एक बार भगवान् को प्रणाम करनेका महत्त्व
प्रवचन-तिथि-प्रथम वैशाख शुक्ल ६, संवत् १९८१, सन् १९२४, दोपहर,स्वर्गाश्रम
संसारके ऐश-आराम गिरानेवाले हैं, सबसे बढ़कर उत्तम कार्य करना चाहिये। कलियुगमें सबसे उत्तम कार्य भजन माना गया है। यदि वह निष्कामभावसे किया जाय तो बहुत उत्तम है।
जबहिं नाम हिरदे धरॺो भयो पापको नास।
मानो चिनगी अग्नि की परी पुरानी घास॥
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कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥
(रा०च०मा०,उत्तर० १०३)
इसलिये हर समय भगवान् का भजन ही करना चाहिये।
कलिजुग केवल नाम अधारा।
सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा॥
नामके जपसे नामी याद आता है और नामीकी स्मृतिसे काम बनता है। एक क्षणमें यानी अन्तमें स्मरण करनेसे कल्याण हो जाता है। फिर एक नामसे कल्याण हो जाय इसकी बात ही क्या है! एक पुरुष अपनी पूरी सम्पत्तिको यज्ञ, दानादिमें खर्च करके समाप्त कर चुका और दूसरेने अन्तकालमें भगवान् का स्मरण किया, उससे वह अन्तकालमें भगवान् का स्मरण करनेवाला बहुत ही उत्तम है; क्योंकि जिसने दानादि किया है, वह पुण्य क्षीण होनेपर फिर संसारमें आता है। यह गीताजीमें आया है—
त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥
(गीता ९। २०)
जो तीनों वेदोंमें विधान किये हुए सकाम कर्मोंको करनेवाले और सोमरसको पीनेवाले एवं पापोंसे पवित्र हुए पुरुष मेरेको यज्ञोंके द्वारा पूजकर स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्योंके फलस्वरूप इन्द्रलोकको प्राप्त होकर स्वर्गमें दिव्य देवताओंके भोगोंको भोगते हैं।
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते॥
(गीता ९। २१)
और वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर, पुण्य क्षीण होनेपर, मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं, इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मके शरण हुए और भोगोंकी कामनावाले पुरुष बारम्बार जाने-आनेको प्राप्त होते हैं अर्थात् पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेसे मृत्युलोकमें आते हैं।
अन्तसमयमें यानी प्राण जानेके समय जो एक बार प्रेमसे भगवान् को प्रणाम कर लेता है वह मुक्त हो जाता है। ऐसा दस अश्वमेध यज्ञसे भी नहीं होता। एक बार भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवाला दस अश्वमेध यज्ञ करनेवालेके बराबर है। दस अश्वमेध यज्ञ करनेवाला तो वापस आता है, पर भगवान् को नमस्कार करनेवाला नहीं लौटता—
एकोऽपि कृष्णस्य कृत प्रणामो
दशाश्वमेधावभृथेन तुल्य:।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म
कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय॥
बाली कहता है मुनि लोग अनेक प्रकारके यज्ञ, दानादि करते हैं पर आत्माका उद्धार नहीं होता। अन्तमें राम कहकर जो जाते हैं वे फिर नहीं लौटते।
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं।
अंत राम कहि आवत नाहीं॥
जासु नाम बल संकर कासी।
देत सबहि सम गति अबिनासी॥
मन लोचन गोचर सोइ आवा।
बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा॥
(रा०च०मा०, किष्किन्धा० १०। ३—५)
मुनि लोग अनेक प्रकारके यत्न करते हैं। बिना भक्तिके किया हुआ कर्म वापस आनेवाला होता है। ऐसा कौन मूर्ख होगा जो इस मौकेको खोयेगा? बालीने यही कहा—महाराज आपके दर्शनके बाद भी क्या मैं पापी रहा?
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि॥
(रा०च०मा०, किष्किन्धा० ९)
आपका ध्यान करता हुआ पुरुष भी वापस नहीं आता, फिर मैं तो आपका दर्शन कर रहा हूँ।
भगवान् के एक नामका त्रिलोकीके राज्यके लिये भी सौदा नहीं करना चाहिये। त्रिलोकीका राज्य उसके सामने तुच्छ है। वह भी मूढ़ है जो उसके बदले त्रिलोकीका राज्य लेता है। प्रभुके नामके मुकाबले त्रिलोकीका मूल्य कुछ नहीं है। भगवान् गीताजीमें कहते हैं, जो मुझको जान लेता है वह फिर सब प्रकारसे मुझे ही भजता है।
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
(गीता १५। १९)
हे भारत! इस प्रकार तत्त्वसे जो ज्ञानी पुरुष मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वरको ही भजता है।
जो यह कहता है कि कितना भजन करनेसे भगवान् मिलते हैं, ऐसा कहनेवाला भक्त नहीं। भक्त तो यही कहता है कि मैं तो रात-दिन भजन ही करता रहूँ। जो भजनसे छुट्टी चाहता है उसे भगवान् की कृपा नहीं मिलती, जो प्रभुको हृदयमें बसाना चाहता है, उसपर भगवान् की कृपा होती है। हे प्रभो! हमारा आपमें अनन्य प्रेम हो, प्रेम नहीं तो आपका चिन्तन ही हो, अत: हमको चलते-फिरते प्रभुका चिन्तन करना चाहिये। भगवान् के स्मरणके लिये नाम सहायक है, अत: कम-से-कम चौबीस घंटेमें लिये जानेवाले २१,६०० श्वाससे ही मालाके हिसाबसे नाम-जप करना चाहिये, चौदह माला कम-से-कम हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ की फेरे। इसके लिये विचार करना चाहिये और आजसे ही माला फेरनी चालू कर देनी चाहिये। इस भूमिमें जो साधन-भजन करता है उसका महान् फल होता है। यहाँ दान पात्रके अनुसार दुखियोंको, अनाथोंको देना चाहिये। यज्ञोंमें सबसे बढ़कर जपयज्ञ है, इसलिये जप करना चाहिये। महात्माओंका सत्कार, शास्त्रका अध्ययन, रात-दिन उत्तम कार्य करते रहना चाहिये। पूर्वमें यहाँ लोग आया करते तो केवल उत्तम कार्य ही करते थे। जो समय चला गया वह तो चला गया, अब तो भविष्यका समय आनन्दमय बना लेना चाहिये। हमलोग मनुष्य हैं यह बात समझनेपर भी यदि भगवत्प्राप्ति नहीं होगी तो पछताना पड़ेगा। तुलसीदासजी कहते हैं—
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥
(रा०च०मा०, उत्तर० ४३)
जो अपने समयको व्यर्थ बितायेगा उसे सिर धुन-धुनकर पछताना पड़ेगा।
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
(रा०च०मा०, उत्तर० ४४)
मनुष्यका शरीर और ऐसी तीर्थ भूमि, उसमें भी भगवत् चर्चा ऐसा मौका लगनेपर भी यदि कल्याण नहीं करेगा तो वह निन्दाका पात्र, मन्दबुद्धि, आत्महत्यारा है। यह सब खयाल करके अपने समयको एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये। समयका सबसे उत्तम उपयोग यही है कि भगवान् को हर समय याद रखना।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....