गीता गंगा
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॥ श्रीहरि:॥

प्रात:कालकी प्रार्थना

राग—जैजैवन्ती, ताल—झूमरा

कर प्रणाम तेरे चरणोंमें लगता हूँ अब तेरे काज।
पालन करनेको आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज॥
अंतरमें स्थित रहकर मेरे बागडोर पकड़े रहना।
निपट निरंकुश चंचल मनको सावधान करते रहना॥
अन्तर्यामीको अन्त:स्थित देख सशंकित होवे मन।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाजसे वह जल-भुन॥
जीवोंका कलरव जो दिनभर सुननेमें मेरे आवे।
तेरा ही गुणगान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे॥
तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि! तुझमें यह सारा संसार।
इसी भावनासे अंतरभर मिलूँ सभीसे तुझे निहार॥
प्रतिपल निज इन्द्रियसमूहसे जो कुछ भी आचार करूँ।
केवल तुझे रिझानेको, बस, तेरा ही व्यवहार करूँ॥

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