अपने आत्मस्वरूपको सदा स्मरण रखें
याद रखो—जैसे एक ही शरीरके भिन्न-भिन्न अंगोंके भिन्न-भिन्न नाम और काम होनेपर भी एक ही चेतन आत्मा उन सबमें सब समय सर्वथा व्याप्त है, सब उसीसे अनुप्राणित, जीवित और क्रियाशील हैं, सबके नाम-रूप-क्रिया भिन्न होनेपर भी सब अंग-अवयव परस्पर एक-दूसरेकी सहज सेवा-सहायतामें तथा उनके सुख-हित-सम्पादनमें संलग्न हैं, वैसे ही एक ही विराट् आत्मा—ब्रह्म या परमात्मा इन विभिन्न नाम-रूप तथा क्रियावाले असंख्य ब्रह्माण्डोंमें व्याप्त है और शरीरके अंगोंकी भाँति ही विभिन्न ब्रह्माण्डोंके मानव-मात्रका, जिसको भगवान्ने विवेक-ज्ञान दे रखा है—यह कर्तव्य है कि वह भिन्न-भिन्न कर्म करता हुआ भी सर्वात्मभावसे सबके सुख-हित-सम्पादनमें, सबकी सहज सेवा-सहायतामें लगा रहे। यही तत्त्वज्ञानका साधन है और भारतके ऋषियोंकी यही अनुभूति है।
याद रखो—अज्ञानवश जीवमें ‘अहं’ (‘मैं’ पन)-की उत्पत्ति होती है। वास्तवमें यह ‘अहं’ उसे मिला है—संसारके व्यवहार-निर्वाहके लिये, वैसे ही जैसे नाटकके प्रत्येक पात्रको ‘अहं’ (उसका नाम, रूप तथा काम) नाटककी सफलताके लिये उसे दिया जाता है; परंतु वह उस ‘अहं’ को सत्य मानकर उसमें ममता-आसक्ति तथा उससे परके प्रति उपेक्षा, द्वेष आदि कर बैठता है और उसी क्षुद्र ‘अहं’ के कल्पित मंगलके लिये विविध कामनाओंके वश होकर विवेकभ्रष्ट हो जाता है एवं अपने मंगलके नामपर नित्य अभाव, नित्य अशान्ति, नित्य दु:खका अनुभव करता हुआ नित्य नये-नये पापोंका आचरण करके अपना भविष्य बिगाड़ता रहता है। यह ‘अहं’ जितना-जितना छोटे दायरेमें आता है, उतना-उतना ही अधिक दूषित होता है—जैसे छोटे-से गड्ढेमें इकट्ठा हुआ शुद्ध जल दूषित हो जाता है।
याद रखो—भारतका अनुभूत सत्य—तत्त्वज्ञान बतलाता है कि केवल मनुष्य ही नहीं, जड-चेतन जीवमात्रके रूपमें एक परमात्मा ही अभिव्यक्त हो रहे हैं। इस तत्त्व-ज्ञानको सदा सामने रखकर ही व्यवहार करना चाहिये; पर सीमित गंदा ‘अहं’ ऐसा करने नहीं देता। जब हिंदुस्तान तथा पाकिस्तान एक देश था, तब हिंदू-मुसलमान-पारसी—सभी देशकी स्वतन्त्रताके लिये एक सूत्रमें बँधकर स्वतन्त्रताकी साधना करते थे; अलग-अलग धर्म होते हुए भी सभी ‘भारतीय’ थे। पाकिस्तान बना कि दो परस्परविरोधी राष्ट्र बन गये। सिख और हिंदूमें तो दोकी कभी कल्पना ही नहीं थी। क्षुद्र ‘अहं’ ने आज उन्हें दो बनाकर आपसमें वैमनस्य उत्पन्न करना आरम्भ कर दिया। सारा भारत एक देश था, आज क्षुद्र ‘अहं’ के कारण भाषा तथा भूमिकी सीमाके नामपर सब प्रान्त एक-दूसरेको पृथक् मानकर अपने सीमित स्वार्थके लिये आपसमें लड़ने लगे। पंजाब-हरियाणा दोनों ही पंजाब थे, कोई लड़ाई नहीं। अब क्षुद्र ‘ अहं’ के कारण हुई दुर्दशा देखिये—परस्पर रक्तपात, अनशन, शरीरदाह, आगजनी, विध्वंस हो रहा है। यह सारी हानि अपनी ही हो रही है, पर क्षुद्र ‘अहं’ इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाने देता।*
* ये पंक्तियाँ मार्च १९७० में तत्कालीन परिस्थितियोंको दृष्टिमें रखते हुए लिखी गयी थीं।
याद रखो—कुछ समय पहले भारतमें बहुत थोड़े राजनीतिक दल थे; जो थे, उनमें कम-से-कम अपने दलमें तो मतैक्य तथा प्रेम था; पर आज कांग्रेसी, समाजवादी, कम्युनिस्ट तथा अन्यान्य दलोंमें प्रत्येक दलमें परस्परविरोधी अनेक भेद हो गये हैं और देखिये क्षुद्र ‘अहं’ का चमत्कार कि वे एक उद्देश्यवाले होकर भी परस्परमें बुरी तरहसे नीचे स्तरका वाग्युद्ध और शारीरिक युद्ध करते हैं एवं एक-दूसरेको गिरानेमें लगे हुए हैं; बात-बातपर दल और मत बदलनेमें भी नहीं सकुचाते। धर्म, देश और जातिके लिये सर्वत्यागकी शिक्षा प्राप्त किये हुए, अपने व्यक्तिगत जीवनसे लोगोंको त्याग, सदाचार तथा शिष्टाचारकी शिक्षा देनेवाले लोकनायकोंकी जब क्षुद्र ‘अहं’ के कारण इस प्रकार दुर्गति हो रही है, तब उनको आदर्श मानकर उनका अनुकरण करनेवाले जनसमूहकी क्या गति होगी? यह बहुत ही विचारणीय प्रश्न है।
याद रखो—इस समय क्षुद्र सीमित ‘अहं’ का तूफान आया हुआ है। प्राय: सभी उसमें फँसे हैं। अतएव सबका सुधार तो अभी कठिन है। अभी तो मानव-जगत् पतनकी ही ओर जा रहा है। इस स्थितिमें जो लोग मानव-जीवनके असली उद्देश्यको समझकर अपना जीवन सफल करना चाहते हैं, उनका व्यक्तिगत रूपसे यह कर्तव्य है कि वे सबसे पहले अपनेको ‘आत्मा’ समझें और सबको अपने उसी आत्माका अभिन्न-स्वरूप मानें। यह स्मरण रहे कि हम पहले एक आत्मा हैं, पीछे अमुक देशवासी हैं, अमुक धर्मसम्प्रदायके हैं, अमुक जातिके हैं, अमुक प्रान्तके हैं, अमुक भाषा-भाषी हैं, अमुक परिवारके हैं और अमुक व्यक्ति हैं। जिस किसी विचार या क्रियासे अपने आत्मस्वरूपपर आघात पहुँचता हो, उससे सावधानीके साथ बचे रहें। यही परम कर्तव्य है।