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विद्या

मानव-धर्मका आठवाँ लक्षण है ‘विद्या’। विद्या-शब्दसे यहाँ अध्यात्मविद्या लेनी चाहिये, इसीको भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है ‘अध्यात्मविद्या विद्यानाम्’ (गीता १०।३२) और इसीसे परमात्माकी प्राप्ति होती है। जो विद्या संसारके बड़े-से-बड़े पद या ऐश्वर्यको प्रदान करनेवाली होनेपर भी भगवत्प्राप्तिमें सहायक नहीं है वह वास्तवमें विद्या नहीं है। आजकल जिसको विद्या कहते हैं और जिसकी प्राप्तिके लिये विद्यालयोंका विस्तार हो रहा है, वह तो अधिकांशमें घोर अविद्या है। जिससे प्राचीन भारतकी त्यागपूर्ण विद्यापर कुठाराघात होता है; जो भोगपरायणताको बढ़ाती है, जो इस लोकके सुखको ही परम सुख मानना सिखाती है, जो गुलाम और क्लर्कोंकी संख्या-वृद्धि कर रही है, जो परमुखापेक्षी बनाती है, जो मिथ्या अभिमान उत्पन्न कर परमार्थ साधनमें सहायता करनेवाली संस्कृतिका विनाश करती है और जो ईश्वरके अस्तित्वपर अविश्वास उत्पन्न कर देती है, ऐसी विद्यासे तो सर्वथा बचना ही श्रेयस्कर है। आजकलकी शिक्षा-पद्धतिसे प्राय: ऐसी नाशकारी विद्याका ही विस्तार हो रहा है।

विद्या वह है जो धर्म और सदाचारमें श्रद्धा उत्पन्न कराती है, जो सारे विश्वमें परमात्माके स्वरूपका दर्शन कराकर सबसे निर्वैर बनाती है। जो समस्त अनेकतामें एकताका वास्तविक स्वरूप बतलाकर जीवको सदाके लिये परम सुखके स्थानपर पहुँचा देती है, हमें उसी ब्रह्मविद्याका आश्रय लेना चाहिये।

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