गीता गंगा
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सुननेवाले, सुनानेवाले दोनोंका कल्याण

प्रवचन—दिनांक ३१-५-१९४३, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम

मनुष्यको जप-ध्यान करते हुए मरना चाहिये। यह मरना काशीमें मरनेसे भी बढ़कर है। भगवान् कहते हैं—

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)

जो पुरुष अन्तकालमें मेरेको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

प्रभो! मैं साक्षात् दर्शनका पात्र नहीं हूँ, हे प्रभो! अन्तकालमें अपनी स्मृति दें। सारे जन्मके किये हुए शुभ कर्मोंके बदलेमें यह सौदा होता हो तो कर लो। भगवान् से कुछ नहीं माँगना चाहिये, पर माँगो तो यह माँग लो। बालीकी बात आती है—

जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥

‘अब तो प्रभु यही कृपा करें कि जिस-जिस योनिमें अपने कर्मोंके अनुसार जन्म लूँ, उस-उस योनिमें आपमें प्रेम हो और आपके चरणोंमें अनुराग हो।’ बालीमें कितना स्वार्थ-त्याग है, इसलिये भगवान् ने बालीको परमधाम भेज दिया।

अन्त-समयमें मरनेवाले भाई-बहनको जाकर भगवन्नाम सुनावे। उस नाम सुननेके कारण मरनेवालेके प्राण भगवान् को याद करते हुए निकलें तो उसका बेड़ा पार है, सुनानेवाले भाईका काम हो गया। अन्तकालकी यह गति काशीमें मरनेसे भी बढ़कर है। सप्तपुरियोंमें (अयोध्या, मथुरा, मायापुरी [कनखलसे लक्ष्मण झूलातक] काशी, काँची, उज्जैन, द्वारकापुरी) मृत्युसे भी बढ़कर है। काशीमें जो पापी मरता है उसे पापका दण्ड भुगताकर मुक्ति दी जाती है, वहाँ छत्तीस हजार वर्षतककी पाप भुगतनेकी अवधि है। पर जो भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्यको याद करता हुआ जाता है, वह तत्काल ही मुक्त हो जाता है। उसकी सद्योमुक्ति हो जाती है। चाहे वह काशीमें न मरकर किसी गर्हित स्थानमें मरे। यह कोई रियायतकी बात नहीं है, यह भगवान् का सामान्य कानून है—

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥
(गीता ८। ६)

यह मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावको स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है। परन्तु सदा जिस भावका चिन्तन करता है प्राय: अन्तकालमें भी उसीका स्मरण होता है।

कुत्तेको याद करता हुआ जाता है तो कुत्ता बनता है। गधेको याद करता है तो गधा बनता है। ऐसे ही जो भगवान् को याद करता हुआ जाता है वह भगवान् को प्राप्त होता है।

ऐलोपैथी औषधियोंमें प्राय: अपवित्र वस्तुएँ होती हैं, जिससे तामसी वृत्ति हो जाती है। मरते समय तामसी वृत्तिमें रहनेवाला व्यक्ति वृक्ष या पहाड़ बनता है। ऐलोपैथी औषधि देनेकी अपेक्षा देशी, शुद्ध एवं पवित्र औषधि देनी चाहिये। जीना होगा तो वैद्यकी दवासे ही जी जायगा। मरणासन्न व्यक्तिको भगवन्नामका कीर्तन सुनाना चाहिये, जिससे उसकी आत्माका कल्याण हो।

भीष्मजी शर-शैय्यापर पड़े हैं, जल माँगते हैं, अर्जुनने बाण मारकर गंगाजल प्रकट कर दिया। भीष्मजी गंगापुत्र थे, उनके योग्य वही जल था। अन्त-समयमें गंगाजल पिलानेसे बुद्धि शुद्ध हो जाती है, अन्त:करण पवित्र हो जाता है। उसमें भगवान् का भाव हो जाता है।

वाणीसे भगवन्नाम उच्चारण करें, वाणी थक जाय तो श्वाससे जप करें, मनसे भगवान् का ध्यान करें। हाथोंसे, मस्तकसे भगवान् को नमस्कार करें। कल्याण तो केवल भगवान् के स्मरणसे ही हो जाता है।

भजन, ध्यान, नाम-जप किसी भी एक चीजसे भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं। गीतामें भगवान् ने कहा है—यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि (गीता १०। २५) और यज्ञ सब साधन हैं, जपयज्ञ मेरा ही स्वरूप है।

हमारी मृत्यु होनेवाली हो तो भजन, ध्यान और जप सबकी चेष्टा करें। दूसरेकी मृत्युका समय हो और हमलोगोंको उसे भगवन्नाम सुनानेका मौका मिल जाय तो बहुत ही आनन्दकी बात है। दूसरेको भोजन कराना एवं जरूरत पड़नेपर स्वयं त्याग करना यह बहुत उच्चकोटिका भाव है। ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२। १२) त्यागसे तत्काल ही परम-शान्ति होती है। जितना त्याग है उतनी ही ऊँची स्थिति है।

यदि आकाशवाणी हो कि किस एकका कल्याण किया जाय? मुझसे पूछेंगे तो मैं तो यही कहूँगा कि प्रभु! मुझको छोड़कर चाहे जिस एकका कर दें। यदि सब लोग यही बात कहें तो सबका कल्याण हो जायगा। यदि हम सब लोग यही कहें कि बस मेरा कर दें, तो भगवान् कहेंगे कि निर्णय करके बतलाओ कि किस एकका करें। निर्णय नहीं करेंगे तो भगवान् चले जायँगे।

जो अपने कल्याणकी बात छोड़कर दूसरेका कल्याण चाहता है, उसे मुक्तिका सदाव्रत बाँटनेका मौका मिलता है। मुक्त होना तो आराम चाहना है। हमें तो लोगोंकी सेवा माँगनी चाहिये। सदाव्रत बाँटते ही रहें, स्वयं चाहे उपवास ही करें। इस उपवासमें बड़ी शान्ति होती है, यह अलौकिक आनन्द है।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नायण नारायण नारायण....

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