अन्तकालके स्मरणका महत्त्व
प्रवचन—दिनांक १-६-१९४१, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
यह भूमि बड़ी पवित्र है। सैकड़ों कोसमें ऐसी जगह नहीं मिलेगी, घर जाकर भी इस भूमिको याद कर लें तो वैराग्य हो जाय। यह मायापुरी है। इसमें मरनेसे फिर संसारमें आना नहीं होता।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)
जो पुरुष अन्तकालमें भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है—इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
भगवान् कहते हैं कि मनुष्य-शरीर पाकर भी यदि इसका कल्याण नहीं हुआ तो मरते समय किसी तरह इसका कल्याण होना चाहिये। इसलिये भगवान् ने यह नियम रखा कि मरते समय किसी तरह भी मेरा स्मरण हो गया तो कल्याण हो जायगा।
जिस अपराधीको सरकार फाँसीकी सजा देती है, उसको भी फाँसी देते समय उसकी इच्छापूर्ति करती है, अत: भगवान् ने भी जीवनकी यात्रा समाप्तिके समयके लिये विशेष कानून बना दिया कि मरते समय मेरा स्मरण कर ले तो वह मुझे प्राप्त हो जाता है इसमें कोई शंका नहीं। भगवान् ने यह कानून सिर्फ अपनी प्राप्तिके लिये ही नहीं बनाया है, वरं सबके लिये ही बनाया है—
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥
(गीता ८। ६)
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावको स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है। क्योंकि वह सदा जिस भावका चिन्तन करता है, अन्तकालमें भी प्राय: उसीका स्मरण होता है।
अन्तकालमें जिस चेतन जीवकी स्मृति हुई तब तो वह वैसा ही चेतन जीव हो जायगा, पर यदि जड़ पदार्थकी स्मृति हुई तो मकानमें रहनेवाला चींटी-चूहा आदि बन जाता है, किन्तु भगवान् की स्मृति हो जाती है तो भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। इसीलिये भगवान् कहते हैं—
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥
(गीता ८। ७)
हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरेमें अर्पण किये हुए मन, बुद्धिसे युक्त हुआ तू नि:सन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा।
मन, बुद्धि मुझमें ही अर्पण कर दे। मनका अर्पण करना क्या?—हर समय भगवान् का चिन्तन करना। बुद्धिका अर्पण करना क्या?—बुद्धिमें भगवान् के अस्तित्त्वका निश्चय होना। ऐसा होनेसे अन्त समयमें भगवान् का स्मरण होगा ही।
अब नियतात्मभि: (गीता ८। २) की बात चलती है। सगुण-साकार, निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकार तीनों ही भगवान् श्रीकृष्ण हैं। इस जगह भगवान् श्रीकृष्णका ही ध्यान है, उस निराकार स्वरूपको लिये हुए ही भगवान् के सगुण-साकारके स्वरूपका यहाँ ध्यान है, क्योंकि माम् पदसे समग्र रूपका वर्णन है। भगवान् कहते हैं अधियज्ञ मैं ही हूँ। मन, बुद्धि मुझे ही अर्पण कर दो।
अब नियतात्मा पुरुषोंको किस तरह जाननेमें आता हूँ, यह बताते हैं—
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥
(गीता८।८)
हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वरके ध्यानके अभ्यासरूप योगसे युक्त अन्य तरफ न जानेवाले चित्तसे निरन्तर चिन्तन करता हुआ पुरुष परम प्रकाशस्वरूप दिव्य पुरुषको अर्थात् परमेश्वरको ही प्राप्त होता है।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥
(गीता ८। १३)
जो पुरुष ‘ॐ’ ऐसे इस एक अक्षररूप ब्रह्मको उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मेरेको चिन्तन करता हुआ शरीरको त्यागकर जाता है, वह पुरुष परमगतिको प्राप्त होता है।
अब यह बात आती है कि अन्त समयमें तो इतना करना बड़ा कठिन है, इसे भी नियतात्मा पुरुष ही कर सकते हैं। भगवान् गीता अध्याय ८ श्लोक ५—७ में कही हुई बातके लिये उपाय बताते हैं—
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८। १४)
हे अर्जुन! जो पुरुष मेरेमें अनन्यचित्तसे स्थित हुआ, सदा ही निरन्तर मेरेको स्मरण करता है, उस निरन्तर मेरेमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।
सगुण-निराकार और निर्गुण निराकार दोनों ही साधन कठिन हैं, पर सगुण-साकार साधन सरल है।
अर्जुनकी तरह हम भी सोयें तो भगवान् को साथ लेकर सोयें, खायें तो भगवान् के साथ खायें। जैसे मन कहीं रहता है और भोजन करते रहते हैं, मनको कहीं न जाने दें और भगवान् का स्मरण करें। शरीर निर्वाहकी क्रिया प्रारब्ध अनुसार होती रहेगी, पर मनको भगवान् में लगा दें।
निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकारके दो कठिन साधन न बतलाकर सरल साधन रखा, सरलकी तरफ सभीका मन चलता है।
भगवान् कालातीत हैं और ब्रह्मादिकोंके सारे लोक अवधिवाले होनेसे अनित्य हैं।
भगवान् की प्राप्ति ही परम सिद्धि है, परमगति है। अब भगवान् अपनी प्राप्तिकी विशेषता बतला रहे हैं—
आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥
(गीता ८। १६)
हे अर्जुन! ब्रह्मलोक तकके सब लोक पुनरावर्ती स्वभाववाले अर्थात् जिनको प्राप्त होकर पीछे संसारमें आना पड़े, ऐसे हैं, किन्तु मुझे प्राप्त होकर उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
औरोंकी तो बात ही क्या है, ब्रह्मलोक तकके लोकमें गये हुए लोग वापस आ जाते हैं। पर परमात्माको प्राप्त हुए वापस नहीं आते।
अब यह बताते हैं कि ब्रह्मलोक तकके वापस क्यों आते हैं, क्योंकि वे लोक स्वयं अवधिवाले हैं—
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जना:॥
(गीता ८। १७)
ब्रह्माका जो एक दिन है, उसको एक हजार चतुर्युगीतककी अवधिवाला और रात्रिको भी एक हजार चतुर्युगीतककी अवधिवाली जो पुरुष तत्त्वसे जानते हैं, वे योगीजन कालके तत्त्वको जाननेवाले हैं।
अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके॥
(गीता ८। १८)
सम्पूर्ण चराचर भूतगण ब्रह्माके दिनके प्रवेशकालमें अव्यक्तसे अर्थात् ब्रह्माके सूक्ष्म शरीरसे उत्पन्न होते हैं और ब्रह्माकी रात्रिके प्रवेशकालमें उस अव्यक्त नामक ब्रह्माके सूक्ष्मशरीरमें ही लीन हो जाते हैं।
कलियुगका परिमाण ४,३२,००० वर्ष है। कलियुगसे दूना द्वापर, तिगुना त्रेता और चार गुना सतयुग होता है। ऐसे हजार बार चतुर्युगी होनेपर ब्रह्माका एक दिन होता है एवं इतनी ही अवधिकी रात्रि होती है।
ब्रह्माके दिनका आदि ही सर्गका आदि है। ब्रह्माके दिनका अन्त ही सर्गका अन्त है। ब्रह्माके अव्यक्त शरीरसे ही उनके दिनके आदिमें ब्रह्मा ही सम्पूर्ण जीवोंको रचते हैं। जैसे कुम्हार मिट्टीके बर्तन बनाता है। निमित्त और उपादान दोनों ही कारण ब्रह्मा हैं। ब्रह्माका भी कारण परमात्मा हैं। ब्रह्माकी रात्रिके आरम्भमें सारे प्राणी उन्हींमें विलीन हो जाते हैं।
भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥
(गीता ८। १९)
हे पार्थ! वही यह भूतसमुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृतिके वशमें हुआ रात्रिके प्रवेशकालमें लीन होता है और दिनके प्रवेशकालमें फिर उत्पन्न होता है।
उत्पन्न होवे और लीन होवे, उत्पन्न होवे और लीन होवे, इसलिये भूत्वा-भूत्वा शब्द दो बार आया। बार-बार ऐसा होता ही रहता है जो मेरी प्राप्ति नहीं करता है वह इस चक्करमें चढ़ा ही रहता है। इससे ध्वनि निकलती है कि मेरी प्राप्तिकी ही चेष्टा करो।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....