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ध्यानावस्थामें प्रभुसे वार्तालाप

प्रवचन-तिथि—आषाढ़ कृष्ण १, संवत् २००१, दिनांक ७-६-१९४४, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम

साधक एकान्त और पवित्र स्थानमें कुश या ऊनके आसनपर स्वस्तिक, सिद्ध या पद्मासन आदि किसी आसनसे स्थिर, सीधा और सुखपूर्वक बैठे और इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर सम्पूर्ण सांसारिक कामनाओंका त्याग करके स्फुरणासे रहित हो जाय। आलस्यरहित और वैराग्ययुक्त पवित्र चित्तसे अपने इष्टदेव भगवान् का आह्वान करे। जब ध्यानावस्थामें भगवान् आते हैं तब चित्तमें बड़ी प्रसन्नता, शान्ति, ज्ञानकी दीप्ति एवं सारे भूमण्डलमें महाप्रकाश नेत्रोंको बंद करनेपर प्रत्यक्ष-सा प्रतीत होता है। जहाँ शान्ति है, वहाँ विक्षेप नहीं होता और जहाँ ज्ञानकी दीप्ति होती है, वहाँ निद्रा-आलस्य नहीं आते। यह विश्वास रखना चाहिये कि भगवान् से स्तुति और प्रार्थना करनेपर ध्यानावस्थामें भगवान् आते हैं। अपने इष्टदेवके साकाररूपका ध्यान करनेमें कठिनाई भी नहीं है। यदि कहो कि देखी हुई चीजका ध्यान होना सहज है, बिना देखी हुई चीजका ध्यान कैसे हो सकता है? ठीक है; किन्तु शास्त्र और महात्माओंके वचनोंके आधारपर तथा अपने इष्टदेवके रुचिकर चित्रके आधारपर भी ध्यान हो सकता है। इसलिये साधकको उचित है कि नेत्रोंको मूँदकर अपने इष्टदेव परमेश्वरका आह्वान करे और साधारण आह्वान करनेसे न आनेपर उनके नाम और गुणोंका कीर्तन एवं दिव्य स्तोत्र और पदोंके द्वारा स्तुति और प्रार्थना करते हुए श्रद्धा और प्रेमपूर्वक करुणाभावसे गद‍्गद होकर भगवान् का पुन:-पुन: आह्वान करे और भगवान् के आनेकी आशा और प्रतीक्षा रखते हुए इस चौपाईका उच्चारण करे—

एक बात मैं पूँछहु तोही।
कारन कवन बिसारेहु मोही॥

फिर यह विश्वास करना चाहिये कि हमारे इष्टदेव भगवान् आकाशमें हमारे सम्मुख करीब दो फीटकी दूरीपर प्रत्यक्ष ही खड़े हैं। तत्पश्चात् चरणोंसे लेकर मस्तकतक उस दिव्य मूर्तिका अवलोकन करते हुए यह चौपाई पढ़नी चाहिये—

नाथ सकल साधन मैं हीना।
कीन्हीं कृपा जानि जन दीना॥

हे नाथ! मैं तो सम्पूर्ण साधनोंसे हीन हूँ, आपने मुझे दीन जानकर दया की है अर्थात् मैंने तो कोई भी ऐसा साधन नहीं किया जिसके बलपर ध्यानमें भी आपके दर्शन हो सकें, किन्तु आपने मुझे दीन जानकर ही ध्यानमें दर्शन दिये हैं। इस प्रकार भगवान् के आ जानेपर साधक ध्यानावस्थामें भगवान् से वार्तालाप करना आरम्भ करता है।

साधक—प्रभो! आप ध्यानावस्थामें भी प्रकट होनेमें इतना विलम्ब क्यों करते हैं? पुकारनेके साथ ही आप क्यों नहीं आ जाते? इतना तरसाते क्यों हैं?

भगवान्—तरसानेमें ही तुम्हारा परम हित है।

साधक—तरसानेमें क्या हित है, मैं नहीं समझता। मैं तो आपके पधारनेमें ही हित समझता हूँ।

भगवान्—विलम्बसे आनेमें विशेष लाभ होता है। विरहव्याकुलता होती है, उत्कट इच्छा होती है, उस समय आनेमें विशेष आनन्द होता है। जैसे विशेष क्षुधा लगनेपर अन्न अमृतके समान लगता है।

साधक—ठीक है, किन्तु विशेष विलम्बसे आनेपर निराश होकर साधक ध्यान छोड़ भी तो सकता है।

भगवान्—यदि मुझपर इतना ही विश्वास नहीं है और मेरे आनेमें विलम्ब होनेके कारण जो साधक उकताकर ध्यान छोड़ सकता है, उसको दर्शन देकर ही क्या होगा?

साधक—ठीक है, किन्तु आपके आनेसे आपमें रुचि तो बढ़ेगी ही और उससे साधन भी तेज होगा, इसलिये आपको पुकारनेके साथ ही पधारना उचित है।

भगवान्—उचित तो वही है जो मैं समझता हूँ और मैं वही करता हूँ, जो उचित होता है।

साधक—प्रभो! मुझे वैसा ही मानना चाहिये जैसा आप कहते हैं, किन्तु मन बड़ा पाजी है; वह मानने नहीं देता। आप कहते हैं वही बात सही है, फिर भी मुझे तो यही प्रिय लगता है कि मैं बुलाऊँ और आप तुरंत आ जायँ। यह बतलाइये वह कौन-सी पुकार है जिस एक ही पुकारके साथ आप आ सकते हैं?

भगवान्—गोपियोंकी भाँति जब साधक मेरे ही लिये विरहसे तड़पता है तब वैसे आ सकता हूँ या मुझमें प्रेम और विश्वास करके द्रौपदी और गजेन्द्रकी भाँति जब आतुरतासे व्याकुल होकर पुकारता है तब आ सकता हूँ। अथवा प्रह्लादके सदृश निष्कामभावसे भजनेवालेके लिये भी आ सकता हूँ।

साधक—विरहसे व्याकुल करके आते हैं यह आपकी कैसी आदत है? आप विरहकी वेदना देकर क्यों तड़पाते हैं?

भगवान्—विरहजनित व्याकुलताकी तो बड़े ऊँचे दर्जेकी स्थिति है। विरहव्याकुलतासे प्रेमकी वृद्धि होती है, फिर भक्त क्षणभरका भी वियोग सहन नहीं कर सकता। उसको सदाके लिये मेरी प्राप्ति हो जाती है। एक बार मिलनेके बाद फिर कभी छोड़ता ही नहीं। जैसे भरत चौदह सालतक विरहसे व्याकुल रहा, फिर मेरा साथ उसने कभी नहीं छोड़ा।

साधक—आपको कभी कार्य होता तो आप प्राय: लक्ष्मण और शत्रुघ्नको ही सुपुर्द करते, भरतको नहीं; इसका क्या कारण था?

भगवान्—प्रेमकी अधिकताके कारण भरत मेरा वियोग सहन नहीं कर सकता था।

साधक—फिर उन्होंने चौदह सालतक वियोग कैसे सहन किया?

भगवान्—मेरी आज्ञासे बाध्य होकर उसको वियोग सहन करना पड़ा और उसी विरहसे प्रेमकी इतनी वृद्धि हुई कि फिर उसका मुझसे कभी वियोग नहीं हुआ।

साधक—पर उस विरहमें आपने भरतका क्या हित सोचा?

भगवान्—चौदह सालतक विरह सहन करनेसे वह विरह और मिलनेके तत्त्वको जान गया। फिर एक क्षणभर वियोग भी उसको एक युगके समान प्रतीत होने लगा। यदि ऐसा नहीं होता तो मेरी ओर इतना आकर्षण कैसे होता?

साधक—विरहकी व्याकुलतासे निराशा भी तो हो सकती है?

भगवान्—कह ही चुका हूँ ऐसे पुरुषोंके लिये फिर दर्शन देनेकी आवश्यकता ही क्या है?

साधक—फिर ऐसे पुरुषोंको आपके दर्शनके लिये क्या करना चाहिये?

भगवान्—जिस किस प्रकारसे मुझमें श्रद्धा और प्रेमकी वृद्धि हो, ऐसी कोशिश करनी चाहिये।

साधक—क्या बिना श्रद्धा और प्रेमके दर्शन हो ही नहीं सकते?

भगवान्—हाँ, नहीं हो सकते, यही नीति है।

साधक—क्या आप रियायत नहीं कर सकते?

भगवान्—किसीपर रियायत की जाय और किसीपर नहीं की जाय तो विषमताका दोष आता है। सबपर रियायत हो नहीं सकती।

साधक—क्या ऐसी रियायत कभी हो भी सकती है?

भगवान्—हाँ, अन्तकालके लिये ऐसी रियायत है। उस समय बिना श्रद्धा और प्रेमके भी केवल मेरा स्मरण करनेसे ही मेरी प्राप्ति हो जाती है।

साधक—फिर उसके लिये भी यह विशेष रियायत क्यों रखी गयी?

भगवान्—उसका जीवन समाप्त हो रहा है। सदाके लिये वह इस मनुष्य-शरीरको त्यागकर जा रहा है। इसलिये उसके लिये यह खास रियायत रखी गयी है।

साधक—यह तो उचित ही है कि अन्तकालके लिये यह विशेष रियायत रखी गयी है। किन्तु अन्त समयमें मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ अपने काबूमें नहीं रहते; अतएव उस समय आपका स्मरण करना भी वशकी बात नहीं है।

भगवान्—इसके लिये सर्वदा मेरा स्मरण रखनेका अभ्यास करना चाहिये। जो ऐसा अभ्यास करेगा उसको मेरी स्मृति अवश्य होगी।

साधक—आपकी स्मृति मुझे सदा बनी रहे इसके लिये मैं इच्छा रखता हूँ और कोशिश करता हूँ, किन्तु चंचल और उद्दण्ड मनके आगे मेरी कोशिश नहीं चलती। इसके लिये क्या उपाय करना चाहिये?

भगवान्—जहाँ-जहाँ तुम्हारा मन जाय, वहाँ-वहाँसे उसको लौटाकर प्रेमसे समझाकर मुझमें पुन:-पुन: लगाना चाहिये अथवा मुझको सब जगह समझकर जहाँ-जहाँ मन जाय वहाँ ही मेरा चिन्तन करना चाहिये।

साधक—यह बात मैंने सुनी है, पढ़ी है और मैं समझता भी हूँ; किन्तु उस समय यह युक्ति मुझे याद नहीं रहती, इस कारण आपका स्मरण नहीं कर सकता।

भगवान्—आसक्तिके कारण यह तुम्हारी बुरी आदत पड़ी हुई है तथा आसक्तिका नाश और आदत सुधारनेके लिये महापुरुषोंका संग तथा नामजपका अभ्यास करना चाहिये।

साधक—यह तो यत्किञ्चित् किया भी जा सकता है और उससे लाभ भी होता है; किन्तु मेरे दुर्भाग्यसे यह भी तो हर समय नहीं होता।

भगवान्—इसमें दुर्भाग्यकी कौन बात है? इसमें तो तुम्हारी ही कोशिशकी कमी है।

साधक—प्रभो! क्या भजन और सत्संग कोशिशसे होते हैं? सुना है कि सत्संग पूर्वपुण्य इकट्ठे होनेपर ही होता है।

भगवान्—मेरा और सत्पुरुषोंका आश्रय लेकर भजनकी जो कोशिश होती है वह अवश्य सफल होती है। उसमें कुसंग, आसक्ति और सञ्चित बाधा तो डालते हैं; किन्तु इसके तीव्र अभ्याससे सब बाधाओंका नाश हो जाता है और उत्तरोत्तर साधनकी उन्नति होकर श्रद्धा और प्रेमकी वृद्धि होती है और फिर विघ्न-बाधाएँ नजदीक भी नहीं आ सकतीं। प्रारब्ध केवल पूर्वजन्मके किये हुए कर्मोंके अनुसार भोग प्राप्त कराता है, वह नवीन शुभ कर्मोंके होनेमें बाधा नहीं डाल सकता। जो बाधा प्राप्त होती है वह साधककी कमजोरीसे होती है। पूर्वसञ्चित पुण्योंके सिवा श्रद्धा और प्रेमपूर्वक कोशिश करनेपर भी मेरी कृपासे सत्संग मिल सकता है।

साधक—प्रभो! बहुत-से लोग सत्संग करनेकी कोशिश करते हैं, पर जब सत्संग नहीं मिलता तो भाग्यकी निन्दा करने लग जाते हैं। क्या यह ठीक है?

भगवान्—ठीक है, किन्तु उसमें धोखा हो सकता है। साधनमें ढीलापन आ जाता है। जितना प्रयत्न करना चाहिये उतना करनेपर यदि सत्संग न हो तो ऐसा माना जा सकता है, परन्तु इस विषयमें प्रारब्धकी निन्दा न करके अपनेमें श्रद्धा और प्रेमकी जो कमी है उसीकी निन्दा करनी चाहिये; क्योंकि श्रद्धा और प्रेमसे नया प्रारब्ध बनकर भी परम कल्याणकारक सत्संग मिल सकता है।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....

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