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बहुत-से जन्म तो हमारे हो चुके

प्रवचन—दिनांक २२-५-१९५३, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम

आज आपको बहुत लाभकी बात बतायी जाती है। जो परमात्माकी प्राप्तिके मार्गमें चलता है, जो साधनावस्थामें है, उससे भूल होना स्वाभाविक ही है। मनुष्य अज्ञ है, अज्ञानतामें दोष आ ही जाता है। जितने भी सिद्धान्त हैं, मान्यतायें हैं या मत-मतान्तर हैं सभी भ्रममें भी डालनेवाले हैं और मुक्ति भी देनेवाले हैं। एक-से-एक अलग है, इस तरह ये भ्रममें डालनेवाले हैं और किसी एकको मानकर उसके अनुसार आचरण करे तो मुक्ति हो जाय। आपलोगोंको बड़ी महत्त्वकी बात बतायी जाती है, समझनेकी आवश्यकता है। हमारी जो भावना रुपयोंकी प्राप्तिकी है, वह नहीं होनी चाहिये, अपितु भगवान् की प्राप्तिकी नीयत होनी चाहिये। नीयत असली होनी चाहिये, फिर साधनमें कोई भूल हो भी जाती है तो भगवान् स्वयं क्षमा कर देते हैं। उसे भगवान् स्वयं सँभाल लेते हैं। हमें चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं। हमारी नीयतमें दोष नहीं होना चाहिये। परमात्माको प्राप्त करना सच्ची नीयत है। फिर बीचमें मान-बड़ाई तथा शरीरके आरामको आदर देता है तो वह नीयतका दोष है। जहाँ मान-बड़ाई प्राप्त हुई, भले ही भगवान् नाराज हों उसको आदर न दे। यदि आदर देता है तो वह साधन परमात्माकी प्राप्तिके लिये नहीं, अपितु मान-प्रतिष्ठाके लिये है; क्योंकि जब मान-प्रतिष्ठा मिलती है तो फूल जाते हैं और भगवान् को भूल जाते हैं। यह भगवान् की प्राप्तिमें विघ्न है—ऐसा मानकर इसका तिरस्कार कर देना चाहिये। जो भगवान् की प्राप्तिमें बाधक है उसे लात मारकर निकाल देना चाहिये। यदि परमात्माकी प्राप्तिके लिये साधन होगा तो कंचन-कामिनी, मान-बड़ाईमें अटकेंगे नहीं। यदि साधनका आदर नहीं करेंगे तो नीयत उच्चकोटिकी नहीं है। दम्भी-पाखण्डी भजन-ध्यानका ढोंग करके दूसरोंको मोहित कर लेते हैं और अपनी सेवा-पूजा करवाने लग जाते हैं। जब पूजा स्वीकार करने लग जाता है तो वह पूजाका दास हुआ, न कि भगवान् का दास। जो स्त्रीके वशमें हो जाता है वह स्त्रीका दास है, परमात्माका दास नहीं। यदि परमात्माका दास होता तो इन सबको ठुकरा देता। कई साधक खुली जगहमें बैठकर लोगोंको दिखानेके लिये खूब जोरोंसे ध्यान करते हैं और जब वे एकान्तमें होते हैं तो उनसे कभी माला हाथमेंसे गिरती है तो कभी नींद आती है, क्योंकि वहाँ कोई देखता तो है नहीं, बाहर तो वह दूसरोंको दिखानेके लिये ही करता है। वहाँ भगवान् नहीं आते; क्योंकि वह तो ठग है। ऐसी जगहसे भगवान् बहुत दूर रहते हैं। भीतरसे भगवान् को चाहे और भगवान् के आनेमें देर हो तो भीतरमें दु:ख हो कि अभीतक भगवान् नहीं आये, क्या बात है? हे भगवन्! यदि आप नहीं आयेंगे तो हमारी क्या गति होगी, हम तो मारे जायँगे। आपके बिना हमारा कोई भी सहायक नहीं। यह भाव होना चाहिये।

भजन-ध्यान हो गया सो हो गया—ऐसा कहनेसे भगवान् नहीं मिलते। हमारा समय यदि ठीक नहीं बीत रहा है तो इसे ठीक बितानेकी चेष्टा करनी चाहिये। जब दाँत टूट जायँगे, मुँहपर झुर्रियाँ पड़ जायँगी, चलना-उठना-बैठना मुश्किल हो जायगा, तब हमारा क्या सुधार होगा? क्या अभी आपके हाथमें समय है? भरोसा नहीं कब मृत्यु हो जाय। कब इस संसार-सागरसे चले जायँ। मृत्यु आ जायगी तो क्या आप उसे कहेंगे कि आज नहीं कल आ जाना। कहनेसे भी कौन सुनेगा? फिर तो शरीरके साथ-साथ सब सम्पत्ति यहीं छूट जायगी। किसीके साथमें कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहेगा। कुटुम्बके साथ भी बिलकुल सम्बन्ध नहीं रहेगा। केवल प्राण, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि—ये ही साथमें जायँगे। स्थूल-शरीरको छोड़कर सूक्ष्म-शरीरसे चले जाओगे। तुमको अपनी सारी आयुमें वही धन प्राप्त करना चाहिये जिससे भगवान् खरीदे जायँ। यदि इस जीवनमें भगवान् नहीं मिलेंगे तो पूँजी तो रहेगी ही, यानी आपने जो भजन-ध्यान, नामजप किया है वह पूँजी तो रहेगी ही। अगले जन्ममें योगभ्रष्टके रूपमें जन्म हो जायगा, तब मुक्ति हो जायगी। अन्य किसी योनिमें तो भगवान् की प्राप्ति होनी मुश्किल है। पुन: मनुष्य योनि तभी मिलेगी, जब योगभ्रष्ट हो जाओगे। भगवान् से अर्जुन पूछ रहे हैं—

अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥
(गीता ६। ३७ )

जो श्रद्धावान् है किन्तु संयमी नहीं है, ऐसा योगसे चलित हुए मनवाला साधक संसिद्धिको न पाकर कौन-सी गतिको जाता है? भगवान् उत्तर देते हैं—

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥
(गीता ६। ४० )

हे पार्थ! उस पुरुषका, न तो इस लोकमें और न परलोकमें ही नाश होता है; क्योंकि हे प्यारे! कोई भी शुभ कर्म करनेवाला दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता है।

अच्छे कर्मोंको करनेवालेकी कभी दुर्गति नहीं होती। वह यहाँसे मरकर स्वर्गमें न जाकर योगियोंके घरमें जन्म लेता है। यह भी कोई आसान चीज नहीं, लाखोंमें कोई एक-दो ही ऐसे होते हैं। महात्मा पुरुषोंको योगी कहते हैं, उनके यहाँ जन्म लेकर वह भी वैसा ही आचरण करने लग जाता है, फिर उसे भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। असली धन वही है, जिसके बलसे योगियोंके कुलमें जन्म होता है। वह अच्छी नीयतसे किया हुआ साधन है। इस जन्ममें मन-बुद्धिको शुद्ध बनाकर जायँगे तो दूसरे जन्ममें भगवान् की प्राप्ति हो जायगी। इसी जन्ममें पन्द्रह आना लाभ हो जायगा तो आगे फिर जन्म नहीं लेना पड़ेगा।

इन्द्रियोंकी पवित्रता रखनी चाहिये। नेत्रोंकी पवित्रता क्या है? माता-बहनोंको अच्छी दृष्टिसे देखें। अपनेसे बड़ी हो तो उसे माता, बराबरवाली हो तो बहिन समझें। सबमें ईश्वरको देखना हमारे नेत्रोंकी विशेष पवित्रता है।

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९ )

बहुत जन्मोंके अन्तमें तत्त्वज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है अर्थात् वासुदेवके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है, इस प्रकार मेरेको भजता है वह महात्मा अति दुर्लभ है।

बहुत-से जन्मोंके अन्तमें ज्ञानवान् पुरुष मुझे प्राप्त होता है। किन्तु वासुदेव सब जगह हैं ऐसा माननेवाला महात्मा बड़ा ही दुर्लभ है। हमारे बहुत-से जन्म हो चुके। इसी जन्ममें यदि हम भगवान् की प्राप्ति कर लें तो यही हमारा अन्तिम जन्म हो जाय। सबमें भगवद‍्बुद्धि हो जाय, सबको भगवान् समझकर सेवा करें तो हाथ पवित्र हो जायँ। कान पवित्र होते हैं—भगवान् के गुण, प्रभाव एवं प्रेमकी बात सुननेसे। मिथ्या बातें सुननेसे कान दूषित होते हैं। दोषोंको इकट्ठा करके ले जायँगे तो फोनोग्राम (टेपरिकार्डर)-की तरह खींचे जायँगे। वासुदेव: सर्वमिति ऐसा उच्चभाव रखना चाहिये। वाणीसे किसीको भी गाली नहीं देनी चाहिये। किसीको गाली देनेसे, निन्दा करनेसे, मिथ्याभाषणसे वाणी दूषित होती है। ये संस्कार मरनेपर साथ जायँगे। वाणीके द्वारा भगवान् के नाम, गुणोंका स्वाध्याय हो तो वाणी परम पवित्र हो जाय, तब तो हमारा इसी जन्ममें कल्याण हो जाय।

ये इन्द्रियाँ यदि यहाँपर ही शुद्ध हो जायँ तो यहीं प्राप्ति हो जाय, अन्यथा अगले जन्ममें भगवान् की प्राप्ति होगी। यदि हमने वाणीमें कूड़ा-करकट भर लिया तो नरकोंमें गिरना पडे़गा। ऐसी योनियाँ मिलेंगी जहाँ परमात्माकी प्राप्ति हो ही नहीं सकती। हमको इतनी तेजीसे चेष्टा करनी चाहिये कि हमें भगवान् की प्राप्ति इसी जन्ममें हो जाय। हमारे पास जितनी भी शक्तियाँ हैं उन सबको परमात्माकी प्राप्तिमें लगा देना चाहिये। नहीं तो घोर पश्चात्ताप करना पड़ेगा।

सो परत्र दु:ख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ४३)

इन सब बातोंको सोचकर हमें परमात्माकी प्राप्तिको नहीं छोड़ना चाहिये। यह परम हितकी बात है, इसे नहीं छोड़ना चाहिये। इससे बढ़कर और कोई हित नहीं। आप भटकते फिरते हैं, क्योंकि आपको पूर्णानन्दकी प्राप्ति नहीं हुई। जब मनुष्य उस आनन्दसे तृप्त हो जाता है तो उसे कोई भी चीज अच्छी नहीं लगती। जब उस आनन्दसे भर जाता है तब उसे किसी भी चीजकी आवश्यकता नहीं रहती। उस आनन्दकी प्राप्तिके बाद शरीरको चाहे काट डालो, जला दो, पर आनन्दकी स्थिति वैसी ही बनी रहेगी। यही परीक्षा है।

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
(गीता ६। २२)

जिसको पाकर उससे बढ़कर और कुछ नहीं समझता। जिस परमात्माके स्वरूपमें स्थित होकर भारी-से-भारी दु:खसे भी चलायमान नहीं होता है।

इसके लिये हमारे पास शरीर है ही, इस चीजको अवश्य प्राप्त करना चाहिये। यह बहुत शीघ्र और सुगमतासे हो सकता है। हमने इसकी अवहेलना कर रखी है, इसलिये वञ्चित रह जाते हैं। ‘कर्तुं सुसुखं’ करनेमें बड़ा ही सुगम है चाहे घोर पापी भी क्यों न हो, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है। भगवान् कहते हैं—

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(गीता १२। ७)

हे अर्जुन! उन मेरेमें चित्तको लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ।

जिन्होंने मेरेमें चित्त लगा दिया है उन्हें मैं इस संसार-सागरसे शीघ्र ही पार कर देता हूँ। विलम्बका काम नहीं है। योगयुक्तोमुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति (गीता ५। ६) भगवत्स्वरूपको मनन करनेवाला निष्काम कर्मयोगी परब्रह्म परमात्माको शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
(गीता ४। ३९)

हे अर्जुन! जितेन्द्रिय, तत्पर हुआ, श्रद्धावान् पुरुष ज्ञानको प्राप्त होता है और उस ज्ञानको पाकर तत्क्षण भगवत्प्राप्तिरूप परमशान्तिको शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।

भगवान् ने जगह-जगह शीघ्र ही प्राप्ति बतायी है। विलम्बका काम नहीं है। आप कहते हैं कि हमें साधन करते हुए बहुत-से वर्ष हो गये, हमें अभीतक किसी भी चीजकी प्राप्ति नहीं हुई है। आप झूठ भले ही कहें, वास्तवमें आपने साधन किया ही नहीं। जब आप मूल्यवान् वस्तु चाहते हैं, तब साधन भी मूल्यवान् होना चाहिये। आप कठिन मानते हैं और भगवान् कहते हैं करनेमें बड़ा सुगम है। फल भी प्रत्यक्ष है, आज करो और दूसरे जन्ममें उसका फल मिलेगा यह बात नहीं है।

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥
(गीता ९। २)

यह ज्ञान सब विद्याओंका राजा तथा सब गोपनीयोंका भी राजा है एवं अति पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला और धर्मयुक्त है, साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है।

भगवान् अर्जुनसे कहते हैं तू मेरा अतिशय प्यारा है इसलिये कहता हूँ। नहीं तो भगवान् को क्या पड़ी थी। कैसा भी पापी हो, जिस प्रकार साबुन मैले-से-मैले कपड़ेको साफ कर देता है, उसी प्रकार ज्ञानमें भी इतनी शक्ति है कि वह पापियोंको भी पवित्र कर डालता है। फल भी प्रत्यक्ष होता है जिस प्रकार भोजनसे क्षुधाकी निवृत्ति होती है, जलसे प्यासकी निवृत्ति होती है। यह भूख-प्यासकी निवृत्ति तो एक बार होती है, फिर पुन: आवश्यकता हो जाती है, किन्तु यह अविनाशी है। इसके लिये परिश्रम भी नहीं करना पड़ता। कठिन मानते हैं यह मूर्खता है। हमें भगवान् के वचनोंपर विश्वास करके इसमें लग जाना चाहिये और यह निश्चय कर लेना चाहिये कि या तो भगवान् को प्राप्त ही करेंगे, अन्यथा प्राण छोड़कर मर मिटेंगे।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....

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