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क्षमा

दूसरा धर्म है क्षमा। अपना अपकार करनेवालेसे बदला लेनेकी पूरी सामर्थ्य रहते हुए भी बदला न लेकर उस अपकारको प्रसन्नताके साथ सहन कर लेना क्षमा कहलाता है।

सत्यपि सामर्थ्ये अपकारसहनं क्षमा।

मनुष्य मायासे मोहित है, मोहके कारण वह भोगोंमें सुख समझकर उनकी प्राप्तिके लिये परिणाम न सोचकर दूसरेका अनिष्ट कर बैठता है। मनसे साधारण प्रतिकूल घटनामें ही मनुष्य अपना अनिष्ट मान लेता है और उसी अवस्थामें उसे क्रोध आता है। आगे चलकर इसी क्रोधके कई रूप बन जाते हैं, जिन्हें द्वेष, वैर, प्रतिहिंसा और हिंसा आदि नामोंसे पुकारा जाता है, जिस समय किसीके प्रति मनमें द्वेष उत्पन्न होता है, उसी समयसे अमंगलका प्रारम्भ हो जाता है। किसीको अपना शत्रु समझकर उससे बदला लेनेकी प्रवृत्तिसे न केवल उस वैरीका ही अनिष्ट होता है, वरं अपना भी महान् अनिष्ट होता है, दिन-रात हृदय जला करता है। इतनेमें भी इस अमंगलकी समाप्ति नहीं हो जाती। दोनों ओरसे द्वेष और प्रतिहिंसाकी पुष्टि होते-होते परस्पर विविध प्रकारसे संघर्षण होने लगता है और उससे एक ऐसा प्रबल दावानल जल उठता है, जो बड़ी-बड़ी जातियों और राष्ट्रोंको भस्म कर डालता है। जगत‍्के बड़े-बड़े युद्ध आरम्भमें दो-चार मनुष्योंके परस्पर मनोमालिन्यके आधारपर ही हुए हैं। यदि मनुष्य अपने ही-जैसे दूसरे मनुष्यकी किसी भूलको द्वेष न समझकर उसपर क्षमा कर दे तो उन दोनोंके साथ-ही-साथ सारा समाज भी बड़े अनर्थसे बच सकता है।

हम जिस घटनाको अपनी बुराई समझते हैं, वह वास्तवमें हमारी बुराई ही है, ऐसा कोई निश्चय नहीं है। बहुत बार मनुष्य किसी घटनासे अपना अनिष्ट समझता है, पर वही घटना परिणाममें उसके सुखका कारण सिद्ध होती है। हम भूलसे मनके प्रतिकूल प्रत्येक घटनामें ही प्राय: अनिष्ट देखते हैं। यह निश्चित बात है कि सभी घटनाएँ या दूसरोंके द्वारा किये हुए सभी कार्य हमारे मनके अनुकूल नहीं हो सकते, सबके मनकी भावना और प्रवृत्ति तथा सबकी परिस्थिति समान नहीं हो सकती! कभी-कभी तो एक-दूसरेकी सर्वथा विपरीत परिस्थिति रहती है। हमें किसी दूसरेके एक कार्यमें अपना अनिष्ट दीख पड़ता है या कहीं-कहींपर उससे हमारे स्वार्थमें कुछ बाधा पहुँची दिखायी देती है; परंतु इससे यह कदापि सिद्ध नहीं होता कि उस मनुष्यने वास्तवमें जान-बूझकर हमारे स्वार्थमें हानि पहुँचानेके लिये वह काम किया है। व्यापारी-जगत‍्में बहुत बार हमें ऐसा अनुभव होता है। दो व्यापारियोंके पास एक तरहका माल है, एक व्यापारी समझता है कि इस मालकी बड़ी तेजी होगी, इससे वह अपना माल केवल कम दामोंमें बेचना बंद ही नहीं करता; परंतु तेजीकी आशासे बाजारसे वैसा माल और भी खरीद करता है। पक्षान्तरमें दूसरे व्यापारीकी समझमें किसी कारणवश उस वस्तुकी बड़ी मन्दी जँचती है या उसे नकद रुपयोंकी आवश्यकता हो गयी है और वह अपना माल भाव घटाकर तुरन्त बेचता है; उसका उद्देश्य अपना माल बेच डालना है न कि तेजीवाले व्यापारीका अनिष्ट करना; परंतु उसका यह कार्य तेजीवाले व्यापारीके मनके और स्वार्थके प्रतिकूल होता है और इससे उसकी धारणा हो जाती है कि मंदीवाला मेरी उन्नति नहीं देख सकता, इसीलिये मंदे भावमें माल बेचकर मुझे नुकसान पहुँचा रहा है, यह भावना ज्यों-ज्यों पुष्ट होती है त्यों-ही-त्यों वह भी मंदीवाले व्यापारीको जान-बूझकर नुकसान पहुँचानेकी चेष्टा करने लगता है। जब मंदीवालेको इस बातका पता लगता है, तब उसके मनमें भी द्वेष उत्पन्न हो जाता है और वह भी खुल्लम-खुल्ला तेजीवालेकी अनिष्ट-कामना करने लगता है। द्वेष बद्धमूल हो जाता है, दोनों ओरसे ऐसी कार्यवाहियाँ होने लगती हैं जिससे दोनोंकी आर्थिक हानि होती है और परस्परमें सदाके लिये वैर बँध जाता है। जो जीवनभर दोनोंको कष्ट देता है। एक-दूसरेके बन्धु-बान्धव और सगे-सम्बन्धी भी परस्पर एक-दूसरेको वैरी समझने लगते हैं, परिणाम यह होता है—द्वेषकी विष-बेलि चारों ओर फैलकर सारे समाजपर छा जाती है और प्राय: सबके जीवनको अशान्त और दु:खी कर डालती है। कलकत्ते और बम्बई-सरीखे बड़े व्यापारी-नगरोंमें रहनेवाले व्यापारियोंको इसका बड़ा अनुभव है। यह केवल एक उदाहरण है। केवल व्यापारी-जगत‍्में ही ऐसा नहीं होता; परंतु साहित्य, विज्ञान, धर्म, सम्प्रदाय, सेवक, नेता, जाति, राष्ट्र आदि सभीमें परस्पर गैर-समझसे इस प्रकारके अनर्थ हुआ करते हैं। जो शक्ति जगत‍्की भलाईमें व्यय होनी चाहिये, वही शक्ति एक-दूसरेके विनाशके लिये व्यय की जाती है। इससे यह सिद्ध हो गया कि हमें जिस मनुष्यके जिस कार्यसे कुछ हानि पहुँचती है, उसने वह काम जान-बूझकर ही हमें हानि पहुँचानेके लिये किया हो, सभी जगह ऐसी बात नहीं होती, हमारी भ्रान्त धारणा ही उसके कार्यको इस रूपमें परिणत कर देती है।

दूसरेके द्वारा अपना कोई अनिष्ट होते देखकर सबसे पहले इस बातका विचार करना चाहिये कि वास्तवमें इसमें हमारा कोई नुकसान है या नहीं। बहुत बार मनुष्य क्रोध या द्वेषके विकारमें इस बातका स्वयं निर्णय नहीं कर सकता। ऐसी स्थितिमें उसे चाहिये कि वह आसपासके किसी सत्पुरुष (जिसपर उसकी श्रद्धा हो)-के पास जाकर उससे पूछे कि अमुक मनुष्यके अमुक कार्यसे वास्तवमें मेरी कोई हानि है या नहीं? सत्पुरुषकी राग-द्वेषरहित बुद्धिसे बड़ा सुन्दर निर्णय होता है। यदि वह यह कह दें कि इसमें तुम्हारी कोई हानि नहीं, तब तो क्रोध करनेका कोई कारण ही नहीं रह जाता। कदाचित् उनके विवेकसे भी यह साबित हो जाय कि उक्त कार्यसे वास्तवमें हमारी हानि होगी तब उसका कारण ढूँढ़ना चाहिये। बिना कारणके कार्य नहीं होता, यह सिद्धान्त है, फिर उसने हमारा नुकसान क्यों किया? क्या हमने कभी उसको जान-बूझकर नुकसान पहुँचाया था या कभी उसके लिये अनिष्ट-कामना की थी? यदि कभी ऐसा नहीं किया तो क्या हमसे कभी कोई ऐसी भूल हुई थी, जिससे उसको नुकसान पहुँचा हो? यदि कभी ऐसा हुआ है तो वह क्या बुरा करता है? क्या हमारा नुकसान करनेवालेके लिये हमारे मनमें कभी प्रतिहिंसाके भाव नहीं आते? यदि आते हैं तो हमें क्या अधिकार है कि हम अपने ही-जैसे एक मनुष्यके हृदयमें अपने ही-सदृश भावोंके उदय होनेपर उसका बुरा चाहें या करें? हमें चाहिये कि अपनी भूलके लिये पश्चात्ताप करें और शुद्ध तथा सरल चित्तसे विनयपूर्वक उससे क्षमा-याचना करें। बार-बार क्षमा-याचना करनेपर यह सम्भव नहीं कि वह हमें क्षमा न कर दे। ऐसी अवस्थामें अभिमान और झूठी ऐंठ तथा अकड़को त्यागकर क्षमा-प्रार्थना करनी चाहिये।

यदि अच्छी तरह आत्मनिरीक्षण कर लेनेपर भी अपना कहीं कोई भी दोष न प्रतीत हो तो धीरतापूर्वक यह देखना चाहिये कि उस मनुष्यने उक्त कार्य किस परिस्थितिमें किया, उसकी नीयत हमें नुकसान पहुँचानेकी थी या किसी परिस्थितिमें पड़कर उसे बाध्य होकर ऐसा करना पड़ा है। यदि हम उसके-जैसी परिस्थितिमें होते तो क्या करते? इस जाँचसे यदि यह सिद्ध हो जाय कि उसने बुरी नीयतसे काम नहीं किया है, परिस्थिति ही उस कार्यका कारण है तो फिर हमें कोई अधिकार नहीं रह जाता कि हम उसपर क्रोध करें।

कदाचित् यही सिद्ध हो कि उसने जान-बूझकर हमें नुकसान पहुँचानेके लिये ही ऐसा किया है तो इससे यह निश्चय होता है कि वह भ्रममें है। जो मनुष्य किसी दूसरेकी हानि करना चाहता है, वह स्वयं अपनी ही हानि करता है, यह सिद्धान्त है। अतएव जो अपना नुकसान आप करता है वह भ्रममें पड़ा हुआ है—पागल है। भूला हुआ या पागल सर्वथा क्षमाका पात्र होता है। उसपर हमें क्रोध करनेका क्या अधिकार है? यदि हम उसपर क्रोध करते हैं तो न केवल अपना नुकसान करते हैं, वरं सारे जगत‍्को नुकसान पहुँचाते हैं। क्योंकि हम भी तो इस विश्व-शरीरके एक अंग हैं, यदि एक अंग विषसे दूषित हो जाता है तो सारे शरीरपर उसका प्रभाव पड़ता है और धीरे-धीरे समस्त शरीर विषसे आक्रान्त हो जाता है। ऐसी स्थितिमें अपने, उसके और जगत् भरके मंगलके लिये अपना अपकार करनेवालेपर क्षमा करना ही सर्वोत्तम साधन है। यदि मनुष्य-समाज इस सिद्धान्तको स्वीकार कर ले और इसके अनुसार बर्ताव करने लगे, यदि परस्परमें लोग एक-दूसरेके प्रति क्रोध या प्रतिहिंसाके भावसे काम लेनेके पूर्व इस प्रकारसे विचार कर लिया करें तो जगत् बड़े-बड़े अनर्थोंसे बच सकता है। फिर न तो जगत‍्में शान्ति-स्थापनके लिये जेनेवामें अन्ताराष्ट्रिय महासम्मेलनका खिलवाड़ करनेकी आवश्यकता रहती है और न नि:शस्त्रीकरणके दम्भपूर्ण प्रस्तावोंकी ही। जननाशक शस्त्रोंका और ध्वंसकारी जडविज्ञानका उपयोग आप-से-आप कम हो सकता है।

इस विवेचनसे कोई इस भ्रममें न पड़ जाय कि मैं कायरताको ही क्षमा कहता हूँ या वीरताकी आवश्यकता ही नहीं है। यह सदा स्मरण रखना चाहिये कि क्षमा बलवानों और वीरोंका ही धर्म है, कमजोर और कायर पुरुषोंका नहीं। जो जरा-सा शब्द सुनते ही काँप उठते हैं, एक घूँसे या लाठीके भयसे भागकर घरोंमें घुस जाते हैं या स्त्रियोंका स्वाँग सजकर भाग निकलते हैं; वे बेचारे क्या क्षमा कर सकते हैं? उनका हृदय तो सदा ही अनुतापकी आगसे जला करता है, ऐसे लोग क्षमाका मर्म कदापि नहीं समझते। क्षमा वही कर सकता है, जो बल-वीर्यसम्पन्न है और जो अपराधीको दण्ड देनेमें सर्वथा समर्थ है। दिल तो जलता है, मन-ही-मन शाप देते हैं, परंतु घरसे बाहर निकलनेका साहस नहीं। काम पड़नेपर सभाओंमें कहा जाता है कि हमने क्षमा कर दिया, यह तो क्षमाका उपहास है। क्षमा की थी अपने पुत्रोंको मार देनेवाले तपोधन विश्वामित्रपर महर्षि वसिष्ठजीने जो सब तरहसे दण्ड देनेमें समर्थ थे; परंतु वे इस बातको जानते थे कि मेरा, विश्वामित्रका और साथ-ही-साथ समस्त जगत‍्का मंगल क्षमा करनेमें ही है। यदि वसिष्ठ महाराज कहीं विश्वामित्रसे बदला लेना चाहते और दोनों ओरसे अपने-अपने तपका प्रयोग किया जाता तो न मालूम जगत‍्की क्या स्थिति होती?

क्षमामें प्रतिहिंसाको कहीं स्थान नहीं रहता। जबतक हृदयके किसी भी कोनेमें प्रतिहिंसाका जरा-सा भी अंकुर छिपा रहता है, तबतक क्षमाकी पूर्ण प्रतिष्ठा नहीं होती और जबतक क्षमाकी पूर्ण प्रतिष्ठा नहीं होती, तबतक अनिष्टकी आशंका बनी ही रहती है।

एक मनुष्यने दूसरेको गाली दी, बदलेमें उसने दे दी। दोनों बराबर हो गये, यह प्रतिहिंसाका प्रत्यक्ष रूप है। परंतु इसके कई सूक्ष्म या परोक्ष रूप भी हैं। बदलेमें गाली नहीं दी, डर गया या सभ्यताके अनुरोधसे वैसा नहीं किया, परंतु पुलिस-कोर्टमें फरियाद कर दी, इसमें प्रतिहिंसा ज्यों-की-त्यों रही। यद्यपि प्रतिहिंसा-साधनका यह तरीका पहलेसे कहीं अच्छा है। इसमें भी डरकर, पुलिसमें जानेकी अपेक्षा सभ्यताके लिहाजसे जाना और भी उत्तम है। बदलेमें गाली भी नहीं दी, पुलिसमें भी नहीं गया; परंतु उसके मुँहसे सहसा यह उद‍्गार निकल गया कि गाली देता है तो उसका मुँह गंदा होता है, परमात्मा तो सब देखते हैं, जो करेगा सो पावेगा। परमात्मा सबका न्याय करते हैं! इस उद‍्गारमें भी भय और शील दोनों ही कारण हो सकते हैं, दम्भ और अभिमान भी रह सकते हैं। यह भी प्रतिहिंसा-साधनका एक तरीका है। भय, दम्भ या अभिमानकी अपेक्षा शीलसे प्रेरित होकर जो ऐसा करता है वह उत्तम है; परंतु इसमें भी प्रतिहिंसा तो रहती ही है। वहाँ-यहाँ फरियाद नहीं करता, परमात्माके दरबारमें कर देता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वर्तमान कालमें इस भावके लोग भी बहुत ही कम पाये जाते हैं; परंतु इससे भी अधिक सूक्ष्मरूपसे हृदयमें प्रतिहिंसा छिपी रहती है, जिसका पता समयपर लगता है। जब दो-चार या दस-बीस साल बाद उस गाली देनेवालेपर कोई विपत्ति आती है, तब मुँहसे सहसा ऐसे शब्द निकल पड़ते हैं या तत्काल ही मनमें ऐसा भाव उत्पन्न हो जाता है कि ‘चलो अच्छा हुआ! इसने अमुक समय मुझे गाली दी थी, देर तो बहुत हुई पर कियेका फल तो इसे मिल गया।’ इस उद‍्गारका क्या अर्थ है? यही कि, वह उसको दण्ड भोगते हुए देखना चाहता था, नहीं तो यह भाव ही कैसे उत्पन्न होता! चाहे उसपर विपत्ति किसी भी कारणसे आयी हो; परंतु उसने तो उसका कारण अपनेको ही समझ लिया। वास्तवमें प्रतिहिंसाकी भावना अलक्ष्यरूपसे हृदयमें छिपी रहती है, जो समयपर विकसित हो उठती है। बड़े-बड़े लोग इस प्रकारसे परोक्षमें प्रतिहिंसाका पोषण किया करते हैं। ऐसा क्यों होता है? केवल क्षमाके अभावसे। यह स्मरण रखना चाहिये कि वैरकी भावना केवल इसी जीवनमें दु:खदायी नहीं होती; परंतु परलोकमें भी दु:ख देती है। वैरकी वासनाको साथ रखकर मरनेवाला न मालूम कितने कालतक प्रेतयोनिकी कठिन यन्त्रणाओंको भोगता है और स्थूल देहकी प्राप्तिके बाद भी न मालूम कितनी योनियोंमें उसे केवल वैरभावके कारण ही भटकना पड़ता है। क्षमा ही एक ऐसा साधन है जो इस दु:खसे मनुष्यको बचाता है, क्षमामें दुर्भावना और द्वेषका खाता चुकता कर दिया जाता है, यही तो अक्रोध और क्षमाका अन्तर है। अक्रोध निष्क्रिय साधन है और क्षमा सक्रिय। किसीके अपराधपर क्रोध न करना क्रियाको रोकना है; परंतु इससे अपने मनपर जो—दूसरेके अपराधको देखकर उसके प्रतीकार करनेकी एक कुत्सित छबि अंकित हो गयी थी वह नहीं मिटती। क्षमा इस विकृत छबिको धो डालती है। क्षमाके सामने क्रोध, हिंसा, द्वेष या वैर नहीं टिक सकते। क्षमा ऐसी बढ़िया साबुन है जो हृदयकी इन सारी कालिमाओंको और उसके मलको धोकर उसे सर्वथा स्वच्छ और निर्मल बना देती है। अक्रोधमें क्रिया तो नहीं होती; परंतु मल रह जाता है जो समयपर दु:ख भी पहुँचा सकता है।

एक महाजनके एक दूसरे मनुष्यमें एक हजार रुपये पावने हैं, वह आदमी रुपये नहीं देता, महाजनने अपनी सौजन्यतासे या पता लगाकर यह जान लेनेपर कि इसके पास रुपये नहीं हैं, उससे रुपयोंका तकाजा करना छोड़ दिया। वह उससे कभी रुपये नहीं माँगता, कभी उसे किसी प्रकारसे तंग नहीं करता; परंतु खातेमें रुपये उसके नाम ज्यों-के-त्यों लिखे हैं। महाजन अपने जीवनभर या जहाँतक उसका अधिकार रहता है, स्वयं उससे रुपये नहीं माँगता; परंतु खाते में नाम लिखे रहनेके कारण उसके उत्तराधिकारी उस मनुष्यसे रुपये माँग सकते हैं या उसपर नालिश करके रुपये वसूल कर सकते हैं। किन्तु यदि महाजन अपने हाथोंसे उन हजार रुपयोंको बट्टेखाते लिखकर उसका खाता चुकता कर दे तो फिर कोई कभी उससे रुपये नहीं माँग सकता। इसी प्रकार किसीके अपराध करनेपर उसपर क्रोध न करना रुपये न माँगनेके समान अक्रिय साधन है, परंतु इससे उसका पिण्ड नहीं छूटता। पक्षान्तरमें क्षमा कर देनेपर वह अपराधसे सर्वथा मुक्त हो जाता है, इसीलिये क्षमा सक्रिय साधन है और यही अक्रोध और क्षमाका भेद है। क्षमा करनेवाले महात्मा केवल अपराधको सहन ही नहीं करते, परंतु अपराधीकी भलाई भी करते हैं। वे जानते हैं कि यह भूला हुआ है और भूले हुएको मार्ग बतलाना मार्ग जाननेवालोंका स्वाभाविक कर्तव्य है। वे ईश्वरसे उसको सुबुद्धि प्रदान करनेके लिये प्रार्थना करते हैं।

भक्तराज काकभुशुण्डिजीने किसी पूर्वके मनुष्य-जन्ममें एक बार गुरुका अपमान किया था। यह स्मरण रखना चाहिये कि गुरुजनोंका अपमान एक बड़ा अपराध है और गुरुजनोंकी सेवा एक बड़ा पुण्यकार्य है। गुरुजनोंके अपराधीको देवताओंसे अभिशाप और उनके सेवकको आशीर्वाद प्राप्त होता है। अतएव भगवान् शिवजी उनके द्वारा किये हुए गुरुके अपमानको सहन नहीं कर सके। यद्यपि वे शिवजीके भक्त थे, परंतु गुरु-अपमानकी गुरुताका खयालकर भगवान् शिवजीने उन्हें कठोर शाप दे दिया।

भगवान् शिवजीने कहा—

जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा।
अति कृपाल चित सम्यक बोधा॥
तदपि साप सठ दैहउँ तोही।
नीति बिरोध सोहाइ न मोही॥
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा।
भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा॥
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं।
रौरव नरक कोटि जुग परहीं॥
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा।
अयुुत जन्म भरि पावहिं पीरा॥
बैठि रहेसि अजगर इव पापी।
सर्प होहि खल मल मति ब्यापी॥
महा बिटप कोटर महुँ जाई।
रहु अधमाधम अधगति पाई॥
(रामचरितमानस)

गुरु बड़े क्षमाशील थे, उन्हें जरा-सा भी क्रोध नहीं था, अपने अपमानका तो उन्हें कोई ध्यान ही न था; परंतु शिवजीके भयानक शापको सुनकर उनका चित्त बड़ा सन्तप्त हुआ, हृदय द्रवित हो गया। आँखोंसे आँसू बहने लगे। काकभुशुण्डिजीने श्रीगरुड़जीसे अपने पूर्वजन्मकी कथा सुनाते हुए कहा है—

हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप।
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप॥
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि॥
(रामचरितमानस)

गुरुजी महाराज शिवजीका कठोर शाप सुनकर और मुझे काँपता हुआ देखकर हाहाकार करने लगे, उनके हृदयमें बड़ा खेद हुआ, मेरी बुरी गति समझकर वे सप्रेम शिवजीको दण्डवत्-प्रणाम कर गद‍्गदवाणीसे मेरे लिये विनय करने लगे।

कितना विशाल हृदय है! अपना अपमान करनेवालेको जब दण्ड मिलता है तब स्वाभाविक ही मनुष्यको कुछ संतोष-सा होता है; परन्तु क्षमाशील अक्रोधी ब्राह्मण प्रसन्न नहीं होता वरं बड़ा दु:खी होता है। आजकलकी प्रतिहिंसामयी संस्कृतिके वातावरणमें तो ऐसे महापुरुषोंको शायद मूर्खोंकी श्रेणीमें गिना जाय! परन्तु वास्तवमें यह भ्रम है। क्षमा सदा ही ऊँची है और ऊँची रहेगी। अवश्य ही उसका उपयोग उचित स्थान और समयपर ही होना चाहिये। दुर्बलचेता, अजितेन्द्रिय, क्षीणबल और हीनवीर्य पापात्मा लोग क्षमा नहीं कर सकते। वे लोग क्षमाके नामपर जो कुछ किया करते हैं, वह या तो निरा ढोंग होता है या कायरताका निर्लज्जतापूर्ण अभिनय! परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिये कि दुर्बलचेता लोग क्षमाका आदर्श ही छोड़ दें। सबको चाहिये कि बल, वीर्य और संयमकी वृद्धि करते हुए क्षमाका आदर्श सदा-सर्वदा अपने सामने रखें।

एक समय महर्षि भृगु भगवान् शिव और ब्रह्माके समीपसे होते हुए वैकुण्ठमें भगवान् विष्णुके पास गये। भगवान् उस समय श्रीलक्ष्मीजीकी गोदमें मस्तक रखे लेट रहे थे। भृगुजीने जाते ही भगवान‍्के वक्ष:स्थलपर जोरसे लात मारी। भगवान् उठे और भृगुजीके चरण पलोटते हुए बोले, ‘महाराज! मेरी छाती बड़ी कठोर है, आपके अत्यन्त कोमल चरणोंमें बड़ी चोट लगी होगी। भगवन्! मुझे क्षमा कीजिये, आपके चरण-चिह्नको मैं सदा आभूषणके समान हृदयमें रखूँगा।’

भृगुजी तो भगवान् विष्णुका यह व्यवहार देखकर दंग रह गये। भगवान् चाहते तो भृगुजीको कड़े-से-कड़ा दण्ड दे सकते थे। परंतु उन्होंने मुनिके पदकमल पलोटकर केवल भृगुजीके हृदयपर ही नहीं वरं जगत‍्के इतिहासपर एक ऐसी छाप लगा दी जो क्षमाको सर्वदा ऊँचा बनाये रखेगी।

लोग समझते हैं कि क्षमासे उद्दण्डता बढ़ जाती है, परंतु यह बात ठीक नहीं है। क्षमाका पूरा प्रयोग ही नहीं होता, प्रतिहिंसाकी वृत्तियाँ नाश ही नहीं हो पातीं, यदि कोई प्रतिहिंसाको सर्वथा त्यागकर अपने अपराधीके प्रति क्षमा करने लगे तो दो-चार बारके प्रयोगसे ही वह स्वयं लज्जित होकर सदाके लिये दब जायगा। क्षमाके बर्तावसे हृदयका उपकार और कृतज्ञतासे भर जाना कोई बड़ी बात नहीं है।

क्षमाके बलपर ही भारतके महर्षियोंने विश्वप्रेमका प्रचार किया था और इसीके बलपर वे अपना जीवन शान्ति और सुखके साथ बिता सकते थे।

भगवान् मनुने कहा है—

क्रुद‍्ध्यन्तं न प्रतिक्रुद्‍ध्येदाक्रुष्ट: कुशलं वदेत्।

‘क्रोध करनेवालेपर क्रोध नहीं करना चाहिये, दुर्वचन कहनेवालेको भी आशीर्वाद देना चाहिये।’

नवद्वीपमें माधव नामक एक दुराचारीने प्रेममूर्ति श्रीनित्यानन्दजीपर प्रहार किया, उनके मस्तकसे रुधिर बहने लगा। श्रीश्रीचैतन्य महाप्रभुने उसे दण्ड देनेका विचार किया, पर नित्यानन्दजी रोने लगे, इसलिये नहीं कि महाप्रभु उसे शीघ्र दण्ड क्यों नहीं देते? इसलिये कि उसे दण्ड क्यों दिया जाता है? उन्होंने कहा—‘प्रभो! इस भूले हुए जीवपर दया कीजिये और इसका उद्धार कीजिये।’ श्रीनित्यानन्दजीके वचनोंसे महाप्रभुका कोप शान्त हो गया; माधव और उसके भाई जगन्नाथके हृदयपर प्रेमकी मुहर लग गयी, उनका जीवन बदल गया, दोनोंने पाप छोड़ दिये, श्रीमहाप्रभुके अनुग्रहसे दोनोंका उद्धार हो गया। यह है क्षमा! क्षमा द्वेषाग्निमें पानीका काम करती है और क्रोध या प्रतिहिंसा घृतका। अतएव प्रत्येक मनुष्यके लिये, कम-से-कम मुमुक्षुके लिये तो क्रोध और प्रतिहिंसाका त्याग और क्षमाका ग्रहण करना परम कर्तव्य है।

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