Hindu text bookगीता गंगा
होम > परमार्थ की मन्दाकिनी > आनन्द एकमात्र परमात्मामें ही है

आनन्द एकमात्र परमात्मामें ही है

याद रखो—तुम जिन प्राणी-पदार्थोंमें सुख-शान्ति खोज रहे हो, उनमें सुख-शान्ति है ही नहीं। वे स्वयं अभावग्रस्त तथा अपूर्ण हैं। उनकी अप्राप्तिमें तो तुम सुख-शान्तिसे वंचित हो ही, उनकी जितनी ही तुम्हें प्राप्ति होगी उतनी ही तुम्हारी अभावग्रस्तता तथा अपूर्णता बढ़ेगी और फलत: उतनी ही मात्रामें सुख-शान्ति भी तुम्हारे जीवनसे दूर हट जायँगी। सुख-शान्ति तो वहीं हैं, जहाँ पूर्णता तथा नित्यता है तथा जहाँ अभावका सर्वथा अभाव है। ऐसी वस्तु एकमात्र भगवान् हैं। उन भगवान‍्को पानेका प्रयत्न करो। उनके बिना संसारमें अभाव-ही-अभाव है। उनके मिलते ही सारे अभाव नष्ट हो जायँगे और नित्य सत्य अनन्त सुख-शान्तिकी तुम्हें प्राप्ति हो जायगी।

याद रखो—उन पूर्ण परमात्माकी प्राप्ति ही तुम्हारे जीवनका असली लक्ष्य है। उसीके लिये तुम्हें मानव-जीवन दिया गया है, जिसमें विवेकके द्वारा तुम अपूर्ण अभावग्रस्त प्राणिपदार्थोंका मोह त्याग करके परमात्माकी प्राप्तिके साधनमें लग जाओ और परमात्माको प्राप्त करके जीवनको सफल बना लो। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम मानव-जीवनके लक्ष्यसे च्युत होकर ऐसे-ऐसे कर्मोंका आचरण करोगे, जिनका फल मानव-जीवनकी असफलता तो होगा ही, तुम्हारा भविष्य बिगड़ेगा। तुम आसुरी योनियोंको तथा अन्धतम नरकोंको प्राप्त करके दु:खी हो जाओगे।

याद रखो—मानव-शरीरके श्वास पहलेसे निर्धारित हैं, श्वास पूरे हुए कि शरीर छूटा और श्वास अनवरत चल ही रहे हैं। अतएव असली लक्ष्यकी प्राप्तिमें शीघ्र लग जाओ। प्रमाद-आलस्य मत करो। न तो न करनेयोग्य व्यर्थ अनर्थके कार्योंमें लगो और न लक्ष्यके साधनको कलपर छोड़ो। अभी इसी क्षण लग जाओ। पूरे मनसे लक्ष्य-प्राप्तिकी साधनामें। पता नहीं किस क्षण मृत्यु आ जाय। उसके पहले-पहले ही अपने लक्ष्यपर पहुँच जाना है।

याद रखो—यहाँकी कोई वस्तु, कोई भी प्राणी, कोई भी परिस्थिति न तो तुम्हारी है, न तुम्हारा उनसे कोई आत्मिक सम्बन्ध है और न उनके मिलने-बिछुड़ने या आने-जानेमें तुम्हारा यथार्थमें कोई लाभ-हानि ही है। व्यर्थ ही तुम ममताका सम्बन्ध जोड़कर दु:ख तथा बन्धनमें पड़े हुए हो तथा राग-द्वेष करके नये-नये पाप करते रहते हो। तुम्हारे अपने तो एकमात्र परमात्मा ही हैं, जो नित्य तुम्हारे साथ हैं। उन परमात्मामें पूर्ण ममता करो। जगत‍्के प्राणिपदार्थोंमें न ममता करो, न राग करो, न उन्हें पराया समझकर द्वेष करो। उनकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहो तथा सब समय सभी स्थितियोंमें समभावसे उन सबमें परमात्माको देखकर परमात्माके भावमें निमग्न रहो।

याद रखो—अखण्ड दिव्य नित्य आत्यन्तिक आनन्द एकमात्र परमात्मामें ही है, वह उनका स्वरूप ही है। जब तुम्हें सारे जगत‍्में सर्वत्र सदा परमात्मा दिखायी देंगे तो जगत् भी सर्वथा-सर्वदा तुम्हारे लिये आनन्दस्वरूप हो जायगा और तुम भी आनन्द-स्वरूप हो जाओगे। पर जबतक जगत‍्में परमात्माको नहीं देख पाओगे, तबतक तो जगत् ‘दु:खालय’ और ‘दु:खयोनि’ ही रहेगा।

अगला लेख  > अपने-आपको उठाते रहो