गीता गंगा
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अपने साधनका निरीक्षण करें

प्रवचन—दिनांक २०-१२-१९५९, अपराह्न ३.३० बजे, रामधाम, चित्रकूट

दीन, दु:खी, अनाथ आदिकी सेवा करना सेवा है। मरते हुएको भगवन्नाम सुनाना और गीताका प्रचार करना परम सेवा है। भगवान् गीता प्रचारकके लिये कहते हैं—

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥
(गीता १८। ६९)

उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें न कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यन्त प्यारा पृथ्वीमें दूसरा कोई होगा।

चार घण्टा मौन रहना चाहिये। जिसके अनुकूल हो वह रखे, जिसको साधन करना हो वह मौन रखे।

रातको सोनेके समयको साधन युक्त बनाना चाहिये। रातको सोते समय भगवान् के नामका जप, ध्यान एवं लीला आदिका चिन्तन करते हुए सोवें।

अपने साधनको हर समय बढ़ायें। हर घण्टे उसका निरीक्षण करें कि पिछले घण्टेसे साधन बढ़ा या नहीं, यदि नहीं बढ़ा तो खोजना चाहिये कि क्यों नहीं बढ़ा? भगवान् कहते हैं—

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
(गीता ५। २९)

मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपोंका भोगनेवाला, सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंका भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्वसे जानकर शान्तिको प्राप्त होता है।

कोई रोगी मिल जाय तो उसकी खूब तन-मन-धनसे सेवा करें। उसको भगवान् का स्वरूप समझें या उसमें भगवान् को समझें, क्योंकि सब तपों और यज्ञोंके भोक्ता भगवान् ही हैं।

जो निष्काम भावसे दूसरेके उपकारके लिये दूसरोंकी सेवा करता है उसको किसी बातका डर नहीं है। जैसे हैजा, प्लेग, टी०बी० आदिकी बीमारीमें निधड़क होकर उनकी सेवा करें, सेवा करनेवालेको किसी बातका डर नहीं है। मैंने बहुत उत्साहसे ऐसे काम किये हैं, मुझे कुछ नहीं हुआ। निष्कामभावसे जो भी काम किया जाता है वह कल्याण करनेवाला है।

गीताजीके एक-एक चरणमें रहस्यकी बात भरी हुई है। गीताजीमें प्रवेश करके उसको धारण करनेसे उसका कल्याण हो जाय उसमें तो कहना ही क्या है, वह दूसरोंका भी कल्याण कर सकता है। भगवान् ने कहा है—

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
(गीता २। ४७)

तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो।

इसको धारण करनेसे बहुत शीघ्र उद्धार हो जाता है। जीवित अवस्थामें भी उसका फल मिल जाता है।

कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, तेरा फलमें अधिकार नहीं है। फल देना तो परमात्माके अधिकारकी चीज है। अधिकारका यह भाव लेना चाहिये कि मेरा हक नहीं है। अगर अपना हक मान लिया तो उस कर्मका जितना हक होगा, उतना ही मिलेगा।

भगवान् रामकी दृष्टिसे चौदह वर्षतक राज्यपर मेरा अधिकार नहीं है। भरतजी कहते हैं मेरा अधिकार नहीं है। वहाँ दोनोंके त्यागकी प्रशंसा है। यह निष्काम-भाव है। भरतजीने राज्यका काम किया, पर उसका उपभोग नहीं किया।

ब्राह्मणको गाय दान देनेके बाद उसकी सेवा की जा सकती है, पर उसका दूध नहीं पिया जा सकता। ऐसे ही कर्म करनेमें ही अपना अधिकार है, फलमें अपना अधिकार नहीं है। कोई भी उत्तम कर्म करे उसे अच्छी तरहसे करे, पर फलमें अधिकार नहीं माने।

भगवान् कहते हैं तू कर्मफलका हेतु भी मत बन, यदि तू कर्मफलका हेतु बन जायगा तो तुझे भोगना पड़ेगा और मुक्ति नहीं मिलेगी। फलको छोड़नेसे ही मुक्ति होती है। न तो वाणीसे यह कहे कि मैंने यह बढ़िया काम किया और न मनमें अभिमान करे। कर्म करके उसके फलमें भी आसक्ति न रखे। न उसमें अहंता ममता रखे, न आसक्ति रखे, न वासना रखे, उनसे अपना सम्बन्ध ही न जोड़े। जैसे पुण्य कर्म करे तो उसको स्वर्ग मिलेगा, स्वर्गके बाद फिर उसको यहाँ मृत्युलोकमें आना पड़ेगा। उससे आना-जाना नहीं मिटा। सब काम भगवदर्थ करनेसे कल्याण होता है।

कर्म न करनेमें भी तुम्हारी प्रीति नहीं होनी चाहिये। कर्म करनेमें ममता, आसक्ति आदि नहीं रखनी चाहिये।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...

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