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सम्पूर्ण आचरण भगवत्प्रीत्यर्थ हों

याद रखो—मनुष्य-जन्मका एकमात्र उद्देश्य है—उस परमार्थ गतिपर पहुँच जाना, जिसे भगवत्प्राप्ति, भगवत्प्रेम-प्राप्ति, मोक्षलाभ, मुक्ति, आत्मसाक्षात्कार आदि भिन्न-भिन्न अनेक नामोंसे निर्दिष्ट किया जाता है। इसीलिये जीवको भगवत्कृपा तथा उसके पुण्यबलसे मनुष्य-शरीर मिलता है। मनुष्य कर्मयोनि है, इसमें कर्म करनेकी स्वतन्त्रता है। कौन-से कर्म कर्तव्य हैं और कौन-से त्याज्य हैं, यह बतलानेके लिये विधि-निषेधात्मक शास्त्र मनुष्यको दिये गये हैं।

याद रखो—कर्मके प्रधानतया तीन परिणाम होते हैं—(१) नरक, नारकी योनि, आसुरी शरीर आदिकी प्राप्ति—मनुष्य-शरीर मिलनेपर भी कर्मानुसार न्यूनाधिक रूपसे अंगहीनता, विकलांगता, दासत्व आदिकी प्राप्ति तथा रोग, दरिद्रता, अभाव, अपमान, भय, विषाद, भाँति-भाँतिके कष्ट और विपत्तियोंसे घिरे रहना; (२) स्वर्गादि लोक, दिव्ययोनि, उत्तम शरीर आदिकी प्राप्ति और मानव-शरीरमें कर्मानुसार न्यूनाधिकरूपसे सर्वांग-पूर्णताकी उपलब्धि तथा स्वस्थता, समृद्धि, धनैश्वर्य, अधिकार, सम्मान, निर्भयता, प्रसन्नता, भाँति-भाँतिके भोग-सुख-सम्पत्तियोंका मिलते रहना, (३) जीवन्मुक्ति, भगवत्प्राप्ति, भगवद्धामकी प्राप्ति, मोक्ष-मुक्ति, निर्वाण आदि विभिन्न नामोंसे निर्दिष्ट परम गति-लाभ।

याद रखो—जिन कर्मोंके परिणाम नरक-नारकी योनि आदि हैं, वे ही निषिद्ध या पापकर्म हैं। अज्ञान, ईश्वर तथा परलोकमें अविश्वास, धर्ममें अनास्था, मिथ्या ममता-आसक्ति-कामना, द्रोह-दम्भ-द्वेष, इन्द्रियोंके दासत्व, भोगोंमें सौभाग्य-सुखकी आस्था, धर्म, राष्ट्र, सम्प्रदाय, प्रान्त, जाति, वर्ण, भाषा, भूमिकी सीमा, दल, दलान्तर्गत दल आदिके मिथ्याभिमानवश सीमित नीच स्वार्थके कारण मनुष्य भविष्यके परिणामको भूलकर पापकर्ममें प्रवृत्त होता है और बार-बार प्रवृत्त होनेपर उसीमें गौरव-बोध करने लगता है। वह क्रमश: पूरा नास्तिक होकर विवेकहीन पशु तथा घोर विषयासक्त असुर-राक्षस-पिशाचसे बढ़कर नीच स्वभाववाला बन जाता है और मानवयोनिमें प्राप्त कर्माधिकार, साधन-सामग्री आदिका पूर्ण दुरुपयोग कर अपने भविष्यको दीर्घकालके लिये नष्ट-भ्रष्ट और दु:ख-दावानलसे जलनेवाला बना लेता है। उसकी मिथ्या मान्यता या उसी विचारके बहुसंख्यक लोगोंके बहुमतसे निश्चित की हुई मिथ्या मान्यतासे सत्य सिद्धान्तपर—कर्मानुसार परलोक-पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरकादि लोकों, योनियों एवं परिस्थितियोंकी प्राप्तिपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कर्मानुसार बाध्य होकर उसे कर्मफलरूपमें उन सबका भोग करना ही पड़ता है। वह किसी प्रकार भी उनसे छूट नहीं सकता।

याद रखो—जैसे पाप—निषिद्ध अपवित्र कर्मका परिणाम नरकादि-फल-भोग होता है, वैसे ही पुण्य—वैध पवित्र कर्मोंका परिणाम स्वर्गादि-सुखभोग होता है और यही पुण्यकर्म यदि ममता, कामना, आसक्तिका त्याग करके लोकहितकी दृष्टिसे केवल भगवत्प्रीत्यर्थ, भगवान‍्की पूजाके लिये किये जायँ तो मानव-जीवनके परम और चरम उद्देश्यकी सिद्धिरूप भगवत्प्राप्ति हो जाती है। इसलिये पाप-कर्मका तो सर्वथा ही त्याग करें, पुण्यकर्म भी सकामभावसे न करें; क्योंकि वे भी बन्धनकारक ही हैं; निष्कामभावसे भगवत्सेवा या भगवत्प्रीतिके लिये पुण्य-पवित्र कर्मोंका आचरण करें।

याद रखो—मानव-जीवन बहुत दुर्लभ है और है क्षणभंगुर; पता नहीं, कब समाप्त हो जाय। इसलिये जरा भी समय व्यर्थ न खोकर इसी कामको सबसे पहला तथा सबसे प्रधान समझकर पूर्णरूपसे इसीमें लग जायँ। मन-बुद्धि-शरीरसे जितनी भी आभ्यन्तरिक और बाह्य क्रियाएँ हों—सब केवल और केवल भगवत्प्रीत्यर्थ हों; मनकी सारी ममता, सारी आसक्ति केवल श्रीभगवान‍्में हो और उन्हींके चरणकमलोंकी निरन्तर सन्निधि और स्मृति रहे—यही एकमात्र कामना हो।

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