्ष्मदर्शियोंद्वारा सूक्ष्म वस्तुके निरूपणमें निपुण एकाग्रतायुक्त शुद्ध बुद्धिके द्वारा ही देखा जा सकता है।

दृश्यते त्वग्रॺा बुद्‍ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥
(कठ० १। ३। १२)

बुद्धि ही आत्मसाक्षात्कारमें प्रधान साधन है। बुद्धि तीन प्रकारकी होती है, जो लोग भगवत्-प्राप्तिके साधनमें लगे हुए हैं उनकी बुद्धि तो सात्त्विकी होती है। सात्त्विकी बुद्धिका स्वरूप यह है—

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विकी॥
(गीता १८। ३०)

भगवान् कहते हैं कि ‘हे अर्जुन! प्रवृत्ति और निवृत्ति, कर्तव्य और अकर्तव्य एवं भय और अभय तथा बन्धन और मोक्षको जो ‘सूक्ष्म’ बुद्धि तत्त्वसे जानती है वह बुद्धि सात्त्विकी है।’

इसी बुद्धिरूपी सारथीके द्वारा शरीर-रथ भलीभाँति परिचालित होता है। यह बुद्धि कल्याणके मार्गमें निश्चयात्मिका एक ही होती है परंतु अज्ञानी पुरुषोंकी बुद्धि अनेक भेदवाली अनन्तरूप बन जाती है।

राजस पुरुषोंकी बुद्धि राजसी और तामसोंकी तामसी होती है गीतामें भगवान् ने इसका स्वरूप बतलाया है—

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी॥
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी॥
(१८। ३१-३२)

भगवान् कहते हैं— ‘हे पार्थ! जिस बुद्धिके द्वारा मनुष्य धर्म-अधर्म तथा कर्तव्य-अकर्तव्यको भी यथार्थ नहीं जानता है, वह बुद्धि राजसी है और जो तमोगुणसे ढकी हुई बुद्धि अधर्मको धर्म मानती है तथा और भी समस्त अर्थोंको विपरीत ही मानती है वह बुद्धि तामसी है।’

मनु महाराजने ‘धी’ शब्दसे इन दोनों बुद्धियोंको न बतलाकर उस सात्त्विकी श्रेष्ठ बुद्धिको बतलाया है जो सत्संग और सत्-शास्त्रोंके अनुशीलन, भगवद्भजन और आत्मविचारसे प्राप्त होती है और जिससे परम कल्याणस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति होती है।

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