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भगवान् प्रसन्न हों वह काम करें

प्रवचन—दिनांक-२ अगस्त १९५९, गोविन्द भवन, कोलकाता

प्रश्न—जन्म-मरणके रोगकी मुख्य औषधि क्या है?

उत्तर—निष्कामभावसे भगवन्नाम-जप और भगवान् का ध्यान करना। चाहे जो कुछ हो घबराना नहीं चाहिये और चिन्ता नहीं करनी चाहिये। भगवान् का मंगल विधान मानकर खूब प्रसन्न रहना चाहिये। करुणाभावसे रोकर भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये। यदि आँसू नहीं आवें तो करुणाभावसे प्रार्थना करनी चाहिये। भगवान् की दयाके बलपर निर्भर हो जाय तो फिर घबराहट नहीं आ सकती। जितना आत्मबल है उससे या हठसे और भगवान् की कृपाके बलपर आप जो भी बातें पढ़ें उनको दृढ़तासे धारण करना चाहिये। ऐसी स्थिति बनानेके लिये अपनी पूरी शक्ति हठपूर्वक लगानी चाहिये। सारी चेष्टा भगवान् में प्रेम होनेके लिये, भगवान् की प्राप्तिके लिये होनी चाहिये। बीमारीमें भगवान् की दया समझनी चाहिये, यदि अधिक बीमारी हो और कष्ट हो तो समझना चाहिये कि भगवान् मुझे शीघ्र शुद्ध करना चाहते हैं। अधिक कष्ट होनेपर भगवान् को हर समय याद रखनेकी चेष्टा रखनी चाहिये। भगवान् को कहें कि आपमें प्रेम बना रहे, चाहे शरीरमें कितने ही कष्ट होते रहें।

नाम-जप, निष्काम-कर्म और निष्काम-सेवा करनेसे अन्त:करणकी शुद्धि शीघ्र होती है। तीर्थ, व्रत, सत्संग, यज्ञ, दान, सेवा आदिके साथमें निष्काम-भाव जोड़ दिया जाय तो इन सबकी सामर्थ्य बढ़ जाती है। थोड़ा-सा निष्काम भाव संसारसे मुक्ति करा देता है। निष्कामका बड़ा भारी महत्त्व है। भीतरमें स्वार्थ है तो कलंक है।

कोई दरिद्र नारायण सड़कपर पड़ा है, उसको अस्पतालमें भर्ती करा दिया जाय तो यह भगवान् का काम हो गया। छोटे-से-छोटा काम भी भाव उत्तम होनेसे बहुत उत्तम हो जाता है।

मरनेवालेको चौबीस घंटा नाम सुनानेके लिये कई व्यक्तियोंकी पारी बाँधी जाती है, जिसकी पारीमें मृत्यु होती है उसको विशेष लाभ है और दूसरोंको भी लाभ है। भगवान् ने मृत्युके लिये एक क्षणकी छूट दी है। मनुष्यने कितने ही पाप किये हों अन्तिम क्षणमें भगवान् का स्मरण हो जाय तो उसका कल्याण है।

गीताप्रेसका काम बेगार नहीं है साधन है। गीताप्रेसके जितने काम हैं, उन सभीको साधन माने।

गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचार भी परम सेवा है। सब काम सेवा है, पर निष्काम भावसे करनेसे परम सेवा है। गीताजीका प्रचार, पुस्तक-प्रचार, मृत्युके समय नाम सुनाना, व्याख्यान देना—यह सब परम सेवा है।

यहाँपर आपलोगोंकी दृष्टिमें परम सेवा और सेवाका भेद है इसलिये दो है, हमारी दृष्टिमें तो सब परम सेवा है।

हमें सारे काम भगवान् के लिये करने हैं। जो भगवान् के काम नहीं हैं, यानी पापकर्म हैं, वे काम नहीं करने चाहिये। जिस कामसे भगवान् प्रसन्न होते हैं वह भगवान् का काम है। जिस कामके लिये भगवान् की आज्ञा है वह भगवान् का काम है। जिस कामके लिये भगवान् ने आज्ञा नहीं दी है वह भगवान् का काम नहीं है, वह नहीं करना चाहिये। जैसे व्यभिचार, क्रोध, लोभ आदि। गीता कमेटी* के नियमोंका पालन करना भी भगवान् का ही काम है। राग-द्वेषसे रहित होनेपर ही मनुष्यका कल्याण हो सकता है, राग-द्वेष रहते कल्याण नहीं हो सकता।

* गोयन्दकाजीने कोलकातामें सत्संगी भाइयोंकी एक समिति बनायी थी।

एक भगवान् की ही इच्छा करनी चाहिये और किसी बातकी इच्छा नहीं रखनी चाहिये। किसी बातकी इच्छा नहीं रखनी यह निष्काम-भाव है।

भगवान् नहीं आ रहे हैं; क्योंकि हमारे मनमें पदार्थोंकी इच्छा है, इसीलिये भगवान् के आनेमें विलम्ब हो रहा है।

ममता केवल भगवान् में ही करनी चाहिये, दूसरोंमें ममता करना ही कलंक है। दूसरोंकी सेवा करे; क्योंकि इसके लिये भगवान् की आज्ञा है।

हमें गीता अध्याय बारह श्लोक संख्या तेरहसे उन्नीस तकके अनुसार बनना चाहिये। क्योंकि भगवान् कहते हैं यो मद्भक्त: स मे प्रिय:। जो मेरा भक्त है वह मुझे प्रिय है।

निष्काम कर्म, भगवन्नामका जप और भगवान् का ध्यान करनेसे पापोंका नाश होता है। जपसे पापोंका नाश होता है और ध्यानसे विक्षेपका नाश होता है एवं भगवान् की कृपासे आवरणका नाश होता है।

भक्तियोगमें भगवान् को हर समय याद रखना यह विशेष बात है। भगवान् कहते हैं जो मेरा नित्य निरन्तर स्मरण करता है। उसको मैं सहजमें ही प्राप्त हो जाता हूँ।

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८। १४)

भगवान् इस साधनको सुगम बतलाते हैं और देखनेमें भी सुगम है। जब भगवान् की याद आती है उस समय भी प्रसन्नता रहती है और उसके फलमें भी प्रसन्नता रहती है। किसी भी भावसे नाम-जप किया जाय तो अच्छा है। पर श्रद्धापूर्वक किया जाय तो बहुत मूल्यवान् है। तुलसीदासजीने नामके जप पर जितना जोर लगाया उतना स्मरण पर जोर नहीं दिया। नाम-जपको गीतामें भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया और कहा— यज्ञोंमें मैं जपयज्ञ हूँ। भगवान् के नाम और रूपका स्मरण गीता-रामायणमें बहुत महत्त्वपूर्ण बताया गया है।

प्रश्न—किस नामका जप करना चाहिये?

उत्तर—साधककी जिस नाममें श्रद्धा हो उसीका जप करना चाहिये। भगवान् के बहुत-से नाम हैं। कलियुगमें यह षोडश अक्षरका मन्त्र बहुत विशेष है—

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥

इस मन्त्रका जप शुद्ध या अशुद्ध अवस्थामें हर समय किया जा सकता है। यदि इस मन्त्रका साढे़ तीन करोड़ जप निष्कामभावसे किया जाय तो बहुत विशेष लाभ होता है। निष्काम-भाव है और जप क्रिया है, यदि क्रियाके साथ निष्कामभाव जोड़ दिया जाय तो जप बहुत विशिष्ट हो जाता है। मेरा तो कहना है कि केवल जपसे भी भगवान् मिल जाते हैं। इस षोडश मंत्रमें राम, कृष्ण और हरि तीनों ही आ जाते हैं।

पापोंका हरण करनेवाला होनेके कारण भगवान् का नाम हरि है। कृष्णका अर्थ है—सच्चा आनन्द। धातुसे जो अर्थ निकलता है वह निराकार परक है। रामका अर्थ है—जो सबमें रमण करे वह राम है अथवा योगी लोग जिसमें रमण करें वह राम है।

हरि, राम, कृष्ण—ये तीनों, तीनों युगोंमें हुए, ये सच्चिदानन्दघन ही थे। भगवान् के नामके स्वरूपकी जो स्मृति है वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। वैराग्य इसमें सहायक है। कर्मयोग, ध्यानयोग आदि स्वतंत्र साधन हैं।

भगवान् कहते हैं जो मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है उसके लिये मैं सुलभ हूँ, उसको मेरी प्राप्ति सहजमें हो सकती है।

भगवान् ने कहा है—

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(गीता ९। २२)

जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम-भावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।

जैसे कुली भारको वहन करता है उसी प्रकार मैं उसका भार ढ़ोता हूँ। साधक जहाँतक पहुँच गया है, वहाँतक उसकी रक्षा करता हूँ और जो अप्राप्त है, उसकी प्राप्ति कराता हूँ। भगवान् कहते हैं—

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥
(गीता १०। ११)

हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये उनके अन्त:करणमें स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अन्धकारको प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ।

उन नित्य-निरन्तर भजन करनेवालोंको ज्ञान देता हूँ यानी उनका उद्धार करता हूँ। भगवान् को हर समय याद रखना चाहिये। रात्रिमें सोनेके समय भगवान् को याद रखते हुए सोना चाहिये। ऐसा करनेसे रात्रिका समय साधन बन जाता है। सोते-जागते, उठते-बैठते भगवान् को याद रखें तो निश्चय ही कल्याण हो जाता है।

भगवान् गीताजीमें कहते हैं—मनुष्य जिस-जिस भावको स्मरण करता हुआ शरीरको छोड़कर जाता है उस उसको ही प्राप्त हो जाता है। जैसे कुत्ता, बिल्ली आदिको स्मरण करते हुए जायगा तो उनको प्राप्त होगा। जो मेरा स्मरण करते हुए जायगा वह मुझको प्राप्त होगा। मृत्युका कुछ पता नहीं है किस समय आये, इसलिये हर समय भगवान् को याद रखना चाहिये।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥
(गीता ८। ७)

इसलिये हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू नि:सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।

जिसकी जिस नाममें श्रद्धा, भक्ति है उसको उसीका जप, स्मरण करना चाहिये। क्योंकि सब उसी भगवान् के नाम, रूप हैं, उसको सर्वोपरि मानना चाहिये।

इस समय धार्मिक पुस्तक इतने सस्ते दामोंमें मिलती है तथा सत्संग भी बहुत सस्तेमें मिल जाता है, अत: इस समय लाभ उठा लेना चाहिये। ऐसा समय बहुत दिनों तक नहीं रह सकता। चार सौ वर्ष पहले तुलसीदासजी, कबीरदासजी, मीराबाई आदि हुए थे, उस समय उनसे बहुत-से व्यक्तियोंका कल्याण हुआ था, वैसा ही समय इस समय आया है। इससे लाभ उठा लेना चाहिये, नहीं तो फिर बहुत पश्चात्ताप करना पड़ेगा। इसलिये इस बातको समझकर अपना काम शीघ्र-से-शीघ्र बना लेना चाहिये। आपलोगोंको ऐसे समयमें मनुष्य-शरीर मिल गया है।

अपना दोष दूसरोंपर लगाना भी पाप है। दूसरोंके दोषको न सुनना चाहिये, न देखना चाहिये, न कहना चाहिये। जिस इन्द्रियसे दोष देखने सुननेका काम करेंगे, वही इन्द्रिय दोषी हो जायगी। दूसरोंके पापोंकी चर्चा करनेवाले उनके पापोंका बँटवारा करते हैं। दोष अपने देखने चाहिये और गुण दूसरोंका देखना चाहिये।

जिसके संगसे अपनेमें दैवी सम्पदाके लक्षण आयें, भगवान् के ध्यानमें स्थिति हो तो समझना चाहिये कि यह पुरुष दैवीसम्पदावाला है। यदि आसुरी सम्पदाके लक्षण आयें, उनको विषके समान समझकर त्याग देना चाहिये। जिसने अपना काम बना लिया ऐसे पुरुष लाखोंमें एक होते हैं। हजारोंमें भी नहीं मिलते।

जिनके संगसे अच्छे भावोंकी जागृति हो, वे अच्छे पुरुष हैं। भगवान् का भक्त होगा, उसके दर्शनसे भगवान् की स्मृति होगी।

वक्ता ऐसा होना चाहिये जो पहले स्वयं करे और बादमें कहे, उसका प्रभाव पड़ता है। केवल कहे और स्वयं पालन नहीं करे उसका प्रभाव नहीं पड़ता।

जहाँ स्वार्थ है, वहाँ विशेषता नहीं है। स्वार्थ आनेके बाद विशेषता भाग जाती है यानी वह महात्मा नहीं है। जहाँ भोग-विलास है वहाँ भी महात्मा नहीं है। जहाँ विशेषता है, वह तो ज्ञान, भक्ति, वैराग्यमें चूर रहते हैं। उच्चकोटिके पुरुष कभी अपनेको श्रेष्ठ नहीं बतायेंगे। दूसरे आदमी श्रेष्ठ बतायेंगे तो वह लज्जित हो जायँगे।

मन लगानेके लिये भजन करना चाहिये। जिस भजनका अनुभव करके प्रह्लाद कहता है कि पिताजी देख लें, यह अग्नि ठण्डी हो गयी है।

औषध क्या है? राम-नामका जप। साधकको इन तीनों बातोंपर विशेष ध्यान रखना चाहिये। जो भगवान् के लिये और भगवत्-प्रेमके लिये सब चीजें अर्पण करनेको तैयार नहीं एवं जिसके हृदयमें भगवान् के लिये जलन नहीं, वह भक्त कैसा? यदि घरका एक व्यक्ति बिगड़ता है तो घर बदनाम होता है। समाजका एक आदमी बिगड़ता है तो समाज बदनाम होता है। भक्त बिगड़ता है तो भगवान् को बदनाम करता है; किन्तु भगवान् का उससे कोई सम्बन्ध नहीं रहता।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....

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