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नामजपसे विधाताके लेखका मिटना और भगवान् द्वारा रक्षा

सकृदपि परिगीतं श्रद्धया हेलया वा।
भृगुवर नरमात्रं तारयेत् कृष्णनाम॥

श्रद्धासे, अवहेलनासे—कैसे भी एक बार भी किया हुआ कृष्णनामका कीर्तन मनुष्यमात्रको तार देता है।

प्रश्न—वर्षोंसे चेष्टामें लगा हूँ, बहुतेरे साधु-महात्माओंके दर्शन किये, तीर्थोंमें घूमा, मंत्रोंके अनुष्ठान किये, नाना प्रकारकी साधनाएँ कीं, पर मेरा दुष्ट मन किसी प्रकार भी वशमें नहीं होता। शास्त्र और संत कहते हैं मनके वशमें हुए बिना भगवान् की प्राप्ति नहीं होती। यह तो निर्विवाद है कि भगवान् की प्राप्ति हुए बिना जीवन व्यर्थ है। मैं हताश हो गया हूँ, मैं चाहता हुआ भी भगवान् को नहीं पा सकूँगा, मेरे लिये कोई उपाय है? भगवान् क्या दया करके मुझ सरीखे चंचल चित्तको अपना लेंगे?

उत्तर—सच्ची लगन हो और दृढ़तापूर्वक अभ्यास किया जाय तो मनका वशमें होना असम्भव नहीं है। मन वशमें करनेके बहुत-से उपाय हैं, उनके द्वारा मन वशमें अवश्य ही हो सकता है, परन्तु इस कलियुगी जीवनमें कहीं शान्ति नहीं है। नाना प्रकारकी आधि-व्याधियोंसे मनुष्यका मन सदा घिरा रहता है, इसलिये मनको वशमें करनेके साधनमें लगाना बड़ा कठिन है। साधनमें लगनेपर भी नाना प्रकारके विघ्नोंके कारण सच्ची लगन और दृढ़ विश्वासका होना भी कठिन ही है।

प्रश्न—क्या मनुष्य जीवनकी सफलताका कोई उपाय नहीं है?

उत्तर—है क्यों नहीं? ऐसा सुन्दर उपाय है जिसे ब्राह्मणसे चाण्डाल तक, परम विद्वान् से वज्रमूर्खतक, स्त्री-पुरुष, सदाचारी-कदाचारी सभी सहज ही कर सकते हैं। वह उपाय है वाणीके द्वारा भगवान् के नामकी रटन। कोई किसी भी अवस्थामें हो, नाम-जप अपने स्वाभाविक गुणसे जपनेवालेका मनोरथ पूर्ण कर सकता है और उसे अन्तमें भगवान् की प्राप्ति करा देता है। अन्य साधनोंमें मनके वशमें होने तथा शुद्ध होनेकी आवश्यकता है। भावके अनुसार ही साधनका फल हुआ करता है, परन्तु नाम-जपमें यह बात नहीं है, किसी भी भावसे नाम लिया जाय, वह कल्याणकारी ही है।

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
(रा०च०मा०, बाल० २८। १)

इसलिये मन वशमें हो चाहे न हो। कैसा भी भाव हो, तुम विश्वास करके जैसे बने वैसे ही भगवान् का नाम लिये जाओ और निश्चय करो कि भगवान् के नामसे तुम्हारा अन्त:करण निर्मल हुआ जा रहा है और तुम भगवान् की ओर बढ़ रहे हो। नाम लेते रहो, ताँता न टूटे, निश्चय ही इसीसे तुम अन्तमें भगवान् को पाकर कृतार्थ हो जाओगे।

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥
(रा०च०मा०, उत्तर० १०३ क)
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥

कलियुगमें केवल हरिका नाम ही सार है। कलियुगमें हरिनामको छोड़कर दूसरी गति नहीं है! नहीं है! नहीं है।

श्रीप्रेमलताजीके वचनामृतमें नाम माहात्म्यकी बहुत-ही महत्वपूर्ण दिव्य वाणी है। कुटिल कर्मकी रेख भी नाम-जपसे मिट जाती है। भगवान् स्वयं नाम-जापककी रक्षामें रहते हैं, इसलिये भगवान् का नाम जितना अधिक-से-अधिक जपा जाय निरन्तर लेते रहना चाहिये।

नाम रटन कहु कौन प्रयासा केवल जीभ हिलाना है।
लाभ अमित अति अकथ अनूपम गावत वेद पुराना है॥
नहिं कोउ धर्म कर्म साधन सिधि तेहि सम ज्ञान न ध्याना है।
‘प्रेमलता’ ते धन्य नाम जिन सब विधि सर्वस माना है॥ १॥
कुटिल कर्म की रेख कठिन जो नाम रटे मिट जाती है।
अनहोनी ह्वै जात भलाई दसहू दिसि दरसाती है॥
मृत्यु मातु सम होइ नाम बल जो सब जगको खाती है।
‘प्रेमलता’ सो धन्य संत जेहि नाम सु रटना भाती है॥ २॥
कोटिन विघ्न विलाय नाम-धुनि सुनि कर दे जाते टाला।
पावक शीतल होइ हलाहल करै नाम बल प्रतिपाला॥
अरिहु मित्रता करै डरै तेहि बाघ-भालु बिच्छू-ब्याला।
‘प्रेमलता’ जो सदा नामकी फेरा करता है माला॥ ३॥
रामरूप धनु-बाण धारिकर रक्षामें नित रहते हैं।
शिव त्रिशूल धरि ब्रह्म दण्डकर विष्णु चक्र नित लहते हैं॥
नारायण धरि गदा कौमुदी जापकके रिपु दहते हैं।
‘प्रेमलता’ हनुमान मनोरथ पुरवहिं जो कुछ चहते हैं॥ ४॥
सियजू भोजन देहिं शक्ति सब करैं आय सिरपर छाया।
दानव-देव भूत-किंनर पशु-पक्षी जो जगमें जाया॥
नाम-प्रताप विषमता परिहरि करत सकल निसिदिन दाया।
‘प्रेमलता’ तेहि भजहिं न जड़मति पाइ अनूपम नर-काया॥ ५॥
त्रिगुणमयी माया जो प्रभुकी जग कहँ नाच नचावति है।
सृति पालति संहरति लोक पुनि रुख लखि बहुरि नसावति है॥
ज्ञानी सूर मुनीसन्हके मन छन महँ पकरि डुलावति है।
‘प्रेमलता’ सोइ नाम-जापकनि शिशु सम लाड़ लड़ावति है॥ ६॥
नाम-प्रभाव अपार बखानत रामहुँ हिये लजाते हैं।
पतितहु पावन होत रटत जेहि बिनु श्रम पर-पद पाते हैं॥
यवन गयो प्रभु-धाम नाम जपि ब्याधउ ब्रह्म कहाते हैं।
‘प्रेमलता’ ते धन्य लोकमें जे सियराम सुगाते हैं॥ ७॥
जितना रटिहौ नाम अन्तमें उतना ही सुख पाओगे।
जो न मानिहौ सीख मोह बस तो पीछे पछताओगे॥
रटे बिना सिय-राम नामको दर-दर धक्का खाओगे।
‘प्रेमलता’ सिय-राम भजन बिनु यमपुर बाँधे जाओगे॥ ८॥
रटो-रटो सियराम नाम अब नाहक देर लगाओ जी।
लोक-लाज कुलकी मर्यादा नाता-नेह बहाओ जी॥
कादरपन तजि कपट-चातुरी नित नव प्रेम बढ़ाओ जी।
‘प्रेमलता’ धनि मनुज-देहको ताहि न व्यर्थ नसाओ जी॥ ९॥
श्रीसिय-राम-नामकी महिमा बहुबिधि पढ़ते-सुनते हौ।
रटते काहे न खूब निरन्तर बातें क्यों कर गढते हौ॥
हटते हौ क्यों भजन पन्थमें आगे क्यों नहिं बढ़ते हौ।
‘प्रेमलता’ सिय राम-भजन-पथ धाय न काहे चढ़ते हौ॥ १०॥
(हितोपदेशक ६८—७७)
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....

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