भगवान् भक्तकी इच्छा पूर्ण करते हैं
प्रवचन—दिनांक १५-५-१९५२, स्वर्गाश्रम
प्रश्न—रामायणमें कहा है—‘राम सदा सेवक रुचि राखी।’ क्या अंगदजी भगवान् के सेवक नहीं थे, जो उन्होंने अंगदको अपने पास न रखकर अयोध्यासे भेज दिया?
उत्तर—भगवान् तो सदा भक्तकी रुचि रखते ही हैं। उनमें कुछ वासना रही होगी। भगवान् अन्तर्यामी हैं, वे मनकी बातें जानते हैं। मनमें कुछ वासना समझकर ही उसे किष्किन्धा भेजा होगा। अंगद भगवान् के ऊपर कोई भार तो था ही नहीं। अंगदकी युवराज पदमें प्रीति थी, उसका उस तरफ खिंचाव था। भगवान् जो करते हैं, सब ठीक ही करते हैं। भगवान् की किष्किन्धामें दुकान तो चलती नहीं थी, जो उसे वहाँ भेजते। वाल्मीकिरामायणमें रामजीने पूछा—लवणासुरको कौन मार सकता है? शत्रुघ्नजीने कहा—मैं मार सकता हूँ। भगवान् ने उनको भेज दिया और वहाँका राजा बना दिया। भगवान् सब कुछ जानते हैं, वे ठीक ही करते हैं। ऐसे ही सीताजीने कहा—मैं वनमें जाकर ऋषियोंके दर्शन करूँगी। भगवान् ने लक्ष्मणके साथ कुछ ही दिनोंमें सदाके लिये वनमें भेज दिया।
भगवान् अन्तर्यामी हैं। अत: भगवान् को भीतरी इच्छाका पता होनेसे वे प्रत्येककी इच्छाको पूर्ण करते हैं। अंगद किष्किन्धामें रहना चाहता था, इसीलिये उसे वहाँ भेजा था—यही भाव निकालना चाहिये।
अंगद यदि भगवान् के बिना नहीं रह सकता था, तो पुन: प्रार्थना करता। प्रार्थना करनेका तो उसका अधिकार था ही। इसलिये ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी रुचि किष्किन्धामें रहनेकी थी। भगवान् जिसके लिये जो विधान बनाते हैं, वह ठीक ही है।
गीताजीसे लाभ उठाना चाहिये। गीताजी रोम-रोममें रमानी चाहिये। जिस प्रकार हनुमान् जी ने राम-नामको रोम-रोममें रमाया था, उसी प्रकार हमें भी गीताजी रोम-रोममें रमानी चाहिये। गीताजीके समान कोई भी ग्रन्थ नहीं है। भगवान् ने गीताजीमें कहा है—
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)
जो पुरुष अन्तकालमें भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागकर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है—इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥
(गीता ८। ७)
हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर, इस प्रकार मेरेमें अर्पण किये हुए मन, बुद्धिसे युक्त हुआ नि:सन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा।
यही बात हमें अपने पर घटानी चाहिये। हमें भगवान् को याद करके हमारी सारी क्रियाओंको करना चाहिये। भागवतके दशम स्कन्धमें आया है—गोपियाँ हर समय भगवान् को याद रखती थीं। कभी भी नहीं भूलती थीं। भगवान् को बाध्य होकर यह कहना पड़ा—गोपियोंके समान मेरा प्रिय कोई भक्त नहीं है। मेरेको जो बुद्धि अर्पण कर देता है, वह मुझे प्राप्त हो जाता है। जो अन्तकालमें मेरा ही नाम-जप करता हुआ मरता है, वह मेरे भावको प्राप्त होता है।
पता नहीं, कब मर जायँ? कब यात्रा करते हुए गाड़ीकी पटरीके नीचे आ जायँ? क्या पता, कब हार्ट फेल हो जाय? इसलिये जब हम हर समय भगवान् के नामोंका जप करेंगे, तो अन्तकालमें भगवान् का नाम अवश्य याद आयेगा। नाम याद आनेसे हम निश्चय ही भगवान् के धामको चले जायँगे। यदि हम यह समझें कि अन्तकालमें नाम-जप कर लेंगे, बिना अभ्यास ऐसा नहीं हो सकता। जो बात हर समय याद रहती है, वही बात अन्तकालमें याद रहती है। भगवान् की स्मृतिमें जो आनन्द मिलता है, वह आनन्द सांसारिक विषयोंमें नहीं मिल सकता—
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
(रा०च०मा०, उत्तर० ४४। २)
तुलसीदासजीकी इस चौपाई पर विश्वास कर लेना चाहिये। जो विषय-भोगोंमें मन लगाता है, वह मूर्ख अमृतकी जगह विष ही ग्रहण करता है।
कहाँ भगवान् का चिन्तन, कहाँ विषय! कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली! कहाँ राम राम, कहाँ टाँय-टाँय! जो प्रेमकी मूर्ति हैं, अमृतस्वरूप हैं, उसको छोड़कर जो विषस्वरूप विषयोंकी ओर मन ले जाता है, वह मूर्ख अमृतके बदले विष लेता है—
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई।
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
(रा०च०मा०, उत्तर० ४४। ३)
चिरमी (गुंजा) चमकती है, पारस पत्थर दीखता है। बच्चोंके सामने यदि ये दोनों चीजें रख दी जायँ तो वे चिरमी ही लेंगे। उसी प्रकार वे मनुष्य भी बच्चेकी तरह ही हैं, जो पारसमणिको छोड़कर चिरमी माँगते हैं। भजन-ध्यानमें कितना आनन्द है, इसके रहस्यको वही समझता है, जो भजन-ध्यान करता है, दूसरा इसको नहीं जानता। देवता जो अमृत पान करते हैं, उसे हम क्या समझें? वे देवता ही समझते हैं। इसी प्रकार यह अमृत है।
यदि कोई कहे कि भगवान् के नाममें कोई आनन्द नहीं है, अत: मन नहीं लगता। वह कुछ समझता ही नहीं है। शक्करके ढेलेपर एक चींटीको रख दो। यदि वह उसे नहीं चखेगी तो स्वाद भी नहीं आयेगा। उसी प्रकार हम भगवान् के नामोंपर कुछ ध्यान नहीं देते हैं, इसीलिये उसका आनन्द नहीं आता। वैराग्य करना चाहिये। वैराग्यकी बातें जाननी चाहिये। यदि हम वेश्यासे वैराग्यके विषयमें पूछेंगे तो वह वेश्या क्या बतायेगी?
सन्त-महात्माओंमें भगवद्बुद्धि करनी चाहिये। सन्त-महात्माओंमें ईश्वरकी मान्यता इसलिये बतायी गयी है कि वे जो भी कुछ उपदेश देंगे, हमारे भलेके लिये ही देंगे। यदि वह सन्त-महात्मा सच्चा नहीं है तो भगवान् हमारी बुद्धि ठीक करेंगे। हमारे यहाँ अन्धेर है, परमात्माके यहाँ अन्धेर नहीं है। यदि हम दूसरोंमें ईश्वरबुद्धि करेंगे तो हमारा उद्धार हो जायगा। ईश्वरपर निर्भर होकर रहना चाहिये। एकान्तमें बैठकर रोना चाहिये—हे भगवान्! यदि मुझमें भूल है तो सुधारिये। मैं धोखेमें हूँ तो मुझे सुधारिये। जो कुछ मेरी चेष्टा है, वह आपके लिये ही है। मैं कुछ नहीं जानता हूँ, आप ही जानते हैं। भगवान् पर निर्भर होकर गद्गद वाणीसे प्रार्थना करनी चाहिये, फिर जो आदेश मिले, उसपर विश्वास कर लेना चाहिये। अन्तमें एक रामबाण बताते हैं—भगवान् से प्रार्थना करनेसे भगवान् जो प्रेरणा करेंगे, उस प्रेरणाके अनुसार व्यवहार करनेसे मुक्ति हो सकती है। मनुष्यकी सलाहसे क्या होनी जानी है?
अब मैं महात्माका कर्तव्य बताता हूँ। यदि किसी जिज्ञासुने उसपर भगवद्बुद्धि कर ली तो उस महात्माको इसका घोर विरोध करना चाहिये। यदि वह शास्त्र-सम्मत काम नहीं करता है, यदि वह ऐसा नहीं कहता है तो वह दूसरोंको धोखा देता है। महात्माका कर्तव्य होता है कि वह यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा करे। ऐसा करनेसे वह दोषका भागी नहीं होता। यदि वह प्रोत्साहन देता है और अपनेमें श्रद्धा करवाता है तो वह महात्मा नहीं है।
मैं अड़तालीस वर्षसे इस कामको (प्रवचन देना) कर रहा हूँ। मेरी जब बीस वर्षकी आयु थी, तबसे ही यह काम प्रारम्भ कर दिया था। यदि आप इस बातको काममें लायेंगे तो मेरा इतना परिश्रम सफल हो जायगा। युक्तियुक्त एवं शास्त्र-सम्मत बात आपसे कही गयी है। महात्मामें यदि कोई ईश्वरबुद्धि करे तो महात्माको उसे रोकना चाहिये। यदि वह नहीं रोकता है तो अपनेको तथा शिष्यको दोनोंको ही गर्तमें डालता है। जिन्होंने अनुचित श्रद्धा की है, उन्होंने पश्चात्ताप भी किया है। इसलिये यदि किसीकी महात्मामें भगवद्बुद्धि हो जाय तो महात्माको ही चाहिये कि वह उसे रोके। आप यदि मुझे ईश्वर मानेंगे और मैं प्रोत्साहन दूँगा तो बहुत ही खराब होगा। यदि मैं उसे रोकूँगा तो वह किस प्रकार गर्तमें जा सकता है?
प्रश्न—यदि कोई अपनेको महात्मा नहीं मानने देगा तो हमारा उद्धार किस प्रकार हो सकता है?
उत्तर—हमें यदि कोई कहे कि आप हमारे रुपये जमा कर लें, हम ब्याज भी नहीं लेंगे। हम यदि उनके रुपये जमा नहीं करें, तभी हमारी बड़ाई है। यदि हम जमा कर लें तो यह बहुत ही खराब है।
अपने आपको श्रेष्ठ मानना बहुत ही पतनकी चीज है। जो अपनी पूजा करवाता है, उसके प्रति श्रद्धा अवश्यमेव हट जाती है। हम माता-पिता, गुरुजनोंकी सेवा करें और वे यदि मना करें तो उनके प्रति आदर बढ़ता है, दूसरोंपर भी बड़ा ही अच्छा प्रभाव पड़ता है। यह त्याग है। इस त्यागका जितना प्रभाव पड़ता है, उतना और किसीका नहीं। रुपयोंका त्याग, ऐश-आरामका त्याग, मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा—इन सबका त्याग करना चाहिये। हम त्यागकी बात दूसरोंको कहते हैं, हममें यदि त्यागकी भावना नहीं है तो दूसरोंपर इतना अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है। जिसमें त्यागकी भावना जितनी अधिक है, वह उतना ही श्रेष्ठ है। यदि मैं मान-बड़ाईके त्यागकी बात कहूँगा और मेरेमें लोग इसका अभाव देखेंगे तो उनमें मेरे प्रति घृणा ही होगी। आजकल वक्ताका प्रभाव नहीं पड़ता; क्योंकि उनमें वे बातें नहीं घटतीं, जो उनके द्वारा कही जाती हैं।
मैं तो भक्तोंकी गाथाओंमेंसे तथा भगवान् के वचनोंमेंसे कुछ कह दिया करता हूँ। उसका पालन मैं करूँगा तो मुझे लाभ होगा, यदि कोई दूसरा भी इसका पालन करेगा तो उसे लाभ होगा। यदि मैं ऐसा कहूँगा कि मैं इतना बड़ा आदमी हूँ, मेरेमें सब बातें हैं तो मुझे कोई भी महात्मा नहीं कहेगा। अपने मुँहसे अपनी बड़ाई तो करनी ही नहीं चाहिये, उससे किसीपर प्रभाव नहीं पड़ता है।
प्रश्न—स्त्रीको ओंकारका उच्चारण करना चाहिये या नहीं?
उत्तर—स्त्रीको ॐकारकी उपासना या उच्चारण नहीं करना चाहिये और जिस मंत्रमें ॐ आता है शास्त्रोंमें स्त्रियोंके लिये उसका भी निषेध किया है। हम तो इसके निषेधकी प्रार्थना करते हैं। यदि कोई न सुने तो मुझे कोई मतलब नहीं। इससे मुझे व्यक्तिगत न कोई लाभ है, न कोई हानि है। यह तो विनयके रूपमें कहा गया है। कोई माने, चाहे न माने, उसकी मर्जी है। वैदिक मन्त्रोंका स्त्रियोंके लिये निषेध है। पुराण एवं इतिहास ग्रन्थोंके लिये मनाही नहीं है। अच्छे-अच्छे विद्वानोंकी बातें सुनकर ही यह कहा गया है। इतिहास-पुराण तो सुननेका ही नहीं, पढ़ने तकका सबको अधिकार है।
एक बार बहुत-से सन्त यहाँ ऋषीकेशमें इकट्ठे हुए थे। मैं तो एक साधारण मनुष्य ही हूँ। मालवीयजीका यह पक्ष था कि स्त्रियाँ पौराणिक बातें पढ़ सुन सकती हैं। करपात्रीजी महाराजने कहा सुन सकती हैं, किन्तु पढ़ नहीं सकतीं। जब मुझसे राय ली, तब मैंने कहा—दोनों ही बातें शास्त्रोंमें आती हैं।
कहीं-कहीं यह भी मिलता है कि दण्डी स्वामी ही ओंकारका जप कर सकते हैं। राम-नामका उतना ही महत्त्व है जितना ओंकारका महत्त्व है। हमारे लिये मुक्तिका द्वार खुला हुआ है, हम क्यों ओंकारके जपके लिये जिद करें। मैं तो कहता हूँ कि जिस प्रकार मुसलमान अल्ला-अल्ला करते हैं, यदि वे प्रेममें मग्न होकर करें तो उन्हें भी उतना ही फल मिलेगा।
तुलसीदासजी राम-नामके उपासक थे। उन्होंने कहा—राम-नामकी महिमा सबसे बढ़कर है। उन्होंने रामचरितमानसकी रचना करके राम-नामको पार उतरनेका साधन बता दिया। सूरदासजीने कहा—कृष्णका नाम सबसे बड़ा है। ध्रुव कहेंगे—ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘सबसे श्रेष्ठ है। मुसलमान कहेगा अल्लाह ही श्रेष्ठ है। जैसे कोई पानीको जल कहे, कोई आप कहे, कोई नीर कहे, कोई वाटर या पानी कहे, कुछ भी क्यों न कहो, अर्थ तो जल ही होगा। ऐसे ही परमात्माके बहुत-से नाम हैं, कोई भी नाम लो, मुक्ति मिल सकती है।
बच्चा कहता है ‘बू’ तो माँ समझकर उसे दूध पिला देती है। इसी प्रकार हम ॐकारका जप न करके, राम-नामका जप करेंगे, तो राम-नामके जपसे हमारा उद्धार क्यों नहीं होगा? अवश्य होगा।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....