Hindu text bookगीता गंगा
होम > परम सेवा > कब चेतोगे

कब चेतोगे

प्रवचन-तिथि—आषाढ़ कृष्ण ८, बुधवार, संवत् २००१, सन् १९४४, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम

जितने सुन्दर-सुन्दर शरीर हैं इन सबकी एक दिन खाक या मिट्टी होनेवाली है। आज यदि मृत्यु हो जाय तो आज ही खाक है। उस खाकको फिर कोई स्पर्श भी नहीं करेगा। शरीरमें हाड़-मांस और भी जो कुछ है सब भस्म हो जायगा, कोई चीज काम नहीं आयेगी। इसलिये जबतक यह भस्म न हो, तबतक इससे खूब काम लेना चाहिये। अभी तो इसको बढ़िया-से-बढ़िया काममें लिया जा सकता है। हजारों बार हमारे शरीरकी खाक हुई है, इस शरीरकी भी होनेवाली है। ऐसा सुन्दर शरीर, ऐसा मूल्यवान् शरीर, जिसकी भस्म होनेवाली है, लाख रुपया देनेपर भी नहीं मिल सकता। कितनी मूर्खता है जो इससे काम न लिया जाय। मरनेके बाद इसका कोई मूल्य नहीं, इसे कोई घरमें भी नहीं रखेगा। इसलिये इस शरीरसे खूब काम लेना चाहिये। यही बुद्धिमानी है। पूरे दिनकी भाड़ेकी मोटर होती है, उसे भाड़ा दे दिया गया, अब उससे खूब काम लो। जो उससे काम नहीं लेता है, वह मूर्ख है। जैसे किसी खेतमें कोयला है और उस खेतको एक सालके लिये ठेकेपर ले लिया, अब उसमेंसे जितना कोयला निकाल लिया जाय, वही अपना है, एक साल बाद अपना अधिकार नहीं रहेगा। इसी प्रकार जब तक यह शरीर है उससे खूब काम लेना चाहिये। इसमें भी भगवान् का भजन-ध्यान-सत्संग करना बहुत मूल्यवान् है। रत्न भी इसके सामने कोई मुकाबलेकी चीज नहीं है, इसलिये इस शरीरसे लाभ उठाना चाहिये। ऐसा लाभ उठाये कि सदाके लिये सुखी हो जाय। वर्तमानमें तो हम रात-दिन जल रहे हैं। उबलते हुए तेलमें जैसे पकौड़ा जलता है इस तरह जलते रहते हैं। इस दु:ख, चिन्ता, भय, शोकको सदाके लिये दूर करना चाहिये। ईश्वरने हमें बुद्धि, विवेक, ज्ञान दिया है, उससे लाभ उठाना चाहिये। हम महान् दु:खी हो रहे हैं, इस दु:खका अत्यन्त अभाव कर देना चाहिये। जो बात बीत गयी सो बीत गयी, आनेवाले दु:खका अभाव कर देना चाहिये और यह मनुष्य-शरीरमें हो सकता है। मूर्खतासे दु:ख होता है, मूर्खता है अज्ञानसे, अज्ञानका नाश होता है ज्ञानसे और ज्ञान होता है अन्त:करण शुद्ध होनेसे। इसलिये हमलोगोंको भजन-ध्यान-सत्संग करना चाहिये, जिससे अन्त:करण शुद्ध हो। भगवान् गीतामें कहते हैं—

कायेन मनसा बुद्धॺा केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिन: कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्वक्त्वात्मशुद्धये॥
(गीता ५। ११)

निष्काम कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीरद्वारा भी आसक्तिको त्याग कर अन्त:करणकी शुद्धिके लिये कर्म करते हैं।

आसक्तिको त्यागकर निष्काम-भावसे कर्म करनेसे या ईश्वरके भजनसे शाश्वत शान्ति मिलती है।

युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
(गीता ५। १२)

निष्काम कर्मयोगी कर्मोंके फलको परमेश्वरके अर्पण करके भगवत्प्राप्तिरूप शान्तिको प्राप्त होता है।

भगवान् कहते हैं—

विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति॥
(गीता २। ७१)

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित, स्पृहारहित हुआ बर्तता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।

जो व्यक्ति सम्पूर्ण कामना, ममता, अहंकारको त्यागकर विचरता है, वह शान्तिको प्राप्त हो जाता है। यदि आपको नित्य शान्ति, परम आनन्दकी आवश्यकता है तो सबसे प्रेम हटाकर भगवान् में प्रेम करो, यही सरल उपाय है।

कीर्तन—नारायण नारायण नारायण, श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....

जैसे हमने यहाँ कीर्तनकी धुन लगायी, इसी तरह मरनेवाले व्यक्तिके पास लगानी चाहिये। वह नारायणका ध्यान करता करता मर जाय तो उसका बेड़ा पार है। भगवान् ने गीताजीमें कहा है—

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)

जो पुरुष अन्तकालमें मेरेको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

मरनेके समय और मरनेके बाद यह प्रबन्ध तो करना ही चाहिये। छोटा मरे चाहे बड़ा। इस तरह कीर्तन सुनते हुए मरना ही सराहने योग्य है। जिस प्रकार भीष्मजीने गंगा किनारे शरीर छोड़ा यह बड़े आनन्दकी बात है।

मरनेके समय बाहरी प्रयत्नमें सबसे बढ़कर यही है कि मरणासन्न व्यक्तिको भगवान् के नामका कीर्तन सुनाये या गीताजी सुनाये। उसका स्वत: भगवान् में, भगवन्नाम या गीताजीमें ध्यान हो वह तो लाभकी चीज है ही। नारायणका नाम श्रवण करता हुआ मृत्युको प्राप्त हो जाय तो भी बेड़ा पार है।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण.......

अगला लेख  > भगवान् के चिन्तनका महत्त्व