पद्मपुराणके अनुसार पुत्रका कर्तव्य
ब्राह्मणने पूछा—देव! आपने पिताके लिये किये जानेवाले श्राद्ध नामक महायज्ञका वर्णन किया। अब यह बताइये कि पुत्रको पिताके जीते-जी क्या करना चाहिये; कौन-सा कर्म करके बुद्धिमान् पुत्रको जन्म-जन्मान्तरोंमें परम कल्याणकी प्राप्ति हो सकती है। ये सब बातें यत्नपूर्वक बतानेकी कृपा कीजिये।
श्रीभगवान् बोले—विप्रवर! पिताको देवताके समान समझकर उनकी पूजा करनी चाहिये और पुत्रकी भाँति उनपर स्नेह रखना चाहिये। कभी मनसे भी उनकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करना चाहिये। जो पुत्र रोगी पिताकी भलीभाँति परिचर्या करता है, उसे अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है और वह सदा देवताओं द्वारा पूजित होता है। पिता जब मरणासन्न होकर मृत्युके लक्षण देख रहे हों, उस समय भी उनका पूजन करके पुत्र देवताओंके समान हो जाता है। पिताकी सद्गतिके निमित्त विधिपूर्वक उपवास करनेसे जो लाभ होता है, अब उसका वर्णन करता हूँ। सुनो! हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ करनेसे जो पुण्य होता है, वही पुण्य पिताके निमित्त उपवास करनेसे प्राप्त होता है। वही उपवास यदि तीर्थमें किया जाय तो उन दोनों यज्ञोंसे करोड़ गुना अधिक फल मिलता है। जिस श्रेष्ठ पुरुषके प्राण गंगाजीके जलमें छूटते हैं, वह पुन: माताके दूधका पान नहीं करता, वरं मुक्त हो जाता है। जो अपने इच्छानुसार काशीमें रहकर प्राण-त्याग करता है, वह मनोवांछित फल भोगकर मेरे स्वरूपमें लीन हो जाता है।
वाराणस्यां त्यजेद्यस्तु प्राणांश्चैव यदृच्छया।
अभीष्टं च फलं भुक्त्वा मद्देहे प्रविलीयते॥
(पद्मपु०, सृष्टिख० ४७। २५४)
योगयुक्त नैष्ठिक ब्रह्मचारी मुनियोंको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, वही गति ब्रह्मपुत्र नदीकी सात धाराओंमें प्राणत्याग करनेवालेको मिलती है। विशेषत: अंतकालमें जो सोन नदीके उत्तर तटका आश्रय लेकर विधिपूर्वक प्राणत्याग करता है, वह मेरी समानताको प्राप्त होता है। जिस मनुष्यकी मृत्यु घरके भीतर होती है, उस घरके छप्परमें जितनी गाँठें बँधी रहती हैं, उतने ही बन्धन उसके शरीरमें भी बँध जाते हैं। एक-एक वर्षके बाद उसका एक-एक बन्धन खुलता है। पुत्र और भाई-बन्धु देखते रह जाते हैं, किसीके द्वारा उसे उस बन्धनसे छुटकारा नहीं मिलता। पर्वत, जंगल, दुर्गमभूमि या जलरहित स्थानमें प्राण-त्याग करनेवाला मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त होता है। उसे कीड़े आदिकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है। जिस मरे हुए व्यक्तिके शवका दाह-संस्कार मृत्युके दूसरे दिन होता है, वह साठ हजार वर्षोंतक कुम्भीपाक नरकमें पड़ा रहता है। जो मनुष्य अस्पृश्यका स्पर्श करके या पतितावस्थामें प्राण त्याग करता है, वह चिरकालतक नरकमें निवास करके म्लेच्छ-योनिमें जन्म लेता है। पुण्यसे अथवा पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करनेसे मर्त्यलोकनिवासी सब मनुष्योंकी मृत्युके समय जैसी बुद्धि होती है, वैसी ही गति उन्हें प्राप्त होती है।
पिताके मरनेपर जो बलवान् पुत्र उनके शरीरको कन्धेपर ढोता है, उसे पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। पुत्रको चाहिये कि वह पिताके शवको चितापर रखकर विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए पहले उसके मुखमें आग दे, उसके बाद सम्पूर्ण शरीरका दाह करे। उस समय इस प्रकार कहे—‘जो लोभ-मोहसे युक्त तथा पाप-पुण्यसे आच्छादित थे, उन पिताजीके इस शवका, इसके सम्पूर्ण अंगोंका मैं दाह करता हूँ; वे दिव्यलोकमें जायँ।’ इस प्रकार दाह करके पुत्र अस्थि-संचयके लिये कुछ दिन प्रतीक्षामें व्यतीत करे फिर यथासमय अस्थि-संचय करके दशाह आनेपर स्नान कर गीले वस्त्रका परित्याग कर दे, फिर विद्वान् पुरुष ग्यारहवें दिन एकादशाह-श्राद्ध करे और प्रेतके शरीरकी पुष्टिके लिये एक ब्राह्मणको भोजन कराये। उस समय वस्त्र, पीढ़ा और चरणपादुका आदि वस्तुओंका विधिपूर्वक दान करे। दशाहके चौथे दिन किया जानेवाला (चतुर्थाह), तीन पक्षके बाद किया जानेवाला (त्रैपाक्षिक अथवा सार्धमासिक), छ: मासके भीतर होनेवाला (ऊनषाण्मासिक) तथा वर्षके भीतर किया जानेवाला (ऊनाब्दिक) श्राद्ध और इनके अतिरिक्त बारह महीनोंके बारह श्राद्ध—कुल सोलह श्राद्ध माने गये हैं। जिसके लिये ये सोलह श्राद्ध यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक नहीं किये जाते, उसका पिशाचत्व स्थिर हो जाता है। अन्यान्य सैकड़ों श्राद्ध करनेपर भी प्रेतयोनिसे उसका उद्धार नहीं होता। एक वर्ष व्यतीत होनेपर विद्वान् पुरुष पार्वण श्राद्धकी विधिसे सपिण्डीकरण नामक श्राद्ध करे।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....