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यमराजके यहाँ चर्चा ही नहीं

प्रवचन—दिनांक १४-४-१९४१, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम

मनमें जोश रखना चाहिये। जब परमेश्वरकी इतनी कृपा है, तो उनकी कृपासे उनका ध्यान लगना कठिन नहीं है। सबसे बढ़कर उनकी दया यह है कि हमें मनुष्य-शरीर दिया, भारत भूमिमें जन्म और यह भागीरथीका तट प्राप्त हुआ। भारतमें जन्म होकर भी सनातन धर्ममें जन्म हुआ—जो सबका आदि माना जाता है। फिर यह उत्तम-से-उत्तम स्थान, साथ-साथ कलियुग, जिसमें थोड़े ही कालमें साधन करनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है, फिर भगवान् की चर्चा यह सारी बातें परमात्माकी कृपासे ही प्राप्त होती हैं।

इस दृश्यको घर जाकर भी याद कर लें, तो स्वाभाविक ही वैराग्यकी लहरें उठने लगें। यहाँ तो स्वाभाविक ही सात्त्विकता और वैराग्यका भाव होता है। यह गंगा हैं, इनके दर्शनसे अन्त:करण शुद्ध और सात्त्विक हो जाता है, फिर स्नान और पानकी तो बात ही क्या है। शास्त्रोंमें गंगाजीके लिये यहाँतक बताया है कि गंगाजीके दर्शनसे मनुष्य पवित्र हो जाता है और अन्तकालमें उसे भगवान् की प्राप्ति हो जाती है।

श्रीशंकराचार्यजी कहते हैं—

भगवद्गीता किंचिदधीता
गंगाजललवकणिका पीता।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा
तस्य यम: किं कुरुते चर्चा॥

जिसने भगवद‍्गीताको कुछ भी पढ़ा है, गंगाजलकी जिसने एक बूँद भी पी है, एक बार भी जिसने भगवान् श्रीकृष्णका अर्चन किया है, उसकी यमराज क्या चर्चा कर सकता है?

जो भगवद‍्गीताका किंचित्मात्र भी अध्ययन करता है और गंगाजीके जलका लवमात्र भी पान करता है—उसकी यमलोकमें चर्चा भी नहीं होती, उसकी आत्मा पवित्र हो जाती है। हमारे यहाँ परिपाटी है कि जब मनुष्य मरता है उस समय उसे गीताजी सुनायी जाती है, तुलसीजीका और गंगाजलका पान कराया जाता है। गंगाके तटपर हमलोग उपस्थित हुए हैं—यह भागीरथीकी कृपा ही है और भगवान् की कृपा तो है ही। भगवान् की जिसपर कृपा होती है, उसपर सबकी कृपा होती है। हमलोगोंको वैराग्यपूर्वक ध्यान करना चाहिये। जब आनन्दका घोष होता है, उस समय अलौकिक शान्ति प्रतीत होती है। यह प्रभुकी अलौकिक कृपा है। ध्यानके पूर्वमें वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं। थोड़ा भी ध्यान लगता है तो शान्तिकी बाढ़ आ जाती है, परमात्माका जो चिन्मय स्वरूप है, उसका प्रादुर्भाव हो जाता है। उस समय अलौकिक शान्ति मिलती है। इसके पूर्व आपको थोड़ा गीताजीका सिद्धान्त बताया जाता है। वास्तवमें तो गीताजीका सिद्धान्त केवल भगवान् ही जानते हैं। यह ज्ञान-भक्तिका सागर है, अथाह है, इसमें जो डुबकी लगाता है, वह गीतामय हो जाता है। गीतारूपी गंगा आत्माके कल्याणके लिये है, इस गीतारूपी गंगाके एक श्लोकको धारण कर लें तो कल्याण हो सकता है। परमात्माकी प्राप्तिके लिये गीताका एक श्लोक पर्याप्त है। गीताको हम गंगासे भी बढ़कर कह सकते हैं। गंगामें स्नान करनेवाला स्वयं मुक्त होता है, किन्तु गीतारूपी गंगामें स्नान करनेवाला दूसरोंको भी मुक्त कर सकता है।

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