समयकी अमोलकता
प्रवचन—दिनांक १३-३-१९४२, रात्रि, साहबगंज, गोरखपुर
हमलोगोंको अपना समय अमूल्य समझना चाहिये। अभीतक हमलोग समयका मूल्य नहीं समझे हैं। मूल्य भी जो लोग समझते हैं वे अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार समझते हैं। हमलोगोंको उत्तम पुरुषकी बुद्धिका आश्रय लेना चाहिये। एक राजगीर है, वह अपने समयकी उतनी कीमत समझता है, जितनी उसकी दिनभरकी मजदूरी है। उसकी मजदूरी यदि आठ आना है तो वह दिनभरकी कीमत आठ आना समझता है, वह एक घण्टा भी व्यर्थ बात नहीं करना चाहता। डॉक्टर आदि हैं वे उससे ज्यादा समयकी कीमत समझते हैं। रोगी ज्यादा बीमार हो, डॉक्टरसे कहते हैं आप रातभर रोगीके पास रहें, तब डॉक्टरने कहा—रात-भरका पचास रुपये लेंगे। वे भी अपने समयका मूल्य पचास रुपये समझते हैं। एक वकील होता है वह भी अपने समयकी कीमत समझता है। उससे एक घण्टा बात की, बत्तीस रुपये फीसका बिल भेज दिया। उसने समयकी कीमत बत्तीस रुपये समझी। बैरिस्टर उससे भी ज्यादा कीमत समझते हैं। पर अध्यात्म-बुद्धिसे विचार किया जाय तो वे सब-के-सब मूर्ख हैं, जो अपने समयको बेचते हैं। पच्चीस हजार रुपया महीना वेतनवाला भी घाटेमें ही है। वह भी समयकी कीमत नहीं समझता। समयकी कीमत हम बतला ही नहीं सकते। लाख रुपया दिनकी कीमत बता दी वह भी थोड़ी है। समयकी कीमत रुपयोंसे नहीं होती। रुपयोंसे क्या होता है? सुख मिलता है, समयकी कीमतके बदले हम हिन्दुस्तानका राज्य दे दें, वह भी उसके सामने कुछ भी नहीं है। यदि हम कल ही मर गये तो वह राज्य-भोग एक दिनका ही तो हुआ। इसकी कीमत राज्य समझना भी कम ही है। इसकी कीमत स्वर्ग समझ लेना भी कम है, क्योंकि रामायणमें लिखा है—
एहि तन कर फल बिषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
(रा०च०मा०, उत्तर० ४४। १-२)
यदि विषय-भोगोंमें समय बिताते हो तो मूर्ख हो। मनुष्यका शरीर पाकर विषयोंमें मन देनेवाला शठ है, क्योंकि वह अमृतरूप परमात्माको छोड़कर संसाररूपी विषको लेता है। मनुष्य-शरीरसे परमात्मा मिल सकते हैं और प्रसन्न होते हैं संसारको लेकर। गीताजीमें भगवान् कहते हैं—
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥
(गीता ५। २२)
जो यह इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुखरूप भासते हैं, तो भी नि:सन्देह दु:खके ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं, इसलिये हे अर्जुन! बुद्धिमान्, विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध—ये विषय और इन्द्रियोंके भोग दु:खके ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले हैं, जो इनमें रमण करते हैं वे मूर्ख हैं, बुद्धिमान् इनमें नहीं रमते। स्वर्ग भी अल्प ही है। थोड़े दिनमें वहाँसे भी विदा होना पड़ता है। स्वर्गके लिये भगवान् कहते हैं—
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते॥
(गीता ९। २१)
वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर, पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं, इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम-कर्मके शरण हुए और भोगोंकी कामनावाले पुरुष बारम्बार जाने-आनेको प्राप्त होते हैं अर्थात् पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेसे मृत्युलोकमें आते हैं।
संसारके भोगोंमें जो अपने समयको बिताता है, उसकी सारे शास्त्रोंमें निन्दा की गयी है। विचार करना चाहिये कि अपना समय किस काममें लगाना चाहिये। अपना समय बहुत ऊँचे काममें लगाना चाहिये। राज्यके लिये, स्वर्गके लिये, तीनों लोकोंके राज्यके लिये भी नहीं लगाना चाहिये। यह अमूल्य समय उसके लिये नहीं है। मान लो दिनभर परिश्रम करनेके बाद आपको त्रिलोकीका राज्य मिल गया और कल ही आपकी मृत्यु है तो त्रिलोकीका राज्य कौन भोगेगा? यदि इसके लिये समय बिताते हैं तो भूल करते हैं। समय उस काममें बिताना चाहिये, जिसमें आपका समय बिताना सार्थक हो। जिसका फल नित्य हो, पूर्ण हो। आपकी जिस क्रियाका फल अपूर्ण मिले, उस क्रियाको उसी समय छोड़ दें। पूर्ण-अपूर्ण क्या है?
अपूर्ण—आजतक संसारके भोग भोगे क्या कभी तृप्ति हुई? नहीं। हमारे यह लालसा लगी ही रहती है कि और सुख मिले।
पूर्ण—ऐसी भी एक चीज है, जिसकी प्राप्ति होनेके बाद और आकांक्षा नहीं रहती, वह है परमात्माकी प्राप्ति,उसकी प्राप्ति होनेके बाद ऐसी ही बात हो जाती है। गीता कहती है—
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:॥
(गीता ६। २१)
इन्द्रियोंसे अतीत केवल, शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करनेयोग्य जो अनन्त आनन्द है उसको जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस अवस्थामें स्थित हुआ यह योगी भगवत्-स्वरूपसे नहीं चलायमान होता है।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
(गीता ६। २२)
परमेश्वरकी प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता है और भगवत्प्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित हुआ योगी बड़े भारी दु:खसे भी चलायमान नहीं होता है।
अत्यन्त सुख वह है, जिसकी सीमा नहीं है, जो इन्द्रियजन्य नहीं है, इन्द्रियोंसे अतीत है, बुद्धिग्राह्य है और जिसको जाननेके बाद वह व्यक्ति कभी विचलित नहीं हो सकता और इससे बढ़कर कोई सुख है, यह माँग समाप्त हो जाती है।
जैसे घड़ा जब जलसे पूर्ण हो जाता है तब जल भरनेकी गुंजाइश नहीं रहती, इसी प्रकार जब हृदय आनन्दसे भर जाय, और गुंजाइश नहीं रहे। वह सुख हम सबको मिल सकता है, इसमें मनुष्य मात्रका अधिकार है, पापी-से-पापी, मूर्ख-से-मूर्खका भी अधिकार है। जिसकी आयु आज ही समाप्त हो रही है, उसका भी अधिकार है। समय आपके हाथमें नहीं रहा, किन्तु अब भी आपको चेत हो गया तो गुंजाइश है। एक क्षणमें परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। जैसे गुफामें हजार वर्षसे अन्धकार है, उस पूरी गुफामें एक क्षणमें प्रकाश हो सकता है, अन्धकार नहीं कहेगा कि हम इतने दिनसे हैं, तुम एक क्षणमें कैसे प्रकाश करते हो। ऐसे ही कितने ही जोरका पापी हो, उसके लिये भी भगवान् के यहाँ गुंजाइश है। मूढ़के लिये भी गुंजाइश है। भगवान् गीतामें कहते हैं—
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय॥
(गीता ८। ५)
जो पुरुष अन्तकालमें मेरेको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
यदि मरनेके समय भगवान् की स्मृति हो गयी तो हमारा कल्याण हो गया। पापीके लिये भी भगवान् कहते हैं—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
(गीता ९। ३०)
मेरी भक्तिका प्रभाव सुनकर, यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य-भावसे मेरा भक्त हुआ मेरेको निरन्तर भजता है, वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है।
तुलसीदासजी कहते हैं—
जबहिं नाम हिरदे धरॺो भयो पापको नास।
मानो चिनगी अग्नि की परी पुरानी घास॥
यदि कोई कहे कि पापी हो तो क्या उसके उद्धारमें समय लगेगा? नहीं, उसके लिये भी भगवान् कहते हैं—
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(गीता ९। ३१)
वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परमशान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।
धर्मात्मा ही नहीं बल्कि सदा रहनेवाली परमशान्तिको प्राप्त होता है तथा उसका पतन नहीं होता। दुराचारी भी साधु बन जाता है। यदि साधु हो तो कहना ही क्या, दुराचारी भी कैसा? अतिशय दुराचारी। दुराचारी था, परन्तु अब साधु हो जाना चाहिये। वह जल्दी ही धर्मात्मा बन जायगा। हमें हिम्मत बाँधनी चाहिये, जब भगवान् की इतनी प्रतिज्ञा है तो हम ऐसे क्यों नहीं बन सकते। मूढ़के लिये भी भगवान् कहते हैं—
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥
(गीता १३। २४)
हे अर्जुन! उस परम पुरुष परमात्माको, कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म-बुद्धिसे ध्यानके द्वारा हृदयमें देखते हैं तथा अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा देखते हैं और दूसरे कितने ही निष्काम कर्मयोगके द्वारा देखते हैं, अर्थात् प्राप्त करते हैं।
अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
ते चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(गीता १३। २५)
परन्तु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्द बुद्धिवाले पुरुष हैं; वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए, दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही उपासना करते हैं, और उन पुरुषोंके कहनेके अनुसार ही श्रद्धासहित तत्पर हुए साधन करते हैं और वे सुननेके परायण हुए पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागरको नि:सन्देह तर जाते हैं।
जो सांख्ययोग, कर्मयोग और ध्यान भी नहीं जानता है उसके लिये भगवान् कहते हैं कि वह भी जाननेवाले पुरुषोंके द्वारा सुनकर उसके अनुसार उपासना करके तर जाता है।
पाया परमपद हाथसे जात गयी सो गयी अब राख रही को।
जो बात गयी सो गयी, जो बाकी है उसकी रक्षा करो। इसमें यावन्मात्र मनुष्यका अधिकार है, असंख्यकोटि जीव हैं, उनमें जो मनुष्यके लायक होता है उसे ही परमात्मा मनुष्य बनाते हैं। इस प्रकारका अधिकार पाकर भी हम परमात्माको प्राप्त नहीं होते, इसमें हेतु क्या है? अश्रद्धा।
अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥
(गीता ९। ३)
हे परंतप! इस तत्त्वज्ञानरूप धर्ममें श्रद्धारहित पुरुष मेरेको न प्राप्त होकर, मृत्युरूप संसारचक्रमें भ्रमण करते हैं।
भगवान् ने धर्मका क्या उपदेश दिया?
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥
(गीता ९। २)
यह ज्ञान सब विद्याओंका राजा तथा सब गोपनीयोंका भी राजा एवं अति पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला और धर्मयुक्त है, साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है।
जब ऐसी बात है तो भगवान् को प्राप्त क्यों नहीं कर लेते? श्रद्धाकी कमी है—भगवान् को न पाकर ही मृत्युरूप संसारसागरमें भटकते हैं।
मुझे न प्राप्त होकर भटकता है, यह बात भगवान् ने क्यों कही? जैसे राजाके पुत्रका जन्म-सिद्ध राज्यपर अधिकार है। परन्तु वह राजाकी आज्ञाके विरुद्ध चलेगा तो राज्य न देकर उसे जेल होगी। यहाँ राजा परमात्मा हैं, जैसे राजाके लड़केका राज्यपर जन्म-सिद्ध अधिकार है, इसी प्रकार हमारा भी परमात्माकी प्राप्तिमें जन्म-सिद्ध अधिकार है, वह परमात्माकी प्राप्ति हमें न हो तो हमारे लिये शोककी बात है।
भगवान् ने हमें जन्मभरमें अपनी प्राप्तिके काफी मौके दिये, फिर भी हमने सारे जन्ममें भगवान् की प्राप्ति नहीं की। अब अन्त-समयमें भी भगवान् की स्मृति हो जाय तो काम बन जाय।
यदि हमें भगवान् की प्राप्ति नहीं हुई तो बड़े दु:खकी बात है। मनुष्य शरीर मिला है तो हमें कोशिश करके परमात्माकी प्राप्ति कर लेनी चाहिये।
प्रश्न—यदि कोई प्राप्ति कर ले तो उसने क्या समयका सदुपयोग किया?
उत्तर—हाँ! उसने समयका थोड़ा सदुपयोग किया है; क्योंकि अपनी आत्माका कल्याण तो थोड़े समयमें ही हो सकता है। यदि यह बात समझमें आ जाय तो कटिबद्ध होकर अपने समयको बिताये। इस प्रकार करनेवाला अपना ही नहीं, अपितु सारे संसारका उद्धार कर सकता है। इस मनुष्य-शरीरमें ऐसी शक्ति है।
यदि आप कहें ऐसा अभी तक नहीं हुआ। ठीक है, पर ऐसा करनेके लिये मनाही तो नहीं है, हो तो सकता ही है। भगवान् ने ऐसी बात नहीं कही कि इससे बढ़कर आगे और नहीं हो सकता।
जितने महात्मा हुए उन्होंने हजारों, लाखोंका कल्याण किया, पर उनसे बढ़कर भी कोई मनुष्य हो सकता है। जबतक हमने यावन्मात्र जीवोंका कल्याण नहीं किया, तबतक क्या किया? अपना उद्देश्य यह बनाना चाहिये।
हमारी ऐसी योग्यता हो जाय कि हमारे दर्शन, स्पर्शसे ही लोगोंका कल्याण हो जाय। यह समयका थोड़ा सदुपयोग हुआ।
शंकरजीका भी ऐसा ही नियम है—जो काशीमें मरता है उसकी मुक्ति होती है, पर हम तो ऐसा करें कि कहीं भी कोई मरे, सबकी मुक्ति हो। असम्भव कुछ भी नहीं है। पशु भी असम्भवको सम्भव कर लेता है, फिर हमारे लिये क्या कठिन है। एक दृष्टान्त आता है—एक पक्षी था, उसने समुद्रके किनारे अण्डे दिये, समुद्र अपनी लहरोंसे बहाकर अण्डे ले गया। तब सभी पक्षियोंने मिलकर अपनी चोंचोंसे जल बाहर निकालकर समुद्रको खाली कर दिया और समुद्रसे अण्डे निकलवा लिये। हमारी बात तो ऐसी असम्भव भी नहीं है। यह तो सम्भव है। हमें यह ध्येय रखना चाहिये कि सबके साथ ही हमारा कल्याण हो, यानी सबका कल्याण होनेपर ही हमारा कल्याण हो।
इस प्रकारका ध्येय रखकर कार्य आरम्भ करना चाहिये। कसौटीसे कस लो। हीरा और काँचमें क्या भेद है? ऐरण (लोहेका एक औजार) के भीतर घुस जायगा तो हीरा है, फूट जायगा तो काँच है। सोना कितना ही तपाओ, जलनेका नहीं और हीरा फूटनेका नहीं। इसी प्रकार जो चीज नष्ट होती है, उसे छोड़ दो। अपना समय नित्य वस्तुकी प्राप्तिके लिये बिताना चाहिये। सोनेकी क्या पहचान है? सोनेको आगमें तपाओ, वह कम नहीं होता तो ठीक है। इसके लिये यह कसौटी है—
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥
(गीता २। १६)
हे अर्जुन! असत् वस्तुका तो अस्तित्त्व नहीं है और सत् का अभाव नहीं है, इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व ज्ञानी पुरुषोंद्वारा देखा गया है।
जो चीज स्थिर नहीं है वह मिथ्या है, जो सत्य वस्तु होती है वह घटती नहीं। इसलिये अपना समय उसी काममें बिताना चाहिये जो काम ठीक हो। एक क्षण भी मिथ्या काममें नहीं बिताना चाहिये। प्रमादमें तो बिताना ही नहीं चाहिये। भोगमें भी नहीं बिताना चाहिये। अपना समय परमार्थमें बिताना चाहिये।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....