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भगवान् की गारन्टी

प्रवचन—दिनांक २१-५-१९५३, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम

कोई भी साधन हो, किन्तु भगवान् के नामका जप और परमात्माके स्वरूपकी स्मृति अवश्य करें। वह चाहे वाणीसे हो या श्वाससे। चिन्तन तो मनसे ही होता है, बुद्धि और लगा दें। परमात्मा हैं, यह माननेमें न कौड़ी लगती है न छदाम। ऐसा दृढ़ निश्चय करें कि फिर यह निश्चय बना रहे। बुद्धिसे मानें कि परमात्मा हैं। भक्तिपूर्वक व आदरपूर्वक बुद्धिमें विश्वास हो, इसीका नाम श्रद्धा है। इस प्रकार बुद्धिकी मान्यतानुसार मनसे भगवान् का स्मरण करना चाहिये यानि भगवान् को याद रखना चाहिये, वाणीसे उनके नामका जप भी होना चाहिये। स्मरण और जप हर समय बना रहे इसके लिये शक्ति अनुसार प्राण-पर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये। मृत्युको स्वीकार कर ले, किन्तु भगवान् के नामजप व स्मरणको नहीं छोडे़। मरना तो है ही, फिर भगवान् के नामको लेते हुए यदि मृत्यु हो तो इससे बढ़कर और क्या हो? भगवान् से प्रार्थना करे कि मरते समय आपके नामका जप हो, चाहे आप दर्शन न दें, किन्तु श्रद्धा-भक्तिपूर्वक आपके नामका जप और स्मृति बनी रहे, भगवान् से यह प्रार्थना करे, माँग करे। यह कामना होते हुए भी इतनी शुद्ध और पवित्र है कि इससे मुक्ति हो जाय। शरीर भले आज ही छूट जाय, किन्तु भगवान् को याद करते हुए छूटे। चाहे गंगाके किनारे मृत्यु न होकर किसी निकृष्ट स्थानपर मृत्यु हो जाय, किन्तु आपकी स्मृति सदा बनी रहे। भगवान् से प्रार्थना करे कि हे भगवन्! आप कृपा करके इसमें मदद करिये। यही सिद्धान्त है, यही साधन है, यही साधनोंका निचोड़ है। इस साधनको सिद्धान्त मानकर इसका पालन करें। फिर साधनमें कोई कमी भी रह जाय तो यह साधन स्वयं उसको सँभाल लेता है। किन्तु इस मान्यतामें कमी रह जाय तो फिर न तो कोई सहायक है और न साधन है। इस बातपर भगवान् गारन्टी देते हैं—

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८। १४)

हे अर्जुन! जो पुरुष मेरेमें अनन्यचित्तसे स्थित हुआ, सदा ही निरन्तर मेरेको स्मरण करता है, उस निरन्तर मेरेमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।

अनन्य चित्तसे नित्य-निरन्तर स्मरण करे तो भगवान् सुलभतासे प्राप्त हो सकते हैं। अबसे अन्ततक अभ्यास करें तो हमारा कल्याण हो जाय।

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)

जो पुरुष अन्तकालमें भी मेरेको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥
(गीता ८। ६)

हे अर्जुन! यह मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावको स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागता है, उस उसको ही प्राप्त होता है। परन्तु सदा जिस भावका चिन्तन करता है अन्तकालमें भी प्राय: उसीका स्मरण होता है।

जो भगवान् के नामका जप करता हुआ मरता है, वह परमात्माको ही प्राप्त होता है। जो जिसको याद करता हुआ जाता है, वह उसीको प्राप्त होता है। देवताओंको याद करता हुआ जाता है वह देवताओंको प्राप्त होता है। जो भूत-प्रेत और पिशाचोंको याद करता हुआ जाता है वह उन्हींको प्राप्त होता है। ऐसे ही जो भगवान् को याद करता हुआ जाता है वह भगवान् को ही प्राप्त होता है। यदि नित्यका अभ्यास होगा तो मृत्युके समय भी भगवान् की स्मृति हो जायगी। इसलिये भगवान् अर्जुनको बहुत जोर देकर कहते हैं—‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च’ (गीता ८। ७) ‘इसलिये हे अर्जुन! तू हर समय मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर।’ युद्धमें तो बड़ा ही जोर आता है। जब भगवान् को याद रखते हुए युद्ध हो सकता है, फिर हमें सब काम करते हुए स्मरण क्यों नहीं हो सकता? इसलिये माता-बहिनों तथा भाइयोंको हर समय भगवान् को याद रखते हुए कार्य करते रहना चाहिये। भगवान् को याद रखते हुए काम करनेसे बुरा काम तो होगा ही नहीं और आगे पीछेके सभी पाप स्वाहा हो जायँगे। इस बातको मानकर इसके लिये कटिबद्ध हो जाना चाहिये।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....

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