भगवान् के चिन्तनका महत्त्व
प्रवचन-तिथि—आषाढ़ शुक्ल २, संवत् २००१, सन् १९४४, दोपहर, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
भजन-ध्यान-सेवा यह खेती है, इन्हें सींचना चाहिये। इसकी सिंचाई होती है सत्संगरूपी जलसे। सत्संग नहीं मिले तो साधकोंका संग करना चाहिये, वह भी नहीं मिले तो गीता, रामायण आदि शास्त्रोंका स्वाध्याय करना चाहिये, इससे भी खेती हरी-भरी रह सकती है।
स्वामी रामसुखदासजीने कहा आगेके लिये साधन बना रहे, उसके लिये बात बताइये? बात बहुत मूल्यवान् है, मृत्युका कोई भरोसा नहीं है, न मालूम कब मृत्यु हो जाय, मृत्युके समय भगवान् की स्मृति नहीं रही तो निश्चय दुर्गति है। पता नहीं कब मृत्यु आ जाय, इसलिये हमें हर समय भगवान् का चिन्तन करना चाहिये। चाहे हमारे प्राण चले जायँ, किन्तु हम भगवान् को नहीं भूलें। निरन्तर भगवान् के भजन-ध्यानके लिये गीताजीमें बताया है—
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८। १४)
हे अर्जुन! जो पुरुष मेरेमें अनन्यचित्तसे स्थित हुआ सदा ही निरन्तर मेरेको स्मरण करता है, उस निरन्तर मेरेमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।
नित्य निरन्तर भगवान् के स्मरणसे भगवान् सुलभ हैं। भगवान् मिल गये तो जीवन सफल हो गया। पहली बात यह है कि शरीरका भरोसा नहीं, यदि भगवान् के भजन-ध्यानके बिना शरीर छूट गया तो पता नहीं कहाँ तक पतन हो सकता है। भगवान् ने गीताजीमें बताया है—
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥
(गीता ८। ६)
हे कुन्तीपुुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावको स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागता है, उस उसको ही प्राप्त होता है; क्योंकि सदा जिस भावका चिन्तन करता है, अन्तकालमें भी प्राय: उसीका स्मरण होता है।
यदि हमें अन्त-समयमें पशुकी स्मृति हो गयी तो पशु ही बन जायँगे, जैसे जड़भरत मुनि हिरण बन गये। अन्त-समयका पता नहीं इसलिये दूसरी चीजको मौका दें ही नहीं।
गोकुलचन्द नामका एक भाई बीमार था, आज उसकी मृत्यु हो गयी। पच्चीस-तीस हजार रुपयेका उसके पास सामान और रुपया आदि था, पुलिस उठाकर ले गयी। यदि वह जीते-जी रुपयोंको अच्छे काममें लगा देता तो कितना उपकार होता। यही दशा सबकी होनेवाली है, इसलिये जबतक मृत्यु दूर है, तबतक जो करना हो कर लेना चाहिये।
यह रुपया और शरीर तो जानेवाली चीज है ही, जिनके साथ संयोग है उनका वियोग होनेवाला ही है, फिर इन्हें क्यों पकड़ना चाहिये। परमात्माको छोड़कर और कोई तुम्हारा नहीं है। स्त्री, पुत्र आदि तुम्हें त्यागनेवाले हैं। उत्तम बात यह है कि तुम पहले ही इन्हें त्याग दो। आप लाख उपाय करें, कुछ भी आपके साथ जानेवाला नहीं है। यह शरीर भी आपके साथ जानेवाला नहीं है। मरना अवश्य पड़ेगा, लाख उपाय करें, यह शरीर रहनेवाला नहीं है। इसलिये शरीरसे तथा ऐश्वर्यसे खूब काम लेना चाहिये, जब तक आपका अधिकार है तब तक लाभ उठा लेना चाहिये। यही बुद्धिमानी है। जैसे वह भाई गोकुलचन्द गया। उसी प्रकार आपको पश्चात्ताप न करना पड़े, अन्त-समयमें रोना नहीं पड़े। कुछ नहीं केवल भगवान् का स्मरण करें। भगवान् की अपने ऊपर दया समझकर भगवान् को याद रखें, प्रभुको न बिसारें, उनको अपने लक्ष्यमें रखें, फिर बेड़ा पार है।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)
जो पुरुष अन्तकालमें मेरेको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
इसलिये निरन्तर भगवान् का भजन करना चाहिये, पता नहीं मृत्यु कब आ जाय। हमलोग खूब राजी-खुशी घूम रहे हैं। यदि हैजा हो जाय तो छ: घण्टा या बारह घण्टेमें खतम। हमारी यह स्थिति है। आप रोक नहीं सकते कि हम हैजा नहीं चाहते। जैसे चूहे घूमते हैं अचानक बिल्ली पकड़ लेती है, इसी प्रकार काल ताक रहा है। वह अचानक आकर पकड़ेगा। इसलिये हमें हर समय मृत्युको याद रखना चाहिये। इसी बातको बतानेके लिये नारायण स्वामी कहते हैं—
दो बातनको भूल मत जो चाहत कल्यान।
नारायण इक मौतको दूजे श्रीभगवान॥
मृत्युको याद रखनेसे एक तो नया पाप नहीं होता और दूसरे भगवान् याद रहते हैं। आपसे पुण्य कर्म नहीं बनें तो न सही, पाप तो मत करिये और प्रभु को याद रखिये, फिर आपके कल्याणमें सन्देह नहीं है।
सुत दारा और लक्ष्मी पापीके भी होय।
संत मिलन अरु हरि भजन दुर्लभ जगमें दोय॥
स्त्री, पुत्र प्राय: सबके होते हैं। दो ही बात दुर्लभ हैं, एक सत्संग, दूसरी ईश्वरकी भक्ति। ईश्वरकी भक्तिरूपी खेती सूख रही है, वह सत्संगसे हरी-भरी रहती है। इसलिये हर समय प्रफुल्लित रहनेके लिये सत्संग करना चाहिये।
ये दो बातें आपसे बननेमें आयें तो बहुत ही उत्तम है, नहीं तो एक ही बात—भगवान् का स्मरण हर समय करिये। इससे सब कुछ हो सकता है। महर्षि पतंजलि भी कहते हैं—भगवान् के नामका जप और स्वरूपका ध्यान करना चाहिये, इससे सारे विघ्नोंका नाश हो जाता है। भगवान् गीताजीमें कहते हैं—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
(गीता ९। ३०)
मेरी भक्तिका प्रभाव सुनकर, यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त हुआ मेरेको निरन्तर भजता है, तो वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है।
तुलसीदासजी भी कहते हैं—
जबहिं नाम हिरदे धरॺो भयो पापको नास।
मानो चिनगी अग्नि की परी पुरानी घास॥
निरन्तर भगवान् के चिन्तनसे भगवान् की प्राप्ति अवश्य हो जाती है। अन्तकालमें तो हो ही जाती है, पहले भी हो सकती है। अपने तो पुकार लगानी चाहिये। पुकार प्रेमकी हो।
केशव केशव कूकिये न कूकिये असार।
रात दिवस के कूकते कबहुँ तो सुने पुकार॥
यह तो सामान्य बात बतायी, अब विशेष बात बतायी जाती है—
हमें अपने घर जाकर सबके साथ प्रेमका व्यवहार करना चाहिये। एक ही बात है स्वार्थका त्याग करना चाहिये। स्वार्थ त्याग करनेसे प्रेम होता है। स्वार्थ त्याग ऐसी चीज है जो दूसरोंको आकर्षित करनेवाली है। यह मोहनी मंत्र है, इसमें दूसरोंको वशमें करनेकी अलौकिक शक्ति है। स्वार्थ त्यागसे स्वत: ही प्रेम होता है। हमें यह बात सीखनी चाहिये, इससे अलौकिक लाभ है। जबतक आपकी भोग और आराममें आसक्ति रहेगी तबतक आपका उद्धार हो ही नहीं सकता। जबतक आप भोग और आराम चाहते रहेंगे, आप ईश्वरसे दूर रहेंगे। आजतक आपको परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई, इसकी जड़में प्रधान कारण भोग और आराम है। परमात्माकी प्राप्तिमें विघ्न ये ही हैं। साधनमें रुकावट इसीसे है, प्रेममें कमी इसीसे है। इसलिये यदि परमात्माकी प्राप्तिकी आवश्यकता है तो इन्हें छोड़ना चाहिये। मन तो एक है चाहे परमात्मामें लगाओ, चाहे विषयोंमें।
कबिरा मन तो एक है भावे जहाँ लगाय।
भावै हरिकी भक्ति कर भावै विषय गमाय॥
चाहे जिस प्रकार हो आपको मन परमात्मामें लगाना चाहिये। मनको परमात्मामें लगाना ही होगा।
मन फुरना से रहित कर जौने विधी से होय।
चाहे भक्ति चाहे ज्ञानसे चाहे योगसे खोय॥
इस समय योग और ज्ञानमार्ग कठिन हैं। इसलिये भक्ति करनेकी बात कही जाती है। ईश्वरके प्रेममें पागल हो जाना चाहिये। फिर देखो मजा। भोग और ऐश्वर्यमें आपको जो आनन्द प्रतीत होता है, उससे लाखों गुना अधिक आनन्द वैराग्यमें है। जब और आगे बढ़ जाता है तो संसारसे उपरति हो जाती है, तब और भी अधिक आनन्द हो जाता है। जब परमात्माका ध्यान होता है उस सुखकी तो जाति ही दूसरी है। जब परमात्मा प्राप्त हो जाते हैं उस सुखकी तो बात ही क्या है। परमात्माकी प्राप्ति कठिन भी नहीं है। भगवान् कहते हैं—
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
(गीता ७। १४)
क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष मेरेको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस मायाका उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।
इसलिये हमें लाख काम छोड़कर वही काम करना चाहिये, जिसके लिये हमें मनुष्य शरीर मिला है। संसारमें ऐसा कोई काम नहीं जो हमने नहीं किया, किन्तु हमने परमात्माकी प्राप्ति अभीतक नहीं की, यह काम करना है। मनुष्यका शरीर पाकर विषयोंमें मन देना तो मूर्खता है।
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
(रा०च०मा०,उ० ४४। २)
परमात्मा अमृत है, विषय-भोग विष हैं। विष खानेसे तो खानेवाला एक बार ही मरता है, विषय-भोगरूपी विषको खानेसे बार-बार जन्मता मरता ही रहता है। इसलिये अमृतरूपी परमात्माका सेवन करना चाहिये। यही प्रधान बात है। यहाँसे जाकर घरपर नित्य प्रति स्नानादि करके सन्ध्या, गीतापाठ तथा भगवान् का ध्यान करना चाहिये तथा भगवान् की मानसिक पूजा करनी चाहिये। साकार या निराकार कोई-सा भी ध्यान करना चाहिये। प्रात:काल-सायंकाल ध्यानसहित नाम-जप करना तथा हर समय भगवान् को याद रखते हुए ही काम करना चाहिये। भजन-ध्यानकी खुराक बना लेनी चाहिये। अपने मनमें निश्चय कर लेना चाहिये कि हम भगवान् का भजन-ध्यान करेंगे, चाहे प्राण भले ही चले जायँ। ध्यानके लिये प्रात:काल और सायंकालका समय बड़ा उत्तम है। यहाँका चित्र याद कर लें तो चित्तमें वैराग्य उत्पन्न हो सकता है। भजन-ध्यान खूब श्रद्धा और प्रेमसे करें। मनुष्य प्रेमसे विह्वल होकर थोड़ा भी भजन करता है तो भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार संध्या और गायत्री जप प्रेमसहित करना चाहिये।
लोग सन्ध्या, गायत्रीका जप करते हैं, मन कहीं और घूमता है, इसलिये आपको परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो रही है। सूर्य साक्षात् परमात्मा हैं। परमात्माके दर्शनसे हमें जो शान्ति, आनन्द हो, उसी आनन्दका अनुभव हमें सूर्यके दर्शनसे होना चाहिये। करना कुछ नहीं है भाव बदलना है। घरमें पारस पड़ा है, उसे पत्थर समझ रखा है, इसलिये भूखे मरते हैं। किसी महात्माने वह पारस पत्थर देखा और कहा तू सारे संसारको धनी बना सकता है। पूछा यह क्या है? उसने कहा—यह पत्थर है, इससे मैं चटनी पीसता हूँ। महात्माने कहा—हम इसे पत्थर नहीं मानते, यह तो पारस है, तुम्हारे घरमें लोहा हो तो लाओ। वह लाता है, महात्माने उस पत्थरको उस लोहेसे छुआया तो वह लोहा सोना हो गया। अब क्या उससे वह चटनी पीसेगा? इतने दिन दरिद्रता भोग रहा था, वह मूर्खता ही थी। वही बात हममें है, हमारे भीतर परमात्मा हैं, किन्तु हम उन्हें मानते नहीं। कोई महात्मा आकर बता दें तो काम हो जाय। गीताजीमें भगवान् कहते हैं—
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥
(गीता १५। १५)
मैं ही सब प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित हूँ तथा मेरेसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदोंद्वारा मैं ही जाननेयोग्य हूँ तथा वेदान्तका कर्ता और वेदोंका जाननेवाला भी मैं ही हूँ।
आपके हृदयमें ज्ञान है, यह क्या है? परमात्माका स्वरूप है। हमें नियमपूर्वक बड़े आदरसे भजन-ध्यान करना चाहिये। लाख काम छोड़कर हमें यह काम करना चाहिये।
भगवान् के भक्त कभी हँसते हैं, कभी रोते हैं, कभी नाचते हैं। भगवान् की दयाकी ओर और उनके गुण-प्रभावकी ओर जब भक्तकी दृष्टि जाती है तब हँसते हैं। जब अपने पापोंकी ओर दृष्टि जाती है तब रोते हैं। वे समझते हैं—प्रभो! मैं तो बड़ा पापी हूँ, क्या मेरा भी कल्याण हो सकता है? भगवान् के यहाँ तो सबकी ही दाल गलती है। भगवान् केवल प्रेमियोंका ही उद्धार करें यह बात नहीं, वे तो दीनबन्धु हैं, पतितपावन हैं।
जो ऐसा समझता है—भगवान् न्यायकारी हैं, दयालु नहीं हैं उसके लिये भगवान् न्यायकारी ही हैं। जो समझता है न्यायकारी तो हैं ही, दयालु भी हैं, उसका काम शीघ्र ही हो जाता है। हमें समझना चाहिये भगवान् बड़े दयालु हैं, फिर चिन्ता, भय, शोक जाते रहते हैं। हमें भगवान् के नामका कीर्तन करना चाहिये। कभी-कभी भगवान् के गुण, प्रभाव, रहस्यको समझकर प्रफुल्लित होना चाहिये। भगवान् की दयाका दिग्दर्शन कर प्रसन्न होना चाहिये, हमारे ऊपर भगवान् की कैसी दया है!
जाकर कृपा राम की होई।
तापर कृपा करै सब कोई॥
भगवान् रामकी जिसपर कृपा होती है उसपर सब कृपा करते हैं।
हमें जो भी सुख-दु:ख प्राप्त हो रहा है और होता है, उसमें भगवान् की दया भरी है, इसलिये हर समय प्रभुकी दयाका दर्शन करें। जो कुछ परेच्छा या अनिच्छासे होता है; वह भगवान् का ही प्रसाद है, पुरस्कार है। जो भगवान् के प्रेममें मस्त रहता है वह सारे संसारके ऐश्वर्यको लात मार देता है। हमें यह लक्ष्य रखना चाहिये कि हम ऐसे बनें कि हमारे दर्शन, भाषणसे लोगोंका कल्याण हो जाय। हमें ऐसा ही भाव रखना चाहिये। अपनी आत्माका कल्याण क्या बड़ी बात है! हम अपना यही मत रखें कि सबका कल्याण हो। हमलोग कितनी बार इन्द्र हो गये, किन्तु अबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई। इसलिये सब बातको छोड़कर भगवान् को याद रखना चाहिये। यह सब साधनोंका मूल है। यह नहीं हो तो भगवान् के नामकी रटन ही करो।
राम राम जपते रहो जब लगि घटमें प्रान।
कबहुँ तो दीनदयालके भनक परैगी कान॥
बस रात-दिन दूसरा काम करना ही क्या है। जबतक देहमें प्राण हैं यही करना है।
काल भजन्ता आज भज आज भजन्ता अब।
पलमें परलय होयगी बहुरि भजेगा कब॥
इन सब बातोंका खयाल करके भगवान् के नामकी रटन लगानी चाहिये। वाणीसे भगवान् के नामका जप, मनसे ध्यान, बुद्धिसे उस परमात्माका निश्चय करें। जब आपको यह निश्चय हो जाय कि भगवान् सब जगह हैं, तब आपसे पाप नहीं बनेगा। जैसे सरकारकी यहाँ सत्ता है तो हम उसके विरुद्ध कुछ बोल नहीं सकते। सरकारकी तो ऐसी शक्ति भी नहीं है, पर परमात्मा तो सर्वत्र हैं और सर्वसमर्थ हैं? इसलिये हमें हर समय भगवान् का चिन्तन करना चाहिये। सर्वत्र सर्वदा भगवान् को देखना चाहिये। यह सार बात आपको बतलायी।
व्याख्यान सुनते समय गौरसे इस भावसे सुनना चाहिये कि मुझे व्याख्यानकी बातें काममें लानी है और इसका प्रचार करना है। सुनकर प्रचार करे; फिर देखो कितना लाभ होता है।
घरपर जाकर नित्य पुस्तक पढ़े। एक आदमी पढ़े और सब सुनें। शहरमें जो अपने मित्र हों उनमें प्रचार करना चाहिये। विद्यालय एवं पुस्तकालयोंमें प्रचार करना चाहिये। ऐसा करनेपर थोड़े समयमें ही आपकी उन्नति हो सकती है। ऐसा मौका आपको बार-बार मिलनेवाला नहीं है। प्रथम तो मनुष्य-शरीर मिलना कठिन है, क्योंकि असंख्य जीव हैं, भगवान् उन्हें भी तो मौका देंगे। मनुष्यका शरीर बड़ा दुर्लभ है, उसमें भी दुर्लभ है सत्पुरुषोंका संग। उनका मिलना ही कठिन है। मिल गये तो पहचाने नहीं जा सकते। समय बीता जा रहा है, बातों-बातोंमें ही डेढ़ घण्टा चला गया। कबीरदासजी ने कहा है—
कबिरा नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाइ।
यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखहु आइ॥
आज काल की पाँच दिन जंगल होगा बास।
ऊपर ऊपर हल फिरै ढोर चरेंगे घास॥
मरोगे मर जाओगे कोई न लेगा नाम।
उज्जड़ जाय बसाओगे छोड़ बसंता गाम॥
आप जंगलमें वास करेंगे, आपको श्मशानमें ले जाकर लोग जला कर खाक कर देंगे।
हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी केस जले ज्यूँ घास।
सब जग जलता देख कर भया कबीर उदास॥
जैसे लकड़ियाँ जलती हैं ऐसे ही तुम्हारी हड्डियाँ जलेंगी और जैसे घास जलती है ऐसे ही केश जलेंगे।
चलती चाकी देखिके दिया कबीरा रोय।
दो पाटनके बीचमें साबत बचा न कोय॥
कालकी चक्की चल रही है, सबका नम्बर लग रहा है, आपका भी नम्बर है। समय तो बीत रहा है, अब समय कहाँ है? आयुकी ओर देखें तो समयका क्या विश्वास है? अब कूच नगारा बजता है, चलनेकी फिकर करो बाबा! जिस प्रकार अब यहाँसे गाँव चलनेकी तैयारी कर रहे हैं, उसी प्रकार वहाँकी भी तैयारी रखनी चाहिये। टिकट कटाकर तैयार रहना चाहिये। टिकट कटाकर तैयार रहना क्या?—भगवान् को प्राप्त कर लेना।
ऐसा मूल्यवान् मनुष्य-शरीर देकर भगवान् कहते हैं—मां भजस्व मुझे भजो। लाख रुपया खर्च करनेपर भी एक मिनट और नहीं जी सकते हैं। आपके लाख काम पड़े हैं, पड़े ही रह जायँगे। यमके दूत आयेंगे तो रुकेंगे नहीं। सिपाही वारन्ट लेकर आते हैं, वे घूस लेकर समय दे सकते हैं, किन्तु वहाँ घूस नहीं चलती। जब ऐसी परिस्थिति है तब हमें सावधान रहना चाहिये। इस घोर कलिकालमें भगवान् की भक्तिके समान कोई उपाय नहीं है। भगवान् की भक्तिके लिये भगवान् की स्मृतिके समान कोई उपाय नहीं है, इसलिये भगवान् को कभी न भुलावें। हर समय भगवान् हमारे साथ हैं, ऐसा समझे या निराकार रूपसे सब जगह हैं, अणु-अणुमें हैं और वे प्रेमसे प्रकट होते हैं। प्रेमका सरल उपाय यही है परमात्माके नामका जप, स्वरूपका ध्यान और अच्छे पुरुषोंका संग, तीनों ही हों तब तो बात ही क्या है। एकसे भी काम हो सकता है। भगवान् कहते हैं—
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(गीता ९। २२)
जो अनन्यभावसे मेरेमें स्थित हुए भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए, निष्काम भावसे भजते हैं, उन नित्य एकीभावसे मेरेमें स्थितिवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(गीता १२। ७)
हे अर्जुन! उन मेरेमें चित्तको लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार समुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ।
मय्येव मन आधस्त्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय:॥
(गीता १२। ८)
इसलिये हे अर्जुन! तू मेरेमें मनको लगा और मेरेमें ही बुद्धिको लगा, इसके उपरान्त तू मेरेमें ही निवास करेगा, अर्थात् मेरेको ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
हमें समझ लेना चाहिये भगवान् ने अर्जुनको निमित्त बनाकर हम सबके लिये गीताजीका उपदेश दिया है। गीताजीका यह सार है सबसे हेतु रहित प्रेम करना। तुलसीदासजी कहते हैं—हेतु रहित प्रेम करनेवाले दो ही हैं एक भगवान्; दूसरे भगवान् के प्यारे प्रेमी भक्त।
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं।
सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥
(रा०च०मा०, उत्तर० ४७। ५-६)
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥
(रा०च०मा०, किष्किन्धा० १२। २)
यह सब सोचकर हमें सबके साथ स्वार्थ त्यागकर प्रेम करना चाहिये। फिर आप दमक उठेंगे। जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री पतिकी सेवा करके भगवान् को प्राप्त हो जाती है, इसी प्रकार हम जनता-जनार्दनकी सेवा करके परमात्माको प्राप्त हो जायँगे।
कैसा ही कोई मूर्ख-से-मूर्ख हो, पापी-से-पापी हो उसको भी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। यदि हमें गीताजी पर विश्वास है, महात्माओंपर विश्वास है तो हर समय भगवान् का चिन्तन करना चाहिये। कैसा ही कोई पापी हो, आज ही उसका कल्याण हो सकता है। बस एक ही बात है, आजसे जबतक वह रहे तबतक भगवान् को याद रखे।
केवल सत्संगसे कल्याण हो सकता है। इसके लिये भगवान् कहते हैं—
अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(गीता १३। २५)
जो मन्दबुद्धि वाले पुरुष हैं वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए, दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही उपासना करते हैं, अर्थात् उन पुरुषोंके कहनेके अनुसार ही श्रद्धासहित तत्पर हुए साधन करते हैं और वे सुननेके परायण हुए पुरुष भी मृत्युरूप संसारसागरको नि:सन्देह तर जाते हैं।
ज्ञानयोग, ध्यानयोग, कर्मयोगसे तो कल्याण होता ही है, किन्तु जिसमें विवेक नहीं है, ऐसा पुरुष भी जो जाननेवाले पुरुष हैं उनके पास जाकर सुनता है और सुनकर यथायोग्य आचरण करता है, उसका भी कल्याण हो जाता है। इसी प्रकार केवल भगवान् के नामजपसे भी कल्याण हो जाता है। कैसा भी कोई पापी हो उसका सत्संगसे कल्याण हो ही जाता है। तुलसीदासजी कहते हैं—
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
(रा०च०मा०, सुन्दर० ४)
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥
(रा०च०मा०, उत्तर० ६१)
सब प्रकारसे यही बात सिद्ध होती है कि सत्संग करना चाहिये। तुलसीदासजी और भी कहते हैं—
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता।
सतसंगति संसृति कर अंता॥
(रा०च०मा०, उत्तर० ४५। ६)
इसी प्रकारसे नामकी महिमा है। नामका ऐसा प्रभाव है कि उससे पापी-से-पापी भी तर जाते हैं—
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
(रा०च०मा०, बाल० २६। ७)
भगवान् के नामका अद्भुत प्रभाव है। ऐसा नाम रहते हुए हमें दु:खरूप शरीरमें फिर आना पड़े यह बड़ी लज्जाकी बात है। नामकी महिमा तुलसीदासजी कहते हैं—
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
(रा०च०मा०, बाल० २६। ८)
तुलसीदासजीने तो यहाँतक कह दिया कि राम-नाम रामसे भी बढ़कर है—
राम एक तापस तिय तारी।
नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
(रा०च०मा०, बाल० २४। ३)
भगवान् के भजनसे ही कल्याण हो जाता है। फिर भगवान् का ध्यान भी साथमें रहे तो बात ही क्या है! सत्संग मिलता रहे तो भजन-ध्यान तेजीके साथ होते हैं। इसलिये हमें कटिबद्ध होकर तेजीके साथ साधन करना चाहिये।