सर्वदा भगवत्स्मरणका उपाय
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥
(गीता ९। २)
यह ज्ञान सब विद्याओंका राजा तथा सब गोपनीयोंका भी राजा एवं अति पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला और धर्मयुक्त है, साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है।
करनेमें भी सुगम है, फिर क्यों नहीं करते? श्रद्धा नहीं है। भगवान् कहते हैं—
अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥
(गीता ९। ३)
हे परंतप! इस धर्ममें जिसकी श्रद्धा नहीं है, वह मुझे न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसार-सागरमें भटकता है। जैसे समुद्रमें बूँदोंकी कितनी संख्या है कोई नहीं बता सकता। इसी प्रकार यह संसार मृत्युका सागर है। इसमें कितनी बार जन्मना-मरना होगा, इसकी संख्या बतायी नहीं जा सकती। जीव असंख्य वर्षोंसे घूमता हुआ आ रहा है, फिर जानेको तैयार है। जीवकी इस संसारचक्रमें समाप्ति है ही नहीं, सिर्फ परमात्माकी प्राप्तिसे ही समाप्ति है। भावीमें इतना भारी दु:ख है, इसपर विश्वास ही नहीं है। साधु, महात्मा रोते तो नहीं हैं, किन्तु रोनेकी तरह पश्चात्ताप करते हैं कि इनकी क्या दशा होगी? भगवान् भी कह रहे हैं परमगतिको न पाकर संसारमें चक्कर लगाओगे। क्या प्राप्तिकी सम्भावना थी? अप्राप्तका तो निषेध किया नहीं जाता। वास्तवमें मनुष्यका भगवत्-प्राप्तिमें जन्मसिद्ध अधिकार है। जिस प्रकार राज्यपर राजाके पुत्रका जन्मसिद्ध अधिकार है, इसी प्रकार मनुष्य-मात्रका परमात्माकी प्राप्तिपर जन्मसिद्ध अधिकार है। परन्तु यह मूर्ख उसे ठुकराता है। भगवान् हमारे मस्तकपर हाथ रखते हैं और हम उसे दूर करते हैं। जो लड़का नालायक हो जाता है, राजा न चाहते हुए भी उसे राज्यसे वंचित कर देता है।
भगवान् कहते हैं बिना श्रद्धाके यह दशा हो रही है। वह श्रद्धा, भगवान् के गुण-प्रभाव जाननेसे हो सकती है, अन्यथा बड़ी दुर्दशा है। जिस शरीरमें नौ द्वार हैं, इसमें प्राण ठहरे हुए हैं, यही आश्चर्य है। प्राण निकल जाना इसमें क्या आश्चर्य है? राजा युधिष्ठिरने यक्षके पूछनेपर बताया, दिन-प्रतिदिन लोग मर रहे हैं फिर भी लोग अपनी मृत्यु नहीं देखते, बने रहना चाहते हैं, यही आश्चर्य है।
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषा: स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्यमत: परम्॥
हमलोगोंको विचार करना चाहिये कि हर समय मृत्यु तैयार है। फिर भी हमलोग ऐश्वर्य और धन बढ़ा रहे हैं। यह नहीं सोचते कि आज यदि मृत्यु हो जाय तो इससे क्या सम्बन्ध रहेगा, सब मतलबके मित्र हैं।
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥
(रा०च०मा०, किष्किन्धा० १२। १)
शरीरको यदि खूब पाला-पोसा तो क्या हुआ? पाँच सेर वजन अधिक हो गया तो उठानेवालेको कष्ट ही होगा। जलकर खाक हो जायगा, इस शरीरकी कोई चीज काम नहीं आती।
यह हमारे अधिकारकी बात नहीं है कि हम न मरें, न वहाँ सिफारिश चलती है, न अपील चलती है। वारन्ट वहाँसे कट गया, सिपाहीको आकर केवल पकड़ना बाकी है। जैसे साँपके मुखमें पड़ा हुआ मेंढक मच्छर खानेकी इच्छा करता है। उसी प्रकार कालरूपी सर्पके मुँहमें पड़े हुए लोग नश्वर भोगोंको भोगनेमें लगे हुए हैं—
यथा व्यालगलस्थोऽपि भेको दंशानपेक्षते।
तथा कालाहिनाग्रस्तो लोको भोगानशाश्वतान्॥
(अध्यात्मरामायण २। ४। २१)
जैसे बिल्ली चूहेके ऊपर ताक रही है, इसी प्रकार काल ताक रहा है, चूहा तो बच सकता है, परन्तु हमारे बचनेकी आशा ही नहीं है। ऐसी परिस्थितिमें भी हम हाय-रुपया, हाय-रुपया करते हैं। इस रुपयेका करोगे क्या? तुम्हारे पास पाँच हजार रुपया है तो भी उतना ही अन्न खाते हो, पाँच करोड़ होगा तब भी उतना ही खाओगे, क्या तुम रुपयोंका उपभोग कर सकोगे? सब छोड़-छोड़कर जा रहे हैं, यही दशा हमारी होगी। इसलिये वह काम करना चाहिये जिससे हम सदाके लिये सुखी हो जायँ। वह चीज इस मनुष्य-शरीरमें ही प्राप्त हो सकती है। वह ऐसा आनन्द है, जो पूर्ण है। जिसका विनाश नहीं हो सकता। वह आनन्द इसी मनुष्य-शरीरमें मिल सकता है। वह मनुष्य शरीर हमें प्राप्त है, फिर विलम्ब क्यों? जिससे क्षणिक शान्ति मिलती है, जिसका मुख देखनेका धर्म नहीं, उसकी गुलामी करता है और जिसके दर्शनसे कल्याण हो जाय, उसके लिये एक मिनट भी नहीं लगाता। कारण क्या है? मूर्खता। दुनियामें जो शहद लोग काममें लेते हैं, किसका परिश्रम है? मक्खियोंका। मक्खियोंका तो केवल परिश्रम है उपभोग कोई और ही करते हैं। इसी प्रकार हम रुपया इकट्ठा करते हैं, हमें परिश्रम होता है, उपभोग दूसरे करेंगे। इसलिये हमें ऐसे आनन्दकी चेष्टा करनी चाहिये जो सदाके लिये हो।
असली आनन्द परमात्मा हैं। यह नित्य वस्तु है। सांसारिक आनन्द उस असली प्रतिबिम्बका चिलका मात्र है, उसे क्या पकड़ना। सांसारिक सुख किसी प्रकार रहनेका ही नहीं है। परमात्माका स्वरूप सूर्यके समान है, उसको पकड़ना चाहिये। इस मनुष्य-शरीरमें यह बड़ा भारी मौका है, मनुष्यसे बढ़कर कोई भी योनि नहीं है और कलियुगसे बढ़कर काल नहीं है। सतयुगमें दस हजार वर्ष तपस्या करनेसे जिस कार्यकी सिद्धि नहीं होती थी आज क्षणमें ही वह काम हो सकता है। यह ईश्वरकी कृपा है। सिद्धान्त विचारकर देखें तो अन्य सब धर्म अधूरे हैं, यह सनातन धर्म अनादि है, नित्य है। दूसरे धर्म कोई दो हजार वर्ष पुराने हैं, कोई चार हजार वर्षसे हैं। इस सनातन धर्ममें हमारा जन्म हुआ, फिर भी विलम्ब होना क्या उचित है? दो अक्षरका ज्ञान भी हमें है, समय-समयपर सत्संगकी चर्चा भी होती है, फिर भी अपना उद्धार नहीं हुआ तो रोना ही पड़ेगा। भगवान् की प्राप्ति नहीं होनेमें प्रारब्धका नाम लेना भी झूठा ही है, क्योंकि भगवत्प्राप्ति तो प्रयत्न-साध्य है, प्रयत्न भगवत्कृपा साध्य है और वह भगवत्कृपा हमें प्राप्त है। भगवान् की दया हमें यही बता रही है कि भगवान् की प्राप्ति होगी। भरतजी महाराज कह रहे हैं—
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ।
दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥
मोरे जियँ भरोस दृढ़ सोई।
मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई॥
(रा०च०मा०, उत्तर० १। ६-७)
भरतजी कहते हैं मेरे मनमें दृढ़ विश्वास है कि भगवान् मिलेंगे। वे अपने दासोंके दोषोंकी ओर देखते ही नहीं, वे बड़े दयालु हैं। पूर्वमें यह बात कही है—
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी।
नहिं निस्तार कलप सत कोरी॥
(रा०च०मा०, उत्तर० १। ५)
यदि मेरी करनीकी ओर ध्यान दें तो सौ कल्पमें भी उद्धार होनेका रास्ता नहीं है। हमारे भी पापोंकी ओर देखें तो क्या करोड़ों जन्मोंमें भी उद्धार हो सकता है? परन्तु भगवान् इस ओर देखते ही नहीं, सब भुला देते हैं। दूसरी बात है भरतजीको अच्छे सगुन होते हैं, दाहिनी भुजा फड़कती है। हमारा सगुन यह है कि उत्तम जाति, उत्तम देश, उत्तम धर्ममें अपना जन्म हुआ है, लक्षण अच्छे हैं, इसपर भी विश्वास क्यों नहीं करना चाहिये कि हमें भगवान् मिलेंगे। यदि कहो हमें तो खाने-पीनेकी चिन्ता है, यह मूर्खता है। कुत्ते भी जीते हैं, उनके न व्यवसाय है, न आढ़त, न दलालीका काम है फिर वे भी जीते ही हैं। हमलोग तो बोल भी सकते हैं, सब कुछ कर सकते हैं। फिर इस बातके लिये क्या चिन्ता? यह तो मामूली बात है, जीनेकी क्या चिन्ता है? यह बात सोचकर हमलोग परमात्माकी प्राप्तिके साधनमें लग जायँ तो थोड़े समयमें ही परमात्मा मिल सकते हैं। जिस दिन हम मरेंगे, यह सब यहीं धरा रह जायगा। अपने पिता, पितामह चले गये, लाखों रुपये अपने पास हैं, उनसे उनको क्या लाभ मिल सकता है। यही दशा हमारी होनेवाली है। ध्यान देना चाहिये अनन्त जीव हैं। कुत्ते, गधे, कीट, पतंग, सब चक्करमें चढ़े हुए हैं, इस चक्करसे निकलनेका उपाय इस घोर कलिकालमें परमात्माकी प्राप्ति है।
पतंगे दीपकमें जल रहे हैं, दूसरे पतंगे भी उसीमें आकर पड़ते हैं, ऐसी ही दशा मनुष्योंकी हो रही है। भोगोंमें फँसे हैं, नतीजा भी मिल रहा है। कितनी मूर्खताकी बात है, तुच्छ-गन्दी चीजोंमें मनुष्य-जीवन खर्चकर मृत्युका शिकार बन जाना, दूसरी ओर कितना आनन्द है। चाहे आगमें जला दो, चाहे बोटी-बोटी काट डालो, उसके आनन्दमें कभी कमी नहीं आती। न हन्यते हन्यमाने शरीरे (गीता २। २०)। आत्मा न तो जन्मता है, न मरता है। वह अज है, शाश्वत है अत: खूब तत्परतासे ईश्वरकी भक्ति करनी चाहिये। फिर भी तत्परतासे साधन क्यों नहीं होता? विश्वास नहीं है।
प्रश्न—विश्वास कैसे हो?
उत्तर—साधन करें, प्रत्यक्ष फल हो तो स्वत: ही विश्वास हो जाता है। साधन भी सुगम है। जप करें तो क्या कोई परिश्रम होता है?
हर समय मनुष्य भगवान् को याद रख सकता है। भगवान् में प्रीति नहीं है। प्रीति क्यों नहीं है? विश्वास नहीं है, विश्वास करना चाहिये। किसान विश्वास करके ही तो अनाज मिट्टीमें मिला देते हैं। इसी प्रकार हमें हमारे इस सुखको ठुकरा देना चाहिये और असली सुखके लिये प्रयत्न करना चाहिये। संसारके भोग पदार्थ तो दु:खरूप ही हैं।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....