भगवान् को छोड़कर भोगोंको चाहना मूर्खता
प्रवचन—दिनांक २०-११-१९३७, गीतावाटिका, गोरखपुर
बंगालमें एक बड़े धनी सेठ थे। उनके यहाँ ग्वालिन आयी। सूर्य अस्त होनेमें समय कम था। वह बोली—पैसा देन (पैसा दीजिये)। उसके मुनीमने कहा—थोड़ी देर ठहरो। ग्वालिन बोली—आर बेला नाय (समय नहीं है)। मुनीमने कहा—थोड़ा ठहरो। उसने फिर कहा—आर बेला नाय। तीन बार उस स्त्रीने कहा, सूर्य डूब रहा है, समय नहीं है। सेठने उसको पैसा दिलवा दिया और उसी समय सबका हिसाब नक्की करके चल पड़ा, बोला समय नहीं है। हमारा सूर्य अस्ताचलमें जा रहा है। उस सेठको ग्वालिनका इतना ही उपदेश लग गया और प्रभुके शरण होकर महान् भक्त हो गया। हमारा भी यही हाल है, समय कहाँ है। भगवान् कहते हैं—
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।
(गीता ९। ३३)
इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य-शरीरको प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर। मनुष्य-शरीर बड़ा दुर्लभ है; परन्तु है नाशवान् और सुखरहित, इसलिये कालका भरोसा न करके तथा अज्ञानसे सुखरूप भासनेवाले विषयभोगोंमें न फँसकर निरन्तर मेरा ही भजन कर। भजन कैसे करना चाहिये, यह बताते हैं—
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥
(गीता ९। ३४)
मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्माको मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।
किसीको मनमें स्थान मत दे। मेरा भक्त हो। मेरे सिवा किसीमें प्रेम करनेवाला मत हो। मन्मना से मनका, मद्भक्तो से अपने आपका समर्पण हो गया, मद्याजी से मेरा पूजन करनेवाला हो जा।
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
(गीता १८। ४६)
हे अर्जुन! जिस परमात्मासे सारे भूतोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सारा जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरको अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजकर मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त होता है।
सारी इन्द्रियाँ भगवान् में लगा दे। अपने आपको भगवान् के अर्पण कर दे। भगवान् कहते हैं—तू निश्चय मुझको ही प्राप्त होगा। कोई कहे समय कहाँ है? जो समय बचा है वह सारा समय प्रभुके समर्पण कर देना चाहिये। पहलेका सारा समय सांसारिक भोगोंमें चला गया, अब जो बचा है वह सारा समय भजन-स्मरणमें लगाना चाहिये। वही पुरुष धन्य है, जो बचा हुआ समय प्रभुके अर्पण कर दे यानी भगवान् के भजन-ध्यानमें बितावे, वही समयका महत्त्व जानता है। किसी संतने कहा है—
आये थे कछु लाभ को खोय चले सब मूल।
फिर जाओगे सेठ पास पले पड़ेगी धूल॥
क्या फिर हमें मनुष्य-शरीर मिलेगा? जब हम ठीक तरहसे समय नहीं बितायेंगे तो आगे जाकर भगवान् को क्या उत्तर देंगे। इसलिये बचा हुआ समय प्रभुको समर्पण करो, भगवान् के भजन-ध्यानमें बिताओ।
पाया परम पद हाथ से जात
गई सो गई अब राख रही को॥
एक धनी आदमी था। किसीको सौ रुपये व्यापार करनेके लिये उधार दिये और कहा कि मूल पूँजीमेंसे खर्च मत करना। उसने सौ रुपयोंमेंसे पचहत्तर रुपये खर्च कर दिये, पचीस रुपये शेष रहे। तब उसके मिलनेवाले लोगोंने कहा—मालिक बड़ा दयालु है जो कुछ बचा है वह लेकर चलो। वह बोला—मेरी तो सेठजीके पास जानेकी हिम्मत नहीं है, आपलोग साथ चलें। वे लोग दयालु थे, साथ चले गये। उसने सेठको सच्चा हाल कह दिया, संकोच और दु:ख प्रदर्शित किया। तब सेठने क्षमा कर दिया। इसी प्रकार हमलोग जो आयु भगवान् से लेकर आये थे, अधिकांशत: खो चुके हैं। अब भी बाकी बची हुई आयु भगवान् को सौंप दें यानी उनके भजन-ध्यानमें ही समय बितावें तो काम बन जायगा। महात्मा भी सच्चे आदमीकी सिफारिश भगवान् से कर देते हैं; परन्तु जो लोग अब भी छिपाकर बात करते हैं, कपट रखते हैं, शेष बचे पचीस हैं पर बताते पन्द्रह हैं उनकी सुनवाई नहीं होती। यदि निन्यानवे रुपये खर्च हो गये और एक रुपया भी बचा हो तो वह तो पूरा-का-पूरा सौंप दो। उसमें भी चोरी करोगे तो काम नहीं चल सकता। मनुष्य-जीवन अमूल्य है। किसी भक्तका कहना है—
हाथ उठाके कहत हूँ कहौं बजाऊँ ढोल।
श्वासा खाली जात है तीन लोक का मोल॥
एक-एक श्वासका मूल्य त्रिलोकीका राज्य है। अन्तके श्वासमें यदि भगवान् की स्मृति हो गयी तो उसे भगवान् की प्राप्ति हो जायगी।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)
भगवान् कहते हैं—जो पुरुष अन्तकालमें मेरेको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
तीनों लोकका मूल्य तो किस गिनतीमें है, उस एक क्षणका मूल्य इससे भी बहुत अधिक है। भगवान् की प्राप्ति एक सालमें नहीं, एक महीनेमें, एक दिन, एक घड़ीमें क्या, एक क्षणमें हो सकती है। भगवान् के अनन्य शरण होनेके बाद किसीपर किंचित् मात्र भी अपना अधिकार नहीं समझे। सदाके लिये अपने आपको भूलकर प्रभुके अनन्य आश्रित हो जाय, यानी भगवान् में स्थित हो जाय। भगवान् के सिवाय दूसरी ओर मन जाये ही नहीं, भगवान् की स्मृति ही जीवनका आधार बन जाय तो उसी क्षण प्रभुकी प्राप्ति हो जाय।
प्रभुका ऐसा कानून है कि यदि अन्त समयमें एक सेकेण्ड आपके हाथमें है, प्राण जानेवाले हैं, बस! उसी समय आपकी मुक्ति हो सकती है। कैसे? प्रभुकी स्मृति या नामजपसे। प्रभु बड़े दयालु हैं, प्रभुके यहाँ बड़ी छूट है। राजा भी फाँसीकी सजावालेको कुछ छूट देता है; फाँसी तो होगी ही, पर इसकी इच्छा पूर्ण करने योग्य होगी तो करेंगे। परन्तु प्रभु तो कहते हैं, अन्त समयकी इच्छा अवश्यमेव पूर्ण होगी।
महान् पापी है, अन्त-समयमें कैसा भी हो, कोई भी हो, भगवान् का स्मरण करनेके साथ ही उद्धार हो जाता है। इतनी भारी छूट है। पापियोंके लिये ही है, धर्मात्माको तो आवश्यकता ही क्या है? प्रभु सोचते हैं अब यह मर जायगा तो फिर न मालूम लाख या करोड़ जन्मके बाद कब मनुष्य होगा। प्रभु बड़े दयालु हैं, यह अन्त-समयका मौका देते हैं। उस समय सारे अपराध क्षम्य हैं, अन्तकालमें भगवान् का स्मरण करते हुए जाओगे तो परमपदको प्राप्त हो जाओगे।
आपने समयका कितना आदर किया है? यदि आप रुपये कमानेमें समय खोते हैं तो धोखेमें हैं। शरीर पोषणमें, कुटुम्ब पालनमें समय बिताते हैं तो भी मूर्खता है। सोचें—एक ओर रुपया, एक ओर भगवान्। परिणाम क्या होगा? एक ओर शरीरका पोषण, दूसरी ओर भगवान्। क्या हुआ शरीर पोषणमें, दो सेर मिट्टी ही तो बढ़ाई। स्त्री-पुत्रोंका पोषण—अरे मूर्ख! सारा संसार तुम्हारा ही कुटुम्ब है, यह तो तुम्हारी बड़ी मूर्खता है। कहाँ भौतिक उन्नति और कहाँ भगवान्! भगवान् को खोकर जो इस प्रकार समय बिताता है, उसके लिये तुलसीदासजी कहते हैं—
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई।
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
(रा०च०मा०, उत्तर० ४४। ३)
चिरमीका मूल्य एक कौड़ी भी नहीं है। भगवान् को खोकर समयको विषय भोगोंमें लगाते हो। मूढ़! चिरमी देखने-मात्रसे ही सुन्दर है, उसका मूल्य कुछ नहीं है। पारस देखनेमें पत्थर है, परन्तु उसका मूल्य संसारभरको खरीद सकता है। चिरमी लाल चमकती है, पर उसका मुँह काला है। विषय-भोग सुहावने दिखते हैं परन्तु भोगोंको भोगनेपर अन्तमें मुँह काला होता है। प्रभुको नहीं भजोगे तो मरनेके बाद घोर नरकमें पड़ोगे। प्रभु साक्षात् अमृत हैं, प्रभुको पाकर अमर हो जाओ। फिर कभी जन्मोगे-मरोगे नहीं। ऐसे प्रभुको छोड़कर विषयभोगरूप विषपान करते हो तो सदा जन्मते मरते रहोगे।
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
(रा०च०मा०, उत्तर० ४४। २)
ऐसा मनुष्य शठ एवं मूर्ख है। प्रत्यक्ष बात है विषयोंका चिन्तन करना विष खाना है। प्रभुका चिन्तन और चितवन अमृत है। प्रभुके ध्यानमें जो आनन्द है वह त्रिलोकीके राज्यमें भी नहीं है।
विषयोंका विष गुड़में लपेटा हुआ, लड्डूमें छिपाया हुआ विष है। दुर्योधनने भीमको लड्डूमें विष डालकर दिया था, भीम प्रसन्नतासे खा गया, उसके मूर्च्छित होनेपर दुर्योधनने उसे लता-पत्तासे लपेटकर समुद्रमें गिरा दिया। समुद्रमें वह बहता हुआ नागलोकमें पहुँच गया, वहाँ साँपोंके डसनेसे उसका विष उतर गया। वह सावधान होकर घर चला गया। भीमको ऐसा मौका मिल गया, तब वह बच गया नहीं तो मर जाता। उसने धोखेसे विष भरा लड्डू खाया, हम तो डंकेकी चोट खा रहे हैं। शास्त्र, महात्मा स्पष्ट कह रहे हैं, घोषणा कर रहे हैं कि यह विष है। भीमको कोई बता देता तो क्या वह खाता? इसलिये हमलोगोंको हमारा समय विषय-भोगोंमें न बिताकर प्रभुके भजन-ध्यानमें ही बिताना चाहिये। भजन-ध्यानका आनन्द प्रत्यक्ष है; ऐसा नहीं है जैसे श्राद्ध, दानका फल बादमें परलोकमें मिलता है। भर्तृहरिने कहा है—
अजानन् दाहार्तिं पतति शलभ: तीव्रदहने
न मीनोऽपि ज्ञात्वा बडिशयुतमश्नाति पिशितम्।
विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्
न मुञ्चाम: कामादहह गहनो मोहमहिमा॥
पतिंगा तीव्र अग्निकी दाहकताको न जाननेके कारण आकर्षित होकर उसमें गिरता है, मछली काँटेके बारेमें न जाननेके कारण काँटेमें लगा हुआ चारा खाती है। हमलोग अच्छी प्रकार जानते हुए भी कामरूपी विपत्तिकी जटिल रस्सियोंसे मुक्त नहीं होते, वास्तवमें मोहकी महिमा बड़ी गहन है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....