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इन्द्रियनिग्रह

मानव-धर्मका छठा लक्षण इन्द्रियनिग्रह है। इन्द्रियोंको किसी भी बुरे विषयकी ओर न जाने देना और सदा उनको अपने वशमें रखकर कल्याणकारी विषयोंमें लगाये रखना इन्द्रियनिग्रह कहलाता है। मनु महाराज कहते हैं—

इन्द्रियाणां प्रसंगेन दोषमृच्छत्यसंशयम्।
संनियम्य तु तान्येव तत: सिद्धिं नियच्छति॥
(२। ९३)

‘इन्द्रियोंको विषयोंमें लगानेसे मनुष्य निस्संदेह दोषको प्राप्त होता है; परंतु उन्हीं इन्द्रियोंको भलीभाँति वशमें कर लेनेसे उसे परम सिद्धिकी प्राप्ति हो सकती है।’ जो इन्द्रियोंके वशमें रहता है वह स्वयं भी अनेक प्रकारके पापोंमें फँसकर भाँति-भाँतिके दु:ख उठाता है और दूसरोंको भी दु:ख देता है। स्वयं सदा भयभीत रहता है और दूसरे लोग भी हिंसक जन्तुकी भाँति उससे डरते रहते हैं, क्योंकि इन्द्रिय-लोलुप बुरे-से-बुरा काम भी करनेमें नहीं हिचकता। जहाँतक इन्द्रियोंका दमन नहीं होता वहाँतक पापोंसे बचना बहुत ही कठिन होता है। अतएव सुख चाहनेवाले प्रत्येक स्त्री-पुरुषको इन्द्रियदमन करना चाहिये, जो लोग भगवत्-प्राप्तिका परम सुख पाना चाहते हैं; उनके लिये तो इन्द्रियनिग्रह एक अत्यन्त आवश्यक कर्तव्य है।

इन्द्रियाँ पाँच हैं—श्रवण (कान), त्वचा (चमड़ी), चक्षु (आँख), रसना (जीभ), नासिका (नाक)। इनके पाँच ही विषय हैं— शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। इनके सिवा छठा कोई ऐसा विषय नहीं है जो इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किया जा सके। इन्द्रियाँ शरीरके कान, नाक आदि अंगोंका नाम नहीं है। उन गोलकोंमें जो शक्ति है उसीको इन्द्रिय कहते हैं। इन पाँच ज्ञानेन्द्रियोंकी सहायता करनेवाली पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं—हाथ, पैर, वाणी, गुदा और उपस्थ (लिंग और योनि)। इन दसों इन्द्रियोंमें रसना (ज्ञानेन्द्रिय) और वाणी (कर्मेन्द्रिय) दोनोंका स्थान एक जीभ ही है। कर्मेन्द्रियोंकी अपेक्षा ज्ञानेन्द्रियाँ श्रेष्ठ और सूक्ष्म हैं।

ज्ञानेन्द्रियोंका निग्रह करनेसे कर्मेन्द्रियोंका दमन आप ही हो जाता है। इन्द्रियाँ निरन्तर मनको विषयोंमें लगाती रहती हैं, पाँचोंमेंसे किसी एक भी इन्द्रियके विषयमें आसक्त होनेसे ही बड़ा अनर्थ हो जाता है, तब जो लोग इन पाँचोंके विषयमें आसक्त हैं उन अविवेकियोंके पतनमें तो शंका ही क्या है?

एक-एक विषयकी आसक्तिसे किस प्रकार नाश होता है इसका पता इस प्रचलित दृष्टान्तसे लग सकता है—

एक एक इन्द्रियबिषय लोलुप मीन मतंग।
मरत तुरंत अनाथ सम भृंग कुरंग पतंग॥

शब्द—हरिणको वीणाका सुर बहुत प्यारा लगता है। व्याधलोग जंगलमें जाकर बड़े मीठे सुरोंमें वीणा बजाते हैं। वीणाकी सुरीली तान सुनते ही हरिण चारों ओरसे आकर उसके आस-पास खड़े हो जाते हैं और सब कुछ भूलकर उसीमें तन्मय हो जाते हैं। इस अवस्थामें पारधी उन्हें मार डालता है। यह एक कर्ण-इन्द्रियके विषयमें आसक्त होनेका फल है।

स्पर्श—हाथियोंको पकड़नेवाले लोग गहरे गड्ढेके ऊपर बाँसका कमजोर मचान रखकर उसपर मिट्टी बिछा देते हैं और उसपर एक कागजकी हथिनी खड़ी कर देते हैं। हाथी काम-मदसे मतवाला होकर उसे स्पर्श करनेको दौड़ता है। मचानपर आते ही उसके भारी बोझसे मचान टूट जाती है और हाथी तुरंत गड्ढेमें गिर पड़ता है। तब लोहेकी मजबूत जंजीरसे लोग उसे बाँध लेते हैं। वनमें निर्भय विचरनेवाला बलवान् गजराज एक स्पर्श-इन्द्रियके विषयमें आसक्त होनेके कारण सहजहीमें अनाथकी तरह बँध जाता है।

रूप—दीपककी ज्योतिको देखकर पतंग मोहित हो जाता है। हजारों पतंग दीपककी लौमें पड़कर जल रहे हैं, इस बातको वह देखता है; परंतु रूपकी आसक्ति उसे दीपककी तरफ जबरदस्ती खींच लाती है। बेचारा दीपकमें जलकर प्राण खो देता है।

रस—मछली जीभके स्वादके कारण जलसे बिछुड़कर मरती है। मछली पकड़नेवाले लोग बंसी-काँटेमें मांसका टुकड़ा या आँटेकी गोली लगा देते हैं। मछली उसका रस चखनेके लिये मतवाली-सी होकर दौड़ती है और पास आकर ज्यों ही काँटेपर मुँह मारती है त्यों ही मछली पकड़नेवाला रस्सीका झटका देता है, जिससे काँटा तुरंत ही मछलीके मुखमें बिंध जाता है और इस तरह वह मर जाती है।

गन्ध—भ्रमर सुगन्धका बड़ा लोभी होता है। वह कमलके अंदर जाकर बैठ जाता है और उसकी सुगन्धमें आसक्त होकर सारी सुध-बुध भूल जाता है। सूर्य अस्त होनेपर जब कमलका मुख बंद हो जाता है, भ्रमर उसीके अंदर कैद हो जाता है। जो भ्रमर मजबूत-मजबूत काठमें छेद कर सकता है, वही सुगन्धकी आसक्तिसे कमलके कोमल पत्तोंको काटकर बाहर निकलनेमें समर्थ नहीं होता। रातको हाथी आकर कमलको उखाड़ लेता है। हाथीके दाँतोंमें कमलके साथ-साथ भ्रमर भी पिस जाता है। यह दशा एक नासिकाके विषयमें आसक्त होनेपर होती है।

तब फिर क्या किया जाय? इन्द्रियोंका तो काम ही विषयोंको ग्रहण करना है। जबतक इन्द्रियाँ हैं तबतक यह कार्य बराबर चलता है। आँखें रूप ही देखती हैं। कानोंमें शब्द आते ही हैं। नाकसे गन्धका ग्रहण होना नहीं रुकता। कहीं भी खड़े या बैठे रहो, किसी चीजका स्पर्श होता ही है। कुछ भी खायँ, जीभको स्वादका पता लगता ही है। इन्द्रियोंका नाश तो हो नहीं सकता, यदि हठवश नाश किया जाय तो जीवन बितानेमें बड़ी कठिनाई होती है, एक भी इन्द्रियका अभाव बड़ा दु:खदायी होता है। अंधे, बहरे और गूँगे मनुष्यको कितनी अड़चन होती है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

इसका उत्तर यह है कि इन्द्रियोंके नाशकी आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता तो उनके बने रहनेकी ही है। ईश्वरने दया करके इन्द्रियाँ हमारे सुभीते और लाभके लिये ही हमें दी हैं। संयमपूर्वक उनका सदुपयोग करनेसे ही यथार्थ लाभ हो सकता है। यह हमारी ही भूल है कि हम विषयासक्तिसे उनका दुरुपयोग कर बार-बार कष्ट उठाते हैं। किस इन्द्रियकी क्यों आवश्यकता है, किससे कौन-सा कार्य नहीं करना चाहिये और कौन-सा करना चाहिये; इस विषयकी जानकारीके लिये कुछ विचार किया जाता है।

कान—

आवश्यकता—कानसे ही शब्दका ज्ञान होता है। बहरा मनुष्य अच्छी बातें, महात्मा पुरुषोंके उपदेश और व्यवहारकी आवश्यक बातें नहीं सुन सकता, जिससे उसकी लौकिक और पारलौकिक उन्नतिमें बड़ी बाधा आती है। चोर-डकैत या पशु-पक्षीकी आहट सुनकर उनसे बचना भी कान होनेसे ही सम्भव है।

क्या नहीं करना चाहिये—अपनी बड़ाई न सुने, (इससे अहंकार बढ़ता है) दूसरोंकी निन्दा न सुने, (इससे घृणा, द्वेष, क्रोध और वैर आदि दोष अपने मनमें पैदा होते हैं, दूसरोंके पापके संस्कार मनपर जमते हैं)। परचर्चा—फालतू बात न सुने, (इससे समय नष्ट होता है, निन्दा-स्तुतिको जगह रहती है, अपने मुँहसे झूठे शब्द निकल सकते हैं और घरका काम बिगड़ता है)। ईश्वर, देवता, गुरु, संत और शास्त्रोंकी निन्दा न सुने, (इससे अश्रद्धा होती है, अविश्वास बढ़ता है, नास्तिकता आती है, पाप लगता है, साधन बिगड़ता है)। वेश्याओंके गायन, अश्लील गीत, शृंगाररसकी गंदी कविता, धमाल, नाटकों और खेलोंके बुरे गायन, स्त्री-सम्बन्धी बातें, गंदे नाटक, उपन्यासादि न सुनें, (इनसे मनमें विकार होता है; ब्रह्मचर्यका नाश होता है, मनकी चंचलता बढ़ती है, विलासिता आती है, धनका नाश होता है; व्यभिचारकी सम्भावना हो जाती है; भगवान्, धर्म, देश और जाति तथा कुटुम्बकी सेवाके कार्योंसे मन हट जाता है)। अपनेसे द्वेष रखनेवालेकी चर्चा न सुनें, (इससे वैर बढ़ता है) दूसरोंके भोगोंकी बातें न सुनें, (इससे लोभ बढ़ता है)।

क्या करना चाहिये—व्यवहार-बर्तावकी अच्छी बातें सुनना, भगवान् का नाम, गुण और उनकी लीला-कथाएँ सुनना; सत्संगमें भक्ति, ज्ञान-वैराग्य, सदाचार-सद्‍व्यवहारकी बातें सुनना; अपने दोष और दूसरोंके अनुकरण करनेयोग्य गुण सुनना; ईश्वर-भक्ति, त्याग, वीरता और देश-भक्तिके सुन्दर गायन सुनना; महात्मा पुरुषोंका उपदेश सुनना और सद‍्गुरुसे परमात्माका गूढ़ तत्त्व सुनना आदि। स्मरण रखना चाहिये कि वेदान्त और भक्तिमें पहला साधन श्रवण ही है।

त्वक् (चमड़ी)—

आवश्यकता—गरम, ठण्डे, कड़े, कोमल पदार्थोंकी पहचान इसीसे होती है। यह इन्द्रिय न हो तो पहचाननेकी शक्तिके अभावसे मनुष्यका आगमें जलना, पानीमें गलना, काँटोंसे छिद जाना और कीड़े-मकोड़ोंसे काटा जाना बहुत आसान होता है। इसके बिना संसारमें काम चलना बड़ा कठिन होता है।

क्या नहीं करना चाहिये—पर-स्त्रीका स्पर्श पुरुष और पराये पुरुषका स्पर्श स्त्री न करे, (इससे कामोद्दीपन होता है, व्यभिचार बढ़ता है)। कोमल गद्दे, तकिये, बिछौने, गलीचे आदिका सेवन भरसक न करे, (इससे आरामतलबी और आसक्ति बढ़ती है, अकर्मण्यता आती है) रेशमी, विदेशी या मिलके बने हुए वस्त्र न पहने (रेशम लाख जीवोंकी हिंसासे बनता है, विदेशी वस्त्रोंके सेवनसे देशका धर्म, धन और जीवन नाश हो रहा है। गरीबोंके मुँहका टुकड़ा छिनता है, पवित्रता नाश होती है, मिलोंके कपड़ोंसे भी पवित्रताका नाश और गरीबोंकी हानि होती है। महीन वस्त्रोंसे लज्जा जाती है, खर्च बढ़ता है, बाबूगिरी आती है)।

यह इन्द्रिय बड़ी प्रबल है। बहुत-से भाई-बहिन पाप समझकर विदेशी महीन वस्त्र इसीलिये पहनते हैं कि उनकी चमड़ीको मोटा वस्त्र सुहाता नहीं। स्पर्श-सुखकी इच्छा बड़े-बड़े लोगोंको पथभ्रष्ट कर देती है। रावणके विशाल साम्राज्य और बड़े कुलके सर्वनाशमें यही इन्द्रिय एक प्रधान कारण मानी जाती है। नहुषका इन्द्रपदसे पतन इसी इन्द्रियके कारण हुआ। अनेक बड़े-बड़े युद्धोंमें यही इन्द्रिय कारण थी, मुसलमानोंका पतन प्राय: इसी इन्द्रियकी विशेष लोलुपताके कारण हुआ। और भी अनेक उदाहरण हैं। स्त्रीके लिये पुरुषका और पुरुषके लिये स्त्रीका अंग-स्पर्श मोहसे बड़ा सुखदायी मालूम हुआ करता है; परन्तु धर्म और स्वास्थ्यरूपी सुन्दर नगरको उजाड़नेके लिये यह स्पर्शसुख एक भयंकर शत्रु है।

क्या करना चाहिये—शीत-उष्ण और कंकड़-पत्थर आदिसे यथायोग्य बचना, कर्तव्यकी दृष्टिसे पुरुषके लिये अपनी विवाहिता स्त्रीका और स्त्रीके लिये विवाहित पतिका धर्मयुक्त मर्यादित स्पर्श करना, भगवान् की मूर्ति और संत, माता, पिता, गुरु आदिके चरणस्पर्श करना, श्रीगंगाजलका स्पर्श करना, गरीब, दीन-दु:खियोंकी सेवाके लिये उनके अंगोंका स्पर्श करना और शुद्ध मोटे वस्त्र पहनना आदि।

आँख—

आवश्यकता—आँख न हो तो परस्परमें लोग भिड़ जायँ, राह चलना कठिन हो जाय, गड्ढोंमें गिर जायँ, पत्थरोंसे टकरा जायँ, दीवालोंसे टकरा जायँ; संसारका प्राय: कोई काम ठीक सम्पन्न न हो, संत-महात्मा और भगवान् की मूर्तियोंके दर्शन न हों, प्रकृतिके पदार्थ कुछ भी देखनेको न मिलें। शास्त्रोंका—सद‍्ग्रन्थोंका अवलोकन होना असम्भव हो जाय; इन्हीं सब जीवनके आवश्यक कार्योंके लिये नेत्र-इन्द्रियकी बड़ी आवश्यकता है।

क्या नहीं करना चाहिये—स्त्रियाँ पुरुषोंके और पुरुष स्त्रियोंके रूपको बुरी दृष्टिसे न देखें। जहाँतक हो सके, पर-पुरुष और पर-स्त्रीके अंग देखनेकी चेष्टा ही न की जानी चाहिये, (इससे कामोद्दीपन होकर ब्रह्मचर्यका नाश होता है) बुरे नाटक, सिनेमा, खेल, तमाशे, नाच-रंग न देखे, (इससे व्यर्थ धन खर्च होता है, मनमें बुरे भाव पैदा होते हैं, कुसंगकी आदत पड़ती है, ब्रह्मचर्यका नाश होता है।) मनको लुभाने-वाले पदार्थ और घटनाएँ न देखें। गंदी चेष्टाएँ कदापि न देखें। (महामुनि सौभरि मछलियोंकी कामक्रीड़ा देखकर ही प्रपंचमें फँसे थे। ब्राह्मणकुमार अजामिल क्षणभरके कामप्रसंगको देखकर ही महापापी बन गया था।) परायी नयन-लुभावनी चीजें न देखें, (इससे मनमें कामना उत्पन्न होती है, लोभ बढ़ता है, जलन और दु:ख होता है।) किसीकी चमकीली-भड़कीली पोशाक, टेढ़े-मेढ़े बाल और टेढ़ी चाल लोलुपतासे न देखें (इससे मोह पैदा होकर पतनका कारण होता है। बुरे भाव बहुत जल्दी ग्रहण किये जाते हैं)।

क्या करना चाहिये—भगवान्, भक्त और संतोंका दर्शन करना, भगवल्लीलाओंका देखना, सत्शास्त्रों और सत्स्थानोंका देखना। भक्ति, प्रेम, वैराग्य और वीरता उत्पन्न करनेवाले चित्रोंका देखना, मार्ग देखकर चलना, यथायोग्य व्यवहारके लिये जगत‍्के पदार्थोंका अलोलुप दृष्टिसे निरीक्षण करना।

जीभ—

ज्ञानेन्द्रियके नाते—

आवश्यकता—इससे खट्टे, कड़वे, रूखे पदार्थोंका पता लगता है, यह न हो तो खाद्य पदार्थोंके स्वादसे उनके गुणका पता न लगे, मनुष्य मीठा-ही-मीठा या नमक-ही-नमक खाकर बहुत जल्दी मर जाये।

कर्मेन्द्रियके नाते—

मनुष्यके लिये सबसे प्रधान साधन वाणी है। वाणीसे ही मनुष्यका पता लगता है। प्राय: वाणी ही मनुष्यको ऊँचा-नीचा, गुणी-दुर्गुणी, साधु-नीच और भला-बुरा साबित करती है। वाणीका कार्य जीभसे होता है, अत: इसकी बड़ी आवश्यकता है।

ज्ञानेन्द्रियकी हैसियतसे—

क्या नहीं करना चाहिये—खट्टे, मीठे, चरपरे पदार्थोंके स्वादमें नहीं फँसना चाहिये (इससे चटोरपन बढ़ता है, चटोरोंकी बड़ी दुर्गति होती है)। बहुत-से लोग इसी कारण धर्मभ्रष्ट और दु:खी होते हैं। धर्म और स्वास्थ्यको भुलाकर चाहे जहाँ, चाहे सो खाना, पीना इसी इन्द्रियके कारण होता है। रोगी मनुष्य इसी इन्द्रियकी आसक्तिके कारण वैद्यकी आज्ञाके विरुद्ध कुपथ्य कर मृत्युको बुला लेते हैं। इसी इन्द्रियके कारण देवताओंतकके लिये बनी हुई रसोई भी पहले जूँठी कर दी जाती है। चटोरपनसे चोरीकी आदत पड़ती है। मीठा खानेकी आसक्तिसे मधुमेह और कृमिकी बीमारी, नमकीन तथा खट्टेकी आसक्तिसे वीर्यक्षयकी बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। बासी, तीखे, सड़े हुए (बड़े-अचार आदि) पदार्थोंकी आसक्तिसे तरह-तरहकी बीमारियाँ होती हैं और तामसिकता बढ़ती है। मद्य, मांस, डॉक्टरी दवाएँ और अपवित्र पदार्थोंका खान-पान न करे (इससे धर्म, धन, स्वास्थ्य, बुद्धि सबका नाश होता है।) चोरी, अन्यायका अपवित्र अन्न न खाय (इससे बुद्धि बिगड़ती है। महाराज भीष्मतककी बुद्धि बिगड़ गयी थी। तमोगुणी बुद्धिसे तमोगुणी कार्य होते हैं और इससे उसका पतन हो जाता है)।

कर्मेन्द्रियकी हैसियतसे—

कड़वा न बोले,(इससे दूसरोंकी आत्माको बड़ा दु:ख पहुँचता है, वैर बढ़ता है।) किसीकी निन्दा या चुगली न करे, (इससे दूसरोंके पापोंका हिस्सा मिलता है। घृणा, द्वेष, वैर, क्रोध, हिंसा आदि दोष पैदा होते हैं। पराया और अपना नुकसान होता है। मामले-मुकद्दमे लग जाते हैं और पापोंके चित्र हृदयपर अंकित होते हैं।) अपनी बड़ाई न करें, (इससे पुण्यका नाश होता है।) खुशामदपसंदगी आती है। अपना दान और परोपकार प्रकट न करे, (इससे उस पुण्यका नाश होता है। महाराज ययाति अपने दान-पुण्यका कथन अपने मुँहसे करनेके कारण ही पुण्योंके नाश होनेसे स्वर्गसे गिरा दिये गये थे।) किसीकी खुशामद न करे, (इससे झूठ बोलनेकी और चापलूस बननेकी आदत पड़ जाती है, तेज घट जाता है।) परचर्चा या फालतू बातें न करे, (इससे समय नष्ट होता है। झूठे शब्द निकलने लगते हैं। व्यर्थ निन्दास्तुति होती है। अनावश्यक संस्कार मनपर जमते हैं, पराये छिद्र देखनेकी आदत पड़ जाती है।) मिथ्या न बोले, (इससे प्राय: समस्त धर्मोंका नाश होता है, विश्वास चला जाता है, वाणीका तेज घट जाता है।) ताना न मारे, आक्षेप न करे, किसीकी अंगहीनता या कर्महीनताका दोष बताकर अर्थात् तू अन्धा है, बहरा है, कोढ़ी है, पापी है, तू राँड है आदि शब्दोंसे सम्बोधन न करे, (इससे सुननेवालेके चित्तमें बड़ा दु:ख होता है।) अपशब्द न बोले, अश्लील न बोले, शृंगारके गाने न गावे, कामोद्दीपक शब्द न बोले, (इससे वीर्यनाश होकर अध:पतन होता है।) किसीसे अपने लिये कुछ भी न माँगे, (इससे तेज घटता है। माँगनेवाला लोगोंकी दृष्टिसे गिर जाता है, मानका नाश होता है।) हरि, गुरु, शास्त्र, संत, माता-पिता, गुरु-जनोंकी दोषचर्चा न करे (इससे अश्रद्धा, अविश्वास, धृष्टता और उच्छृंखलता बढ़ती है)।

ज्ञानेन्द्रियकी हैसियतसे—

क्या करना चाहिये—वस्तुओंके गुण-दोष पहचानकर जो वस्तु धर्म और स्वास्थ्यके अनुकूल हो तथा आयु, सत्त्व, बल, आरोग्यता, सुख और प्रीति आदिको बढ़ानेवाली हो, सात्त्विक हो, जिसके सेवनसे बुद्धि सात्त्विक हो सके ऐसी वस्तु सेवन करे। भगवान‍्के प्रसादका भोग लगावे, गंगाजल आदि पान करे—भगवान् का चरणामृत ले।

कर्मेन्द्रियकी हैसियतसे—

सत्य, मीठे, हितकारी, उद्वेग न करनेवाले, सीधे और प्यारे वचन बोले, नम्रतासे बोले, भगवान् का नाम, गुण, जप-कीर्तन करे, अपने दोष और दूसरोंके अनुकरणीय गुणोंको प्रकट करे तथा थोड़ा बोले। ऐसी बातें कहे जिनसे दूसरोंके चित्तमें प्रसन्नता हो, सुनने और माननेमें सुख पहुँचे, इहलोक और परलोकमें कल्याण हो।

नासिका—

आवश्यकता—नासिका गन्धके लिये है। यह न हो तो मनुष्य गंदी जगह रहकर और गंदी वस्तुओंका सेवनकर बीमार हो जाय। अच्छे पुरुषोंको और देवताओंको गन्दी वस्तुएँ प्रदान कर उनके अपमानका कारण बने। इन्हीं सब अभावोंकी पूर्तिके लिये नाककी आवश्यकता है।

क्या नहीं करना चाहिये—अतर, फुलेल, एसेंस, सेंट आदिकी गन्धमें आसक्त न होवे, (इससे विलासिता बढ़ती है। बुरी आदतें पड़ती हैं, धन और धर्म जाता है। उस सुगन्धको पाकर दूसरे लोगोंकी भी वैसी ही इच्छा होती है। पैसे नहीं होनेसे वे चोरी करते हैं, अत: शौकीनीके लिये इनका व्यवहार करनेवाले खुद डूबते हैं और दूसरोंको डुबोते हैं।) अनावश्यक माला, फूल इत्यादि धारण नहीं करना चाहिये (इससे भी आसक्ति बढ़ती है)।

क्या करना चाहिये—स्वास्थ्यके लिये दुर्गन्धका त्याग करना चाहिये, धूप, धूने आदिकी और यज्ञकी सुगन्ध लेनी चाहिये, भगवान‍्के प्रसाद, तुलसी आदिकी सुन्दर गन्ध ग्रहण करनी चाहिये।

इस प्रकार सोच-समझकर इन्द्रियोंका सदुपयोग करना यानी विषयोंमें आसक्त न होकर उनका उचित व्यवहार करना चाहिये। जबतक इन्द्रियाँ हैं, तबतक उनका विषयोंमें लगे रहना अनिवार्य है; अतएव उन्हें आत्माको गिरानेवाले, लोक-परलोक बिगाड़नेवाले निन्दित विषयोंमें न लगाकर सद्विषयोंमें लगाना चाहिये। यही इन्द्रियनिग्रह है। अग्निसे भोजन बनता है, शीत निवारण होता है और रोगके परमाणु नाश होते हैं, अग्नि कोई बुरी चीज नहीं है, बुरा है उसका दुरुपयोग। दुरुपयोग करनेसे हाथ-पैर जल जाते हैं; घर-द्वार स्वाहा हो जाते हैं। ठीक यही हाल इन्द्रियोंका है। इसलिये इन्द्रियोंके गुलाम न बनकर उन्हें अपने वशमें करना चाहिये। वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा यथोचित व्यवहार करनेसे चित्तकी शुद्धि होती है। भगवान् कहते हैं—

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
(गीता २। ६४)

‘स्वाधीन अन्त:करणवाला पुरुष राग-द्वेषरहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंद्वारा विषयोंका व्यवहार कर चित्तके प्रसादको प्राप्त होता है। परंतु इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल हैं।’ इसीलिये भगवान् ने कहा है—

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:॥
(गीता २। ६०)

‘हे अर्जुन! यत्नशील बुद्धिमान् पुरुषके मनको भी ये प्रमथन स्वभाववाली इन्द्रियाँ बलात् हर लेती हैं।’ मनु महाराज कहते हैं—

इन्द्रियाणां तु सर्वेषां यद्येकं क्षरतीन्द्रियम्।
तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृते: पादादिवोदकम्॥
(२। ९९)

‘जलकी बखालमेंसे जैसे एक छिद्र हो जानेसे जल निकल जाता है, उसी प्रकार सब इन्द्रियोंमेंसे यदि एक इन्द्रिय भी विषयमें आसक्त हो जाय तो उसके द्वारा बुद्धि नष्ट हो जाती है।’

इसलिये विषय-भोगोंमें दु:ख और दोष देख-देखकर इन्द्रियोंको उनसे हटाना और उन्हें उत्तम, आवश्यक तथा कल्याणमय कर्तव्य-कर्मोंमें सदा लगाना चाहिये। इसीको इन्द्रियका वशमें करना कहते हैं।

भगवान् कहते हैं—

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

‘जिस पुरुषकी इन्द्रियाँ वशमें होती हैं उसीकी बुद्धि स्थिर होती है।’ परंतु स्मरण रखना चाहिये, केवल जबरदस्ती विषयोंसे रोकनेसे ही इन्द्रियाँ वशमें नहीं होतीं। मनु महाराज कहते हैं—

न तथैतानि शक्यन्ते संनियन्तुमसेवया।
विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यश:॥
(२। ९६)

‘विषयासक्त इन्द्रियाँ (विषय और शरीर नाशवान् और क्षणभंगुर हैं, एक परमात्मा नित्य सत्य है, इस प्रकारके) नित्य विवेकसे जैसे वशमें होती हैं, केवल विषयोंके त्यागसे वैसे वशमें नहीं होतीं।’

इन्द्रियनिग्रहके बारह उपाय

(१) भोगोंकी क्षणभंगुरताका नित्य विचार करना।

(२) भोगोंके दोष और दु:खोंको देखते रहना।

(३) परमात्माकी नित्यताका मनन करना।

(४) परमात्माकी प्राप्तिके परम सुखकी सदा कल्पना करना।

(५) भगवन्नामका जप करना।

(६) सर्वदा अच्छे कामोंमें लगे रहना।

(७) एकान्तमें निकम्मा न रहना।

(८) सत्पुरुषोंका संग और सत्-शास्त्रोंका अध्ययन करना।

(९) सात्त्विक पदार्थ खाना।

(१०) जब इन्द्रिय किसी विषयकी ओर झुके तब उसमें अकस्मात् प्रवृत्त नहीं होना। कुछ ठहर जाना, उसका नतीजा सोचना।

(११) व्यायाम और योगके आसनोंका अभ्यास करना।

(१२) परमात्माकी नित्य स्तुति करना।

इन साधनोंसे इन्द्रियनिग्रहमें बड़ी सहायता मिलती है। शेषमें वह जितेन्द्रिय हो जाता है। जितेन्द्रिय पुरुषके लक्षण ये हैं—

श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नर:।
न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रिय:॥
(मनु० २।९८)

‘जो पुरुष (स्त्रियोंके सुन्दर गायन, अपनी बड़ाई तथा कठोर वचन और निन्दा) सुनकर (कोमल अंग, पुष्प, नरम पोशाक, गुदगुदे गद्दे या कठोर पहाड़ी, कंकड़, मोटा कम्बल और खाली जमीनको) स्पर्शकर, (स्त्री, सुन्दर दृश्य, बाग-बगीचे या दु:खदायी विकट दृश्य) देखकर, (मधुर मेवा-मिठाई या रूखा-सूखा पदार्थ) खाकर और (सुगन्ध या दुर्गन्धयुक्त पदार्थको) सूँघकर हर्ष और ग्लानिको प्राप्त नहीं होता, वही जितेन्द्रिय है।’

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