सत्य
सत्यमेव जयते नानृतम्
मानव-धर्मका नवाँ लक्षण ‘सत्य’ है। संसारके विभिन्न धर्म-सम्प्रदायोंमें नाना प्रकारके मतभेद रहनेपर भी इस विषयमें सबका एक मत है। सम्पूर्ण शास्त्रोंने सत्यकी महिमा एक स्वरसे गायी है। ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ इस श्रुतिमें ब्रह्मका स्वरूप सत्य बतलाया है। तैत्तिरीय श्रुति कहती है—
सत्यान्न प्रमदितव्यम्।
सत्यसे विचलित मत होओ।
महाभारतके वचन हैं—
नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।
स्थितिर्हि सत्यं धर्मस्य तस्मात्सत्यं न लोपयेत्॥
उपैति सत्याद्दानं हि तथा यज्ञा: सदक्षिणा:।
त्रेताग्निहोत्रं वेदाश्च ये चान्ये धर्मनिश्चया:॥
अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।
अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते॥
(शान्ति० अ० १६२।२४—२६)
‘सत्यके समान धर्म नहीं है और असत्यके समान पाप नहीं है, धर्म सत्यके आश्रयसे टिकता है, इसलिये सत्यका लोप कभी नहीं करना चाहिये। सत्यसे दानका, दक्षिणायुक्त यज्ञोंका, अग्निहोत्रका, वेदाध्ययनका और अन्यान्य धर्मोंका फल मिलता है। हजार अश्वमेध यज्ञोंका फल तराजूकी एक ओर और सत्य दूसरी ओर रखकर तौला जाय तो हजार अश्वमेधकी अपेक्षा सत्यका पलड़ा ही भारी रहता है।’
सत्यके सम्बन्धमें यदि शास्त्रों और महात्माओंके वाक्य उद्धृत किये जायँ तो एक बड़ा पोथा तैयार हो सकता है। विचार तो इस बातपर करना है कि सत्य क्या वस्तु है और उसका प्रयोग कैसे हो सकता है?
सत्य क्या है?
वास्तवमें तो सत्य एक परमात्मा ही है। शास्त्रोंमें कहा है—
आब्रह्मतृणपर्यन्तं मायया कल्पितं जगत्।
सत्यमेकं परब्रह्म विदित्वैवं सुखी भवेत्॥
‘ब्रह्मासे लेकर तिनकेतक सभी पदार्थ मायासे कल्पित हैं। एक परब्रह्म ही सत्य है, उसीको जानकर जीव सुखी होता है।’ जो नित्य है, अविनाशी है, एकरस है, शुद्ध बोधघन है, चैतन्य है और छ: विकारोंसे रहित है वही सत्य है। उसमें स्थित रहना ही वास्तवमें सत्यका पालन है। जबतक ऐसा न हो तबतक सरलताके साथ उसे जाननेके प्रयत्नमें लगे रहना भी सत्यका आचरण कहलाता है। इसीलिये पितामह भीष्मने सत्यके तेरह लक्षण बतलाये हैं। युधिष्ठिरके पूछनेपर पितामह कहते हैं—
अविकारितमं सत्यं सर्ववर्णेषु भारत॥
सत्यं सत्सु सदा धर्म: सत्यं धर्म: सनातन:।
सत्यमेव नमस्येत सत्यं हि परमा गति:॥
सत्यं धर्मस्तपो योग: सत्यं ब्रह्म सनातनम्।
सत्यं यज्ञ: पर: प्रोक्त: सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्॥
(शान्ति० अ० १६२।३—५)
‘सत्य सभी वर्णोंमें सदा विकाररहित है। सत्पुरुषोंमें सदा सत्य रहता है। सत्य ही सनातन धर्म है। सत्य (रूप ईश्वर ही सबकी) परमगति है, अतएव सत्यको नमस्कार है। धर्म, तप, योग, यज्ञ और सनातन ब्रह्म सत्य ही है। एकमात्र सत्यमें ही सब प्रतिष्ठित हैं।’ भीष्मजी फिर कहते हैं—
आचारानिह सत्यस्य यथावदनुपूर्वश:।
लक्षणं च प्रवक्ष्यामि सत्यस्येह यथाक्रमम्॥
प्राप्यते च यथा सत्यं तच्च श्रोतुमिहार्हसि।
सत्यं त्रयोदशविधं सर्वलोकेषु भारत॥
सत्यं च समता चैव दमश्चैव न संशय:।
अमात्सर्यं क्षमा चैव ह्रीस्तितिक्षानसूयता॥
त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं स्थिरा।
अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश॥
सत्यं नामाव्ययं नित्यमविकारि तथैव च।
सर्वधर्माविरुद्धेन योगेनैतदवाप्यते॥
(शान्ति० १६२।६—१०)
‘अब मैं तुम्हें क्रमसे सत्यके आचार और लक्षण यथार्थरूपसे सुनाता हूँ। सत्य कैसे मिलता है यह तुझे सुनाना चाहिये। हे युधिष्ठिर! सत्य तेरह प्रकारका कहलाता है यानी ईश्वररूपी सत्यकी प्राप्ति इन तेरह उपायोंसे होती है। समता, दम, मत्सरहीनता, क्षमा, लज्जा, तितिक्षा, अनसूया, त्याग, ध्यान, साधुता, धैर्य, दया और अहिंसा—ये तेरह हैं। सत्य सदा अविकारी और अविनाशी है तथा यह इन सब धर्मोंकी अनुकूलतासे मिलता है।’
इससे यह सिद्ध होता है कि एक ब्रह्म ही सत्य है और उसे पानेके जो साधन हैं, वे भी सत्य कहलाते हैं। इन साधनोंसे युक्त सत्य ही सत्य है। इन साधनोंके विस्तार करनेकी यहाँ कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती। कारण, इनमेंसे कितनोंहीका वर्णन तो इस लेखमें मानव-धर्मके लक्षणोंमें आ चुका है और यहाँ इस नवें लक्षणमें सत्य शब्द विशेषकर वाणीसे ही सम्बन्ध रखता है। इन्द्रियों और मनसे जैसा-जैसा देखा, सुना, सूँघा, स्पर्श किया, चखा और समझा, ठीक वैसा-का-वैसा ही कहना सत्य कहलाता है। यह सत्य शब्दकी व्याख्या की जाती है, परंतु वस्तुत: ठीक ऐसा होना असम्भव है। आँख जैसा रूप देखती है या कान जैसे शब्द सुनते हैं उनका यथार्थ वर्णन शब्दोंद्वारा हो ही नहीं सकता। कारण, नेत्र और कर्ण आदि इन्द्रियोंमें अपने विषयोंको जाननेकी और मनमें सोचनेकी जितनी शक्ति है और वे तनिक-सी देरमें जिस पटुतासे अपना काम कर लेते हैं, उतना ज्यों-का-त्यों व्यक्त करनेके लिये किसी भी भाषामें पर्याप्त शब्द ही नहीं बने। इससे यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि मैंने जैसा कुछ देखा, सुना या समझा है उसे ज्यों-का-त्यों यथार्थ कह रहा हूँ, तब सारी बातें आकर ठहरती हैं मनकी सरलतापर। मनमें किसी बातका छिपाव-दुराव न रखें, जैसा समझा हो ईमानदारीसे सरलताके साथ ठीक वैसा ही समझानेकी चेष्टा करे। सुने हुए पूरे शब्द समयपर न भी निकलें पर मन सच्चा और सरल हो तो वह बेईमान या झूठा नहीं कहा जा सकता।
योगदर्शन साधनपादके तीसरे सूत्रके भाष्यमें भगवान् व्यास कहते हैं—
सत्यं यथार्थे वाङ्मनसे यथादृष्टं यथानुमितं यथाश्रुतं तथा वाङ्मनश्चेति परत्र स्वबोधसंक्रान्तये वागुक्ता सा यदि न वंचिता भ्रान्ता वा प्रतिपत्तिबन्ध्या वा भवेदिति।
‘मनसहित वाणीके यथार्थ कथनका नाम सत्य है, यानी जैसा देखा, समझा और सुना है, दूसरेको कहते समय ठीक मन और वाणीका वैसा ही प्रयोग करना चाहिये। देख, सुन, समझकर जो बात अपनी समझमें जैसी आयी है, ठीक वही सुननेवालेकी भी समझमें आवे, ऐसे कथनका नाम सत्य है। भाषामें ठीक वही शब्द बोलनेपर भी यदि तुम्हारी वाक्-चातुरी या असावधानीसे सुननेवाला भ्रममें पड़ जाय या ठगा जाय तो उसका नाम सत्य नहीं है अथवा भाषा सत्य होनेपर भी भाव बदलकर कहनेके कारण यदि सुननेवाला उस बातको ठीक न समझ सके तो वह भी सत्य नहीं है।
इसमें सबसे मुख्य यही बात समझमें आती है कि मनुष्यको ऐसे ही वचन बोलने चाहिये जिनसे सुननेवाला ठगा न जाय, धोखा न खाय और जो तुम समझे हो ठीक वही बात वह भी समझ जाय, इसके लिये आवश्यकता पड़नेपर वाक्योंके साथ-साथ इशारोंसे भी काम लेना चाहिये। वास्तवमें सरलता होनेपर यह सब कुछ सम्भव है। दूसरोंको ठगनेकी नीयत मनमें रखकर भावोंको छिपाकर शब्दोंसे ‘सच्चे मियाँ’ बननेवालोंकी आजकल भी कमी नहीं है, परंतु हृदयके सरल सत्यवादी पुरुष बहुत थोड़े हैं।
कुछ लोगोंकी समझ है कि व्यापार, विवाह, अदालत और जातीय कार्य आदिमें तो सत्यका व्यवहार न करनेकी हमें छूट ही मिली हुई है, परंतु यह बात ठीक नहीं है। झूठ बोलनेकी विधि कहीं नहीं मिलती। अपवादस्वरूप शब्द कहीं-कहीं मिलते हैं; सो भी खासकर ऐसी जगहके लिये जहाँ सत्य बोलनेसे दूसरेका अहित (अनिष्ट) होता हो। यद्यपि महाभारत, शान्तिपर्वके दसवें अध्यायमें भीष्मपितामहके उदाहरणोंसहित कुछ ऐसे वचन मिलते हैं कि ‘जहाँ असत्य सत्य होता हो और सत्य असत्य होता हो वहाँ सत्य नहीं बोलना चाहिये।......डाकू किसीका धन लूटने आवें उस समय उन्हें सच्ची बात नहीं कहनी चाहिये।’ परंतु इनसे भी असत्य बोलनेकी कोई विधि सिद्ध नहीं होती। क्योंकि इसी अध्यायमें सबसे पहले पितामहके वचन हैं—
सत्यस्थवचनं साधु न सत्याद्विद्यते परम्।
‘सत्य बोलना श्रेष्ठ है; सत्यसे उत्तम और कुछ भी नहीं है।’ हाँ, योगदर्शनके भाष्यमें भगवान् व्यासने उन वचनोंका निषेध अवश्य किया है जिनसे दूसरोंकी हानि होती है। वह कहते हैं—
एषा सर्वभूतोपकारार्थं प्रवृत्ता न भूतोपघाताय, यदि चैवमप्यभिधीयमाना भूतापघातपरैव स्यान्न सत्यं भवेत्। पापमेव भवेत्। तेन पुण्याभासेन पुण्यप्रतिरूपकेण कष्टतमं प्राप्नुयात्, तस्मात्परीक्ष्य सर्वभूतहितं सत्यं ब्रूयात्।
‘इस प्रकारसे वाक्योंका प्रयोग करना चाहिये जिससे जीवोंका मंगल हो। किसीका भी अनिष्ट न हो। यदि ठीक-ठीक वाक्य-उच्चारणसे भी दूसरेका अनिष्ट होता हो तो वह सत्य नहीं है, पाप है। एक बार वह पुण्य दीखता है, परंतु उससे (मैं सच्चा हूँ, मैं खरी कहता हूँ, चाहे किसीका बने या बिगड़े) अभिमान उत्पन्न होकर और दूसरेके बुराईसे होनेवाले पापके कारण, उसके परिणाममें अत्यन्त कष्ट (नरकदु:ख) भोगना पड़ता है, इसलिये बहुत विचारके साथ जबान खोलनी चाहिये, जिससे जीवोंका हित हो, कहीं भी किसीका अनिष्ट न हो।’
यही बात महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं—
सत्यं भूतहितं प्रोक्तं नायथार्थाभिभाषणम्।
‘प्राणियोंका हित करना और यथार्थ बोलना ही सत्य है।’ मनु महाराजने तो ‘न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्’ अप्रिय सत्यतकका भी निषेध किया है।
अतएव यही मालूम होता है कि पराये हितका पूरा खयाल रखकर हृदयकी सरलतासे यथासाध्य यथार्थ भाषण करना ही सत्य समझा गया है।
दो धर्मोंके अड़ जानेपर क्या करना चाहिये?
अब सवाल यह उठता है कि जहाँ दो धर्म आपसमें अड़ जाते हैं, वहाँ क्या करना चाहिये? मान लीजिये एक गौ दौड़ी जा रही है, उसके पीछे एक कसाई मारनेको दौड़ता है, गौ जाकर जंगलमें छिप गयी, किसीने उसे देखा, कसाई पीछेसे आकर उससे पूछता है कि ‘बताओ, गौ इधरसे कहाँ गयी?’ अब यदि वह गौका पता बतलाता है तो कसाई गौको मार डालता है जिससे हिंसा होती है। यदि कहता है कि मैं नहीं जानता, तो असत्य होता है। ऐसे धर्म-संकटमें उसे क्या करना चाहिये? ऐसा ही एक दृष्टान्त श्रीमद्देवीभागवतमें आता है—
सत्यव्रतका इतिहास
एक ऋषिकुमार गंगातटपर निर्जन स्थानमें निवासकर भगवान् का भजन-ध्यान किया करते थे। सब लोग इस बातको जानते थे कि वह सदा सत्य बोलते हैं, इससे उनका नाम सत्यव्रत पड़ गया था और उनकी यह ख्याति हो गयी थी कि वे कभी मिथ्या नहीं बोलते।
एक दिन निशठ नामक एक व्याध शिकारके लिये उस वनमें आया और उसने एक सूकरके बाण मारा। भयभीत सूकर दौड़ता हुआ सत्यव्रतके आश्रममें जा पहुँचा, उसका शरीर खूनसे लथपथ था और वह काँप रहा था। मुनिका हृदय दयासे भर गया, सूकर काँपता हुआ आश्रमके एक घने कुंजमें छिप गया। मुनि देखते रहे। कुछ ही समय बाद वह व्याध भी वहाँ आ पहुँचा और सत्यव्रतसे कहने लगा, ‘देव! मेरा बाण लगा हुआ सूकर किधर गया? आप सत्य बोलते हैं यह बात मैं जानता हूँ, इसीलिये आपसे पूछ रहा हूँ; मेरा परिवार भूखसे व्याकुल है। हमारी वृत्ति ही पशुओंको मारकर खाना है, अच्छा हो या बुरा हो किसी तरह परिवारका पालन करना पड़ता है। आप सत्यके व्रती हैं, मेरे कुटुम्बी भूखों मर रहे हैं, आप सत्य कहें कि सूकर किधर गया? व्याधके वचन सुनकर सत्यव्रत धर्मसंकटमें पड़कर सोचने लगे कि ‘यदि मैं देखा नहीं’ कहता हूँ तो मेरा सत्यव्रत नष्ट होता है, यदि बतला देता हूँ तो यह भूखसे आतुर व्याध उसे मार ही डालेगा, इससे हिंसा होगी। साथ ही जिस सत्यमें हिंसा है वह सत्य नहीं है, जिसमें दया है वही सत्य है। जिसमें जीवोंका हित है वही सत्य है और सब मिथ्या है।’ अन्तमें उन्होंने भगवतीका स्मरण किया, जिससे उनके हृदयमें एक स्फुरणा हुई और वह तत्काल बोल उठे—
या पश्यति न सा ब्रूते या ब्रूते सा न पश्यति।
अहो व्याध स्वकार्यार्थिन् किं पृच्छसि पुन: पुन:॥
(देवीभागवत ३। ११। ४१)
‘जो (नेत्रशक्ति) देखती है वह बोल नहीं सकती, जो (वाक्शक्ति) बोल सकती है वह देख नहीं सकती; अतएव हे स्वार्थी व्याध! तू मुझसे बार-बार क्या पूछता है?’ यों कहकर सत्यव्रतने व्याधको टाल दिया। वास्तवमें बात तो ठीक है। आँख जैसा देखती है, वाणी वैसा-का-वैसा कभी कह नहीं सकती। परंतु आजकल यों बोलनेसे काम नहीं चलता।
मर जाय, पर असत्य न बोले
इसलिये अच्छा तरीका यह मालूम होता है कि सत्यवादी अहिंसाप्रिय पुरुष इस प्रकारके धर्मसंकटमें यह स्पष्ट कह दे ‘गौ कहाँ गयी है सो मैं जानता हूँ, पर बतलाऊँगा नहीं’, इसके बदले यदि वह कसाई उस पुरुषको बलपूर्वक मार सके तो भले मार दे। इसी प्रकार किसी सती स्त्रीके सतीत्व लूटने या किसीका धन लूटनेको आनेवाले अपनेसे बलवान् अत्याचारीके सामने दृढ़तासे यह स्वीकार कर लेना चाहिये कि ‘मैं जानता हूँ पर बताऊँगा नहीं’ और यों कहकर वह यदि अत्याचारीके हाथसे मारा जाय तो कोई आपत्ति नहीं! ऐसे स्थलोंमें कहीं-कहींपर मिथ्याभाषणकी भी आज्ञा मिलती है, पर साथ ही शास्त्रकी यह आज्ञा है—
आत्मार्थे वा परार्थे वा पुत्रार्थे वापि मानवा:।
अनृतं ये न भाषन्ते ते बुधा: स्वर्गगामिन:॥
‘जो अपने, पराये और पुत्रके लिये भी असत्य नहीं बोलते, वे ही देवलोकको जाते हैं।’ इसलिये कभी मिथ्या नहीं बोलना चाहिये। वास्तवमें सत्यवादीके लिये तो मिथ्याभाषणकी अपेक्षा मृत्युको आलिंगन करना अधिक महत्त्वकी बात है। हाँ, जहाँ सत्य बोलने या चुप रहनेसे किसी निरपराध जीवके प्राण जाते हों और अपने प्राण देनेपर भी उसके बचनेकी सम्भावना न हो, वहाँ तुलनात्मक दृष्टिसे एक बड़े पुण्यकार्यके लिये मिथ्याभाषणका पाप भी अपने सिर उठाया जा सकता है। इस स्थलपर किया हुआ भी मिथ्याभाषण पाप अवश्य है, परंतु दूसरेकी प्राणरक्षाके लिये इस पापका स्वीकार करना भी आवश्यक है, यह एक प्रकारका त्याग है। दो धर्मोंके अड़ जानेपर स्वार्थबुद्धि छोड़कर दोनोंको तौलना चाहिये और अपनी बुद्धिमें जो उचित जँचे, वही करना चाहिये। ऐसी स्थितिमें भगवत्-स्मरणसे बुद्धिमें सहज ही सच्ची स्फुरणा हो सकती है। अपनी बुद्धि काम न दे तो निकटके किसी साधु पुरुषसे पूछ लेना चाहिये। स्मरण रहे कि विद्वानोंकी अपेक्षा महात्मा साधुओंकी राय अधिक महत्त्व रखती है।
सत्यपर गीताका सिद्धान्त
वाङ्मयतपके नामसे श्रीमद्भगवद्गीता हमें बोलनेकी बड़ी सुन्दर कला सिखलाती है। यहाँ एक ही श्लोकमें सारी बातें कह दी गयी हैं।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥
(१७।१५)
‘जो (सुननेवालेके मनमें) उद्वेग करनेवाला न हो, प्रिय हो, हितकारी हो, यथार्थ हो तथा जो वेद-शास्त्रोंके पठन और परमेश्वरके नामजपका अभ्यासी हो, वह भाषण ही वाणीका तप कहलाता है।’
बिना मतलब बोले नहीं, बहुत कम बोले तथा आवश्यकता पड़नेपर उतना और वैसा ही बोले जो यथार्थ और मधुर होनेके साथ-ही-साथ किसीके मनमें उद्वेग पैदा करनेवाला न हो तथा जिससे सुननेवालेका हित होता हो, बाकी समय वाणीसे भगवान्के गुण और नामका ही उच्चारण करता रहे। यही यथार्थ सत्य है।
क्या करना चाहिये
आजकल प्राय: न तो हृदयकी सरलता है और न वाणीकी यथार्थता! इसीसे वाणीका तेज नष्ट हो गया है। पूर्वकालके इतिहास देखनेसे पता लगता है कि शिक्षित-अशिक्षित, बालक-वृद्ध जो कुछ भी शाप या वरदान दे डालते थे वह सत्य होता था, यह सत्यका ही फल था। पतंजलिने कहा भी तो है— ‘सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्’ (२। ३६) सत्यप्रतिष्ठ योगीकी वाणी अमोघ होती है।
सत्यका महत्त्व भूल जानेके कारण आजकल हमलोग व्यापारादि कार्योंमें तो स्वार्थवश सत्यका त्याग करते ही हैं; परंतु हँसी-मजाक और व्यर्थकी बातोंमें भी झूठकी भरमार रहती है। बेमतलब झूठ बोलनेकी आदत भी कम नहीं है।
इससे न तो वाणीमें तेज है, न परमार्थ-साधनकी शक्ति है और न दुनियामें ही हमारा कोई विश्वास करता है। सत्यवादीके तनिक-से इशारेपर जगत् विश्वास करता है और मिथ्यावादियोंके दस्तावेजोंमें भी झूठे होनेका डर बना रहता है। अंग्रेजी कानूनोंके प्रचारसे भी सत्यको बहुत धक्का लगा है, किसी तरह कानूनके फंदेसे बचकर चाहे सो कर लेनेमें भी प्राय: कोई ग्लानि नहीं रही! इसीसे वकीलोंके पेशेकी अधिक उन्नति हुई। गाँवोंके किसान भी कपट सीख गये! दस्तावेजोंके सामने जबानका महत्त्व जाता रहा। कहाँ तो हरिश्चन्द्र-सरीखे नरपतियोंके सत्यके लिये स्त्री-पुत्रादिको बेचकर डोमके घर गुलामी करनेका इतिहास और कहाँ आज जरा-से स्वार्थके लिये गंगाजली और गीता हाथमें लेकर मिथ्याभाषणकी पाप प्रवृत्ति!
नीतिकार कहते हैं कि ‘सत्यपूतं वदेद् वाक्यम्’ सत्यसे पवित्र करके वचन कहे, बोलते समय तौल-तौलकर बोले। चाहे सो लबर-लबर न बक जाय! आशीर्वाद-शाप किसीको न देना चाहिये, इसमें वाणीका अपव्यय होता है, असत्यको गुंजाइश रहती है और शापादिसे वैर-विरोध तथा पाप-ताप बढ़ते हैं। भविष्यके समयमें किसीसे प्रतिज्ञात्मक शब्द नहीं कहने चाहिये। जैसे मैं अमुक कर्म करूँगा, मैं कल जाऊँगा, बल्कि उस समयके अपने निश्चयके अनुसार यों कहना चाहिये कि मैंने अमुक कार्य करना निश्चय किया है। मैं कल जाना चाहता हूँ या मैंने कल जानेका विचार किया है। कहा जाता है कि एक बार धर्मराज युधिष्ठिरने यह कह दिया था कि ‘अमुक कार्य कल करेंगे। इसपर भीमने उत्सव मनाया और यह कहा कि कलतकका तो जीवन निश्चित हो गया, क्योंकि सत्यवादी युधिष्ठिरने कलतककी गैरण्टी दे दी।’ इसलिये यथासाध्य कोई भी प्रतिज्ञात्मक शब्द नहीं बोलने चाहिये।
पर साथ ही यह खयाल अवश्य रखना चाहिये कि ‘शब्दोंके आडम्बरमें कहीं दम्भको स्थान न मिल जाय।’ ‘सत्य’ बाहरी दिखावा नहीं है, मनके सच्चे भावका यथार्थ प्रकाश करना ही ‘सत्य’ है। चतुराई या छलसे जरा भावको बदलकर शब्द वैसे ही कहे जा सकते हैं, परंतु उनसे अर्थमें बड़ा अन्तर पड़ जाता है। भावों, उच्चारणकी ध्वनियों तथा इशारोंसे एक ही शब्दके भिन्न-भिन्न अर्थ हो सकते हैं! जिसके मनमें कपट है, वह शब्द वैसे ही सजाकर बोल देता है, परंतु भावोंसे उसका अर्थ बदल देता है। इसका नाम ‘सत्य’ नहीं है, यह तो सत्यको धोखा देना है। इस दम्भसे परमात्मा कभी प्रसन्न नहीं होते। इसके सिवा कुछ लोग सत्यके व्यर्थ ठीकेदार बनकर जगत्के लिये दु:खरूप भी बन जाया करते हैं। वे लोग ढूँढ़-ढूँढ़कर लोगोंको कड़ी बातें सुनाकर उनका हृदय जलाते हुए शेखी बघारा करते हैं, कि ‘हम तो खरी कहनेवाले हैं, हमसे तो लल्लो-चप्पो नहीं होती, चाहे कोई दु:ख पावे या सुख, किसीका भला हो या बुरा—अपने राम तो हो जैसी फटकार देते हैं।’ मेरी समझसे यों बुरी नीयतसे फटकारनेवाले दम्भियोंको अन्तमें यमदूतोंके कठोर कोड़ोंकी फटकार भी अवश्य ही सहन करनी पड़ती है। इसलिये सावधान हो जाना चाहिये।
सत्य वही है जो सरल हृदयसे बिना वाक्चातुरीके यथार्थ भाषामें और दूसरेके हितके भावसे कहा जाय। जानकर छिपाने या बढ़ानेकी चेष्टा बिलकुल न हो और कुछ भी न हो सके तो वाणीसे सरल सत्यका आश्रय अवश्य ही लेना चाहिये। एक सत्यसे ही सब कुछ हो सकता है, इसीसे परमात्मा मिल जाते हैं।
सत्यवादी भक्त घाटम
जयपुरके पास घोड़ी नामक गाँवमें घाटम नामका एक मीना रहता था। राजपूतानेमें चोरीके लिये यह जाति प्रसिद्ध है। घाटम भी चोरीका ही पेशा करता था, परन्तु वह कभी-कभी एक महात्माके पास जाया करता था। महात्मा जानते थे कि यह चोर है, पर वे उससे घृणा नहीं करते थे। ‘संत किसीसे घृणा नहीं किया करते, वे तो सबसे प्रेम ही करते हैं और अपने प्रेमके बलसे ही पापियोंको पापमुक्त कर देते हैं।’ एक दिन महात्माने बड़े प्रेमसे घाटमसे कहा, ‘बच्चा! तू चोरी क्यों नहीं छोड़ देता?’ घाटमने सरलतासे कहा, ‘बाबा! यही तो मेरी जीविका है। चोरी छोड़ दूँ तो परिवारका पालन कैसे हो? आप और जो कुछ आज्ञा करें सो करनेको तैयार हूँ।’ महात्माने कहा, ‘अच्छा बच्चा! चोरी नहीं छोड़ सकता तो कोई हर्ज नहीं, मेरी बात मानकर चार बातोंका नियम ले ले—(१) सच बोलना, (२) साधु-सेवा करना, (३) भगवान् को निवेदन किये बिना कुछ भी न खाना और (४) भगवान् की आरती देखना।’ श्रद्धालु घाटमने चारों व्रत ले लिये, चोर भगवान्के मंगलमय मार्गपर आ गया। साधुओंका डेरा एक जगह नहीं रहा करता। घाटमके गुरु किसी दूसरे देशमें चले गये। वहाँ भगवान् का कोई उत्सव था। गुरुने घाटमको बुलाया। समय थोड़ा था, स्थान था दूर। घाटम गुरुके पास ठीक समयपर कैसे पहुँचे, चोरीकी आदत तो थी ही; उसने राजाकी घुड़सालसे घोड़ा चुराना निश्चय किया।
घाटम राजाकी घुड़सालपर पहुँचा और बेखटके अंदर घुसने लगा। पहरेदारोंने पूछा—‘तू कौन है? बिना पूछे भीतर क्यों जाता है? घाटम तो सत्य बोलनेकी प्रतिज्ञा कर चुका था, उसने सरलतासे बिना किसी रुकावटके कहा, ‘मेरा नाम घाटम है, मैं चोर हूँ, घोड़ा चुराने जाता हूँ।’ पहरेदारोंने समझा, चोर कभी यों नहीं बोल सकता, महाराजका कोई नया अफसर होगा। वे कुछ नहीं बोले, घाटम अंदर गया और चुनकर एक बढ़िया-से-बढ़िया घोड़ा ले आया। दूसरे पहरेदारने फिर पूछा तो घाटमने कह दिया—‘घोड़ा चुराकर ले जा रहा हूँ।’ पहरेदारने दिल्लगी समझकर उसे जाने दिया। घाटम प्रसन्नताके साथ तेजीसे जा रहा था। एक गाँवके पास पहुँचा, इतनेमें संध्या हो गयी। मन्दिरमें आरती हो रही थी, घाटमने शंख-घण्टाकी आवाज सुनकर गुरुके आज्ञानुसार बाहर एक पेड़में घोड़ा बाँध दिया और वह भगवद्भजनमें मतवाला होकर मन्दिरमें आरती देखने चला गया।
इधर पीछेसे असली बात खुली। पता लगा कि घोड़ा ले जानेवाला चोर ही था। चारों ओर खोज होने लगी। पैरोंकी खोज पहचाननेवाले दौड़ाये गये। उनमेंसे कुछ लोग ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उसी मन्दिरके पास आ पहुँचे, जिसके नीचे घोड़ा बँधा था। भक्तवत्सल भगवान् ने भक्त घाटमकी दशापर विचार किया, भवबन्धन काटनेवाले भगवान् अपने एक निर्भर भक्तका बन्धन कैसे देख सकते थे? काले रंगका घोड़ा भगवान् की मायासे सफेद हो गया। आरती होनेके बाद घाटम भगवत्प्रेममें झूमता हुआ नीचे आकर घोड़ेपर सवार हो गया। घाटमने यह नहीं देखा कि घोड़ा पहले किस रंगका था और अब किस रंगका हो गया है। सिपाहियोंने देखा, आदमी वही, वहाँसे यहाँतक खोज वही, साज-सामान वही, घोड़ेका कद वही, परंतु रंग दूसरा। उन्होंने सोचा कि आज हमें राजा न मालूम क्या दण्ड देंगे। उनके चेहरेपर आश्चर्य और विषाद छा गया। अन्तमें एक सिपाहीने बड़ी नम्रतासे घाटमसे सब वृत्तान्त कहा, तब घाटमने घोड़ेका रंग देखा और प्रभुकी अलौकिक माया समझकर वह बोला कि ‘भाई! तुमलोग चिन्ता न करो, मैं ही चोर हूँ और यही वह घोड़ा है, इसका रंग तो मेरे भगवान् ने पलट दिया है, तुम डरो मत, मैं तुम्हारे राजाके पास चलता हूँ।’ घाटमने राजाके पास जाकर गुरुके प्रथम दर्शनसे लेकर अबतककी सब बातें सरलताके साथ राजाको सुना दी। घाटमका सत्यपूर्ण अद्भुत वृत्तान्त सुनकर राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ और वह घाटमको एक संत समझकर उसके चरणोंमें गिर पड़ा। राजाने बहुत-सा धन देना चाहा, घाटमने कुछ भी नहीं लिया और कहा कि ‘राजन्! मुझे किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है, गुरुकी सेवामें जानेभरके लिये केवल घोड़ा चाहिये।’ राजाने प्रसन्नतासे घोड़ा दे दिया। घाटम गुरुके पास गया और अन्तमें उस सत्य और भक्तिके प्रतापसे सारे पापोंसे मुक्त होकर भगवान् में लीन हो गया। सत्यके प्रतापसे इहलोक और परलोकमें उसकी महिमा छा गयी।