दु:खका मूल है ममता
प्रवचन-तिथि—ज्येष्ठ कृष्ण ३०, संवत् २००२, सन् १९४५, प्रात:काल वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
भगवान् गीताजीमें कहते हैं—
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:॥
(गीता २। ११)
हे अर्जुन! जो शोक करनेके योग्य नहीं है उनके लिये तू शोक करता है और पण्डितोंकी-सी बात बनाता है किन्तु वास्तवमें पण्डित है नहीं। जो पण्डित होते हैं वे जिनके प्राण चले गये उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिये भी शोक नहीं करते।
यहाँपर कई भाई इसलिये भी आते हैं कि वहाँ चलो, बातें सुनेंगे तो चिन्ता दूर होगी। सभी लोग चिन्तामें डूबे हुए हैं। बातें सुनते तो हैं किन्तु मानते नहीं। वनमें मृग हरी-हरी घास चरते हैं, उन्हें पता नहीं कि अचानक सिंह आकर मार देगा। इसी प्रकार हम विषय-भोग भोगते हैं, यह पता नहीं कि काल आकर अचानक मारेगा।
आजकल छोटी आयुके बालक अधिक मरते हैं, किसी भी आयुमें कोई भी मर सकता है। जो मर चुके, वे मर चुके; जो बचे हैं उन्हें भी मरना है, कोई उपाय नहीं जिससे कोई बच सके।
घरमें कोई मर जाय तो चिन्ता, शोक नहीं करना चाहिये। शोक तो करना ही नहीं चाहिये। यही उपदेश भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनके प्रति दिया कि जो शोक करनेके योग्य नहीं हैं उनके लिये तू शोक करता है, तू कुटुम्बवालोंके लिये शोक करता है। वह शोक करने लायक नहीं हैं।
किसीके घरमें कोई मर जाता है तो बाहरसे लोग आते हैं, आनेवालोंको यात्रामें बड़ा कष्ट होता है। किसीके यहाँ कोई मर जाय तो जो आनेवाले हों उन्हें पत्र लिखकर मना कर देना चाहिये कि जो बात होनी थी वह तो हो गयी। आपको आने-जानेमें कष्ट होगा।
हर-एक भाई, माता-बहनको यह बात समझनी चाहिये और समझकर काममें लानी चाहिये कि घरमें शोक हो जाय तो सत्संग करना चाहिये। अभिमन्युकी मृत्यु हो गयी तो ऋषिगण आये तथा राजा युधिष्ठिरको उपदेश दिया कि अभिमन्यु शोक करने योग्य नहीं है। शोक करने योग्य वह है जो आत्महत्या करके मरता है।
यहाँकी भूमि तीर्थभूमि है, मायापुरी है, यहाँ कोई मरे तो शोक नहीं करना चाहिये। मरनेके समय भगवान् के नामका, गुणोंका कीर्तन होता रहे तो बड़ा उत्तम है। विष्णुपुराणमें एक कथा है—यमराज अपने दूतोंको समझा रहे हैं कि जहाँ कीर्तन होता हो, उस मृतकके पास तुम मत जाना।
मरनेवालेके पास गीताजीका पाठ, कीर्तन, सत्संग करना चाहिये। तुलसी, गंगाजल पिलावें तो यमके दूत आ ही नहीं सकते। ‘‘गंगाजललवकणिका पीता।’’
जहाँ ऐसा हो उसकी चर्चा यमराज भी नहीं करते। भगवान् ने कहा है—
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)
जो पुरुष अन्तकालमें मेरेको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
यह गंगा किनारेकी भूमि ही कल्याण करनेवाली है। अर्जुनके निमित्त भगवान् ने सारे विश्वको उपदेश दिया है। शोक करनेयोग्य बात यह है कि हम जिस कामके लिये आये थे, वह पूरा नहीं हो पाया। जो समय चला गया वह लौटकर आनेवाला नहीं है। बचा हुआ समय काममें लेना चाहिये। मनुष्य जन्म पाकर मुक्त नहीं हुए तो कब होंगे? मुक्तिका तात्पर्य है भय, शोक आदिसे रहित होना, जन्म-मरणसे मुक्त होना।
किसी भी कारणसे शोक करना नहीं बनता। बालीकी मृत्यु हुई, तारा शोक करने लगी। भगवान् ने उसे उपदेश दिया, तब उसे ज्ञान हो गया और उसका शोक जाता रहा। ताराके हृदयमें ज्ञान हो गया, तब उसने भगवान् से भक्ति माँगी। हमें यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि घरमें कोई मर जाय तो शोक नहीं करना चाहिये। भगवान् गीताजीमें भी यही बात कहते हैं कि आत्माके लिये शोक करना नहीं बनता—
न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
(गीता २। २०)
यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है। क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।
आत्मा न जन्मता है न मरता है, वह नित्य है, अजन्मा है, शाश्वत है। इसमें किसी तरहसे परिवर्तन नहीं होता। यह आत्मा सनातन है, शरीरके नाश होनेपर भी आत्माका नाश नहीं होता।
शरीरके लिये भी क्यों शोक करना चाहिये? भगवान् कहते हैं—
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥
(गीता २। २८)
सभी प्राणी पहले बिना आकारवाले थे, बादमें भी आकारवाले नहीं रहेंगे। केवल बीचमें आकारवाले बन गये, उसके लिये क्या चिन्ता है।
जैसे किसीको स्वप्नमें हिन्दुस्तानका राज्य मिले, जागनेपर वह राज्य न रहनेके कारण रोने लगे, इसी तरहकी यह बात है। शरीरोंका विनाश तो होना ही है। जो नाश होनेवाला ही है उसके लिये क्यों शोक करना चाहिये।
आत्माका जन्मना-मरना मानना मूर्खोंका सिद्धान्त है। यदि वह भी सिद्धान्त माना जाय तो उनके सिद्धान्तसे भी यह बात सिद्ध होती है कि जो जन्मे हैं वे तो मरेंगे ही। किसी भी सिद्धान्तसे, किसी भी प्रकारसे शोक करना नहीं बनता।
यदि कहो कि हम तो आत्मासे शरीरोंका वियोग होता है, उसके लिये शोक करते हैं। उसके लिये भी शोक नहीं करना चाहिये। भगवान् कहते हैं—
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
यदि तू कहे कि मैं तो शरीरोंके वियोगका शोक करता हूँ तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्याग कर दूसरे नये वस्त्रोंको धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्याग कर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है।
आप कहें कि यह उपदेश तो अर्जुनके प्रति था, जहाँ सभी तरहके वृद्ध, युवा आदि पुरुष थे। बात यह है कि जिसकी आयु समाप्त हो चुकी है वही पुराना है। धोबीसे धुलकर आये पुराने कपड़े भी नये दीखते हैं; किन्तु धोबी जानता है कि कौन-सा कपड़ा नया है और कौन-सा पुराना है। इसी प्रकार भगवान् तो सबको जानते ही हैं, कौन नया है कौन पुराना है। वे कहते हैं—
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥
(गीता ७। २६)
हे अर्जुन! पूर्वमें व्यतीत हुए और वर्तमानमें स्थित तथा आगे होनेवाले सब भूतोंको मैं जानता हूँ, परन्तु मेरेको कोई भी श्रद्धा, भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता।
जिनकी आयु समाप्त हो गयी वे पुराने ही हैं। सबके शरीरकी आयु समान नहीं होती, कपड़ा भी कोई पाँच वर्ष, कोई दो वर्ष, कोई एक वर्ष टिकता है। कोई पूछे कि पुराना कपड़ा उतारते समय और नया कपड़ा पहनते समय प्रसन्नता होती है। किसको प्रसन्नता होती है? समझदारको, न कि बच्चेको। बच्चा तो कपड़ा बदलते समय रोता है। किन्तु माँ उसके रोनेकी परवाह ही नहीं करती। इसी प्रकार भगवान् हमारी परवाह नहीं करते और गंदे शरीरको बदलकर नया शरीर देते हैं। समझदार आदमी किसीकी मृत्युपर नहीं रोते। भगवान् ने बतलाया है—
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥
(गीता २। १३)
जैसे कुमार, युवा और वृद्धावस्था होती है वैसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है। इसलिये जो धीर पुरुष होते हैं वे नहीं रोते।
हमें यही बात तो समझनी है कि हमारे घरमें कोई मरे और हम रोवें तो यह हमारी मूर्खता है। कोई भी रोता है तो वह मूर्खताका परिचय देता है। भगवान् के लिये रोना चाहिये, यह संतोंका आदेश है।
केशव केशव कूकिये न कूकिये असार।
हे केशव! हे नाथ! हे हरि! इस प्रकार रोना चाहिये। असार संसारके लिये कभी नहीं रोना चाहिये। लोग रोते हैं असार संसारके लिये, संसारके लिये रोनेसे कोई लाभ नहीं होगा।
दुर्वासा ऋषिके आनेपर द्रौपदीने भगवान् को पुकार लगायी, भगवान् प्रकट हो गये। भगवान् के लिये रोना तो लाभदायक है। उस वस्तुके लिये रोना चाहिये जिससे हमें शान्ति मिले।
आत्मा नित्य है और शरीर अनित्य है, इसलिये शोक नहीं करना चाहिये। भक्तिकी दृष्टिसे यह समझना चाहिये कि घरमें कोई मर गया तो शोक क्यों करें? आप यहाँ गीताभवनमें रहते हैं, हमारे यहाँ रुपया जमा करते हैं और जाते समय अपना रुपया वापस लेते हैं। हम दु:ख करें तो हमारी नालायकी है। इसी प्रकार भगवान् ने लड़केको हमारे पास रक्षाके लिये भेजा, भगवान् उसे वापस लेते हैं। हम उसके लिये रोवें तो यह हमारी मूर्खता है। जिस प्रकार हँसकर किसीकी वस्तु रखी, उसी प्रकार हँसकर दे देना ईमानदारी है, अन्यथा बेईमानी है। दूसरोंकी वस्तु हमारे पास रह ही कैसे सकती है। यही मनुष्यता है कि दूसरेकी वस्तु उसे प्रसन्नतासे लौटा दें, अन्यथा अपमानित होना पड़ेगा और वस्तु भी वापस देनी ही पड़ेगी। भगवान् के यहाँ तो उसका और अच्छा प्रबन्ध है। हम रोयें तो भगवान् कहेंगे यह मेरा भक्त कहाँ है? मेरा भक्त होता तो मेरी इच्छाके अनुकूल ही अपनी इच्छा रखता। भगवान् की इच्छाके बिना कोई मर नहीं सकता। भक्त वही होता है जो स्वामीके किये हुए कार्यपर नाराज नहीं हो एवं दु:ख न माने। इस न्यायसे भी प्रसन्नता रखनी चाहिये।
कर्मयोगकी दृष्टिसे विचार करो—कोई जन्मा और मर गया, सोचना चाहिये कारण क्या है? रोना तो इसलिये है कि सोलह वर्षतक पाला-पोसा, रुपया खर्च किया और वह चला गया। विचार करना चाहिये कि उसका हमारेपर ऋण था, वह पूरा भुगतान लेकर चला गया। उसके हम ऋणी थे, अब खाता बराबर हो गया। हम ऋणसे मुक्त हो गये। ऋणसे मुक्त होनेपर प्रसन्न होना चाहिये और परमात्मासे प्रार्थना करनी चाहिये कि सबके ऋणसे मुझे मुक्त कर दें तथा मेरे किये हुए कोई पाप हों तो उनका दण्ड भुगताकर मुझे मुक्त कर दें। भीष्मपितामह प्रार्थना करते हैं कि जो कोई मेरे पाप हैं, वे आकर इसी शरीरसे अपना फल भुगता लें।
वैराग्यकी दृष्टिसे भी शोक नहीं करना चाहिये—हम रेलमें बैठते हैं, रास्तेमें कई आदमी आते हैं, कोई उतर जाता है तो हम प्रसन्न होते हैं कि भीड़ कम हो गयी। इसी प्रकार यह रेलका डिब्बा है, इसमेंसे कोई उतर गया तो और अच्छा हुआ। इसमें शोककी क्या बात है? हमने यह मान लिया कि यह हमारा लड़का! यह हमारा पोता! तब शोक होता है, संसारमें रात-दिन लड़के मरते ही रहते हैं। तुमने अपनी मान्यताकी स्थापना की कि यह हमारा लड़का! यह हमारा पोता! इसलिये रोते हो। हर-एक माता, भाई, बहनको ऐसा विचार करके शोक नहीं करना चाहिये।
दु:खका मूल ममता ही है। हम ममता करते हैं कि यह मेरा भाई, यह मेरी स्त्री; किन्तु उससे ममता करनी चाहिये जो सत्य हो, जिसके लिये रोना नहीं पड़े। सत् वस्तु परमात्मा हैं, नाशवान् वस्तु संसार है। परमात्माके साथ कोई प्रेम करेगा उसे रोना नहीं पड़ेगा। भगवान् के साथ संयोग हो गया तो वियोग हो ही नहीं सकता। प्रेमके योग्य तो भगवान् ही हैं, इसलिये हमें सारे पदार्थोंसे प्रेम हटाकर केवल प्रभुमें प्रेम करना चाहिये। केवल प्रभुके साथ प्रेमका नाम अनन्य-भक्ति है। अन्य किसीकी आवश्यकता नहीं है। भगवान् कहते हैं—
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप॥
(गीता ११। ५४)
हे अर्जुन! अनन्यभक्ति करके तो इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये और तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ।
उसके जन्मको धिक्कार है जो परमात्माको छोड़कर संसारमें प्रेम करता है। जितने शरीर हैं, पदार्थ हैं वे तो मैलेके समान हैं। इस शरीरमें नौ द्वार हैं, उनके द्वारा मल-ही-मल निकलता रहता है, दुर्गन्ध-ही-दुर्गन्ध है। प्रेमके लायक कौन-सी चीज है? प्रेम करने लायक तो भगवान् का दिव्य माधुर्य स्वरूप है, वे आनन्दमय हैं, शुद्ध हैं, अमृतमय हैं, उन माधुर्यमूर्ति भगवान् से प्रेम करना चाहिये। इस असार संसारसे क्या प्रेम किया जाय।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण.....