भगवान् स्वयं आकर ले जाते हैं
प्रवचन-तिथि—ज्येष्ठ शुक्ल ५, संवत् २००२, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
रातको बहुत महत्त्वपूर्ण बातें हुई थीं। मनुष्य यह निश्चय कर ले कि मरनेके समय कल्याण हो ही जायगा—यह आधार कच्चा है। जो पक्का आधार है उसे अब काममें लाओ यानी हर समय भगवान् का स्मरण करो।
अन्तकालमें भगवान् का स्मरण करता हुआ मरे तो कल्याण हो जाता है, यह बात ठीक है—
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)
जो पुरुष अन्तकालमें मेरेको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
किन्तु अन्तकालमें आपको भगवान् की स्मृति होगी ही, इसके लिये आपके पास क्या प्रमाण है? श्रद्धा पूरी हो तो युक्ति और शास्त्र किसी प्रमाणकी आवश्यकता नहीं है। भगवान् ने शास्त्रका प्रमाण दिया—
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै:॥
(गीता १३। ४)
यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका तत्त्व ऋषियोंद्वारा बहुत प्रकारसे कहा गया है अर्थात् समझाया गया है और नाना प्रकारके वेदमन्त्रोंसे विभागपूर्वक कहा गया है तथा अच्छी प्रकार निश्चय किये हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्रके पदों द्वारा भी कहा गया है।
भगवान् ने श्रुति, स्मृतिका प्रमाण देकर अर्जुनको विश्वास दिलाया। यह बात तो सही है कि अन्तकालमें भगवान् की स्मृति हो जाय तो कल्याण है। किसी एक बातका मनुष्यके हाथमें जोर रहना चाहिये। अन्तकालमें एक तो सप्त पुरियोंकी प्रधानता है। वहाँ वास हो तो मुक्ति हो। यह स्थानकी महिमा है। इसपर निर्भर हों तो यह एक रास्ता है।
इसी प्रकार परमात्माके नामका जप और स्वरूपका ध्यान—यह भी बड़ी जोरकी बात है। वही मनुष्य कह सकता है कि मेरे कल्याणमें सन्देह नहीं है, जिसके निरन्तर भजन होता है, क्योंकि भगवान् कहते हैं—
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८। १४)
हे अर्जुन! जो पुरुष मेरेमें अनन्यचित्तसे स्थित हुआ, सदा ही निरन्तर मेरेको स्मरण करता है, उस निरन्तर मेरेमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।
जो ऐसा साधन करता है, उसको भगवान् पहले ही मिल जाते हैं। निरन्तर परमात्माका स्मरण करना—यह पुख्ता नींव है। कल्याण करनेवाले भगवान् पहले ही आ जाते हैं, अन्तकालकी आवश्यकता ही नहीं है।
किसी प्रकारका जोर होना चाहिये। दूसरा तीर्थ-स्थानका वास है। कोई आदमी व्रजमें और कोई काशीमें रहते हैं। उनका निश्चय है कि हम तो यहीं मरेंगे, यहाँसे छोड़कर कहीं जायँगे ही नहीं—यह तीर्थकी शरण है। वह पक्का है।
एक योगकी शरण है—जैसे समाधि लगाना आ जाय। जब मृत्यु आये तो समाधि लगाकर बैठ जाय। योगीके पास योगका जोर है।
योगका, तीर्थका या भगवान् की स्मृतिका जोर होना चाहिये। स्मृतिका जैसे जोर है, ऐसे ही नामकी मानसिक स्मृतिका जोर हो, वह भी उत्तम है। भगवान् कहते हैं—
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥
(गीता ८। ६)
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावको स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागता है, उस उसको ही प्राप्त होता है, क्योंकि सदा जिस भावका चिन्तन करता है, अन्तकालमें भी प्राय: उसीका स्मरण होता है।
जो भगवान् के नाम या स्वरूपको याद करता है, अन्तकालमें उसकी स्मृति होगी ही, क्योंकि भगवान् कहते हैं—
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:॥
(गीता ७। ३०)
जो पुरुष अधिभूत और अधिदैवके सहित तथा अधियज्ञके सहित सबका आत्मरूप मेरेको जानते हैं अर्थात् जैसे भाप, बादल, धूम, पानी और बर्फ—ये सभी जलरूप हैं, वैसे ही अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ आदि सब कुछ वासुदेवस्वरूप हैं, ऐसे जो जानते हैं, वे युक्त चित्तवाले पुरुष अन्तकालमें भी मुझको ही जानते हैं, अर्थात् मुझको ही प्राप्त होते हैं।
यदि अभेदज्ञानका ज्ञान हो, उस सच्चिदानन्दघन ब्रह्ममें बुद्धिको प्रवेश करा दे। उसकी बुद्धिमें उस परमात्माका तत्त्व समझमें आ जाय, तो वह हट नहीं सकता। वह साधनावस्था है, किन्तु किसी समय भी वह मरे, उसका कल्याण ही है। उसकी बुद्धि तद्रूप हो गयी है।
यह भी नहीं होकर यदि सच्चिदानन्दघन परमात्मा जिसकी बुद्धिमें अच्छी प्रकार समा गये हैं, बुद्धिकी सत्ता मौजूद है, परमात्माका ज्ञान बुद्धिमें हो गया है, यह प्राप्ति होनेके पहलेकी बात है। जो बात बुद्धिके समझमें आ गयी है, वह बात छूट नहीं सकती। जैसे सगुण भगवान् के स्वरूपका ध्यान करनेवाला है, वह स्वरूपका रसास्वाद लेता है, फिर उसका वह त्याग नहीं कर सकता। जैसे गोपियाँ भगवान् के स्वरूपको भुलाना चाहें, तो भी वे भूल नहीं सकतीं।
भगवान् के स्वरूपका जिसे रसास्वाद आता है, उसका गला काट डाले तो भी वह आनन्दसे विचलित नहीं होता। यह एक बड़ा जोर है।
जो निरन्तर जिस बातका चिन्तन करेगा, उसको उसकी स्मृति अन्तकालमें होगी ही, यह नियम है। जो भगवान् का चिन्तन करता है उसे स्वप्न आयेगा तो भगवान् का ही आयेगा। उसे सन्निपात होगा तो वह भगवान् के विषयकी बात ही बहकेगा। नामकी महिमा तुलसीदासजी कहते हैं—
सुमिरहु नाम राम कर सेवहु साधु।
तुलसी उतरि जाहु भव उदधि अगाधु॥
(बरवै रामायण, उत्तरकाण्ड, दोहा-६१)
अरे मन! रामनामका स्मरण करो और सत्पुरुषोंकी सेवा करो। अपार संसार-सागरके पार उतर जाओ।
कोई भी एक चीज हो जाय तो कल्याणमें सन्देह नहीं है। सत्संगका आधार भी महत्त्वपूर्ण है। सत् अर्थात् परमात्मा, उनमें प्रेम होना असली सत्संग है। मुक्ति उस सत्संगकी दासी है।
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
(रा०च०मा०, सुन्दर० ४)
भागवतमें आया है। वहाँ यही बात है कि सत् अर्थात् परमात्मामें प्रेमका नाम सत्संग है।
भगवत्प्रेमकी महिमा जितनी बताओ थोड़ी है। भगवत्प्रेमी पुरुष मुक्तिका सदावर्त बाँट सकते हैं। शिवजी काशीमें मुक्तिका सदावर्त बाँटते हैं। प्रेमके प्रभावको मैं नामके प्रभावसे मूल्यवान् मानता हूँ। नामका प्रभाव भी महत्त्वपूर्ण है। प्रेमके मुकाबलेमें मुक्ति कोई चीज नहीं है। योगीके लिये भगवान् बताते हैं—
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥
(गीता ८। १२-१३)
सब इन्द्रियोंके द्वारोंको रोककर तथा मनको हृद्देशमें स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मनके द्वारा प्राणको मस्तकमें स्थापित करके, परमात्मासम्बन्धी योगधारणामें स्थित होकर जो पुरुष ‘ॐ’ इस एक अक्षररूप ब्रह्मको उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्मका चिन्तन करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गतिको प्राप्त होता है।
ऐसे योगीके पास योगका पक्का बल है। सारी इन्द्रियोंके द्वारोंको रोक दिया है जिन्होंने, मनको हृद्देशमें स्थापन कर दिया है, प्राणोंको मस्तकमें रोप दिया है, फिर ओंकारका उच्चारण किया। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—इस तरह मेरा ध्यान करता हुआ शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है।
इसमें भगवान् का ध्यान तथा नाम-जप ही प्रधान है। उपर्युक्त श्लोकोंमें पहले श्लोकका साधन भले न हो, यदि दूसरे श्लोकके अनुसार भी स्थिति रख लो तो भी बेड़ा पार है। किन्तु बाद वाले श्लोकको हटाकर केवल पहले श्लोकके अनुसार स्थिति बनाओ तो बिना भगवत्स्मृतिके अन्तसमयमें विशेष लाभ नहीं होता। योगके बिना आप जप, ध्यान कर सकें तो योग भले ही मत होओ। आपके पास यह बल हो तो बहुत ही ठीक है।
दो नम्बर सत्संग महापुरुषोंका संग है। प्रथम तो संसारमें महापुरुष बहुत ही कम हैं। चालीस करोड़ मनुष्य इस देशमें माने जाते हैं। इनमेंसे मैं तो समझता हूँ चालीस महापुरुष भी मिल जायँ तो बहुत हैं। हों तो भी हम उन्हें पहचान नहीं सकते। वनमें रहते हों तो हमें मिलें नहीं। चालीस करोड़में सम्भवत: उनतालीस करोड़ तो गृहस्थ होंगे, संन्यासी एक करोड़ होंगे। करोड़ोंमें कोई एक महात्मा होता है। गीताजीसे भी यह झलक निकलती है—
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥
(गीता ७। ३)
हजारों मनुष्योंमें कोई एक मनुष्य मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले योगियोंमें भी कोई ही पुरुष मेरे परायण हुआ मेरेको तत्त्वसे जानता है अर्थात् यथार्थ मर्मसे जानता है।
इस न्यायसे यह माना जाता है कि करोड़ोंमें कोई एक ही उस परमात्माको जानता है। हजारोंमें कोई एक परमात्माकी प्राप्तिके लिये यत्न करता है। बाकी तो सब रुपयोंके लिये भागते फिरते हैं—खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ। यह चौरासी लाख योनियोंमें डालनेवाले हैं। लाखों, करोड़ों बार एक-एक योनियोंमें हम गये हैं। अब तो यह चक्कर बन्द करना ही चाहिये। चक्कर बन्द होता है—इस मनुष्य शरीरमें, अन्य योनिमें नहीं। मनुष्यका शरीर पाकर भी हमने यदि कुत्तेकी तरह केवल आहार, निद्रा आदिमें जीवन बिताया तो शास्त्र कहेगा तुम्हें धिक्कार है। हमपर दु:ख-पर-दु:ख आ रहे हैं, फिर भी हम उन्हें रोकनेका प्रयत्न नहीं करते। दु:ख आकर प्राप्त होता है, तब रोता है। रोनेका स्वभाव पड़ गया है। फिर चौरासी लाख योनियाँ भोगते रहो।
महात्माको जानें कैसे? ईश्वरकी कृपासे या महात्मा जनाना चाहें तो जानें। जाननेमें हेतु होती है—श्रद्धा। भगवान् से प्रार्थना करें तो प्रभु इस कामको कर सकते हैं।
प्रश्न—हम महात्माका तत्त्व, रहस्य जान जायँ—इसकी परीक्षा क्या कि हम जान गये हैं?
उत्तर—जो भगवान् के तत्त्व रहस्यको जान जाता है, प्रेमके तत्त्वको जान जाता है, उससे प्रेम नहीं छूटता। ध्यानके तत्त्वको जो जान जाता है, उससे ध्यान नहीं छूटता। इसी प्रकार महात्माके तत्त्वको जो जान जाता है, उससे महात्मा नहीं छूटता।
प्रश्न—वह नहीं छोड़े, किन्तु यदि महात्मा छोड़ दें।
उत्तर—नहीं, इन तीनकी प्रतिज्ञा है—धर्म, महात्मा और ईश्वर—इनको जो पकड़ लेता है, वे फिर उसको नहीं छोड़ते। शास्त्र कहता है—सारे प्यारे-प्यारे बन्धु श्मशानमें छोड़कर चले आते हैं, किन्तु धर्म साथमें जाता है।
प्रश्न—क्या ईश्वर नहीं जाता है?
उत्तर—ईश्वर वहाँ तक क्या जाय; ईश्वर तो उसे गले लगाकर पहले ही अपने परमधाममें ले जाते हैं। श्मशानमें तो लाश जाती है।
प्रश्न—भगवान् स्वयं आकर ले जाते हैं या पार्षद भेजते हैं?
उत्तर—दोनों ही बात हैं। कभी वे स्वयं आते हैं, कभी अपने पार्षदोंको भेज देते हैं। भगवान् के दूतोंको ही पार्षद कहते हैं। जो उत्कट प्रेमी प्रेमसे भगवान् को खरीद लेता है, वहाँ भगवान् स्वयं आते हैं। यदि ध्यानका बल होता है तो पार्षद आते हैं।
यमराज स्वयं भी आते हैं क्या? आते हैं। सत्यवान् के लिये यमराज स्वयं आये। प्राय: उनके दूत ही आते हैं।
इसी प्रकार जो साधक पुरुष होते हैं, उनके लिये भगवान् के पार्षद ही आते हैं। जो सिद्ध पुरुष होते हैं उनके लिये स्वयं भगवान् ही आते हैं। जो महात्माको जान जाता है, उसका महात्मासे वियोग नहीं होता। प्रारब्धके कारण शरीरका तो वियोग हो जाता है, किन्तु भीतरका वियोग नहीं होता। भीतरका संयोग ही असली संयोग है। आपसे मेरा प्रेम है, आप भले ही हजारों मील दूर रहें तो भी पासमें ही हैं। यदि प्रेम नहीं है और यहाँ व्याख्यान हो रहा है, पासमें बैठे हैं, सोते हैं। तीर्थयात्रामें अजनबी पासमें बैठा है, वह समीप होते हुए भी दूर ही है। यह महात्माके सत्संगका बल बताया।
जिसके पास कोई भी एक बल है उसके कल्याणमें संदेह नहीं। किसी भी बलके आधारपर पहले ही काम बना लेना चाहिये। चाहे सत्संगसे, चाहे योगसे, चाहे प्रेमसे पहले ही भगवान् मिल सकते हैं।
तीर्थमें वास करता-करता फिर तीर्थको छोड़ देता है, क्यों? छोड़ देता है तो तीर्थके रहस्यको समझा ही नहीं। इसी प्रकार महात्माको छोड़ देता है तो महात्माके तत्त्वको समझा ही नहीं। प्रेमको छोड़ देता है तो प्रेमके तत्त्वको समझा ही नहीं। सबमें एक ही बात है। तत्त्व-रहस्यको समझता तो उसको छोड़ नहीं सकता। रुपयोंका लोभी क्या रुपयोंको छोड़ सकता है? महात्मा हो, वैरागी हो, वह रुपयोंको छोड़ सकता है। रुपयोंमें जिसकी प्रीति है, वह कैसे छोड़ सकता है?
खयाल करना चाहिये अर्जुन अपने पितामह भीष्म और कुलगुरु द्रोणाचार्यको बाणोंसे मारता है; क्योंकि भगवान् की आज्ञा है। आज्ञापालन करते हुए भी भीष्मके प्रति पूज्यभाव कम नहीं है। भीष्मजीको बाणोंसे मारकर उनके चरणोंमें नमस्कार करता है। भीष्मने कहा—तकिया लाओ! कौरवादि मखमलका तकिया लाते हैं। भीष्मने कहा—मेरे योग्य तकिया लाओ! और अर्जुनकी ओर देखा। अर्जुनने उनके सिरमें बाण मारकर सिरको ऊँचा कर दिया। भीष्म प्रसन्न हो गये और अर्जुनसे कहा—तुमको धन्य है। तुम यदि इस प्रकारका तकिया नहीं देते तो मैं तुम्हें शाप दे देता।
फिर भीष्मने जल माँगा। सब लोग सुगन्धित जलकी सुराही लेकर दौड़े। भीष्मने कहा—यह मेरे योग्य जल नहीं है। अर्जुनने जमीनमें बाण छोड़ा। जमीन फोड़कर गंगाजी निकलीं और भीष्मके मुखमें आकर गंगाजल गिरने लगा। भीष्मजी तृप्त हो गये।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....