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अपने ‘स्व’ को विस्तृत करें

याद रखो—संसारमें जितने भी जड-चेतन जीव हैं—सभीमें भगवान् भरे हैं, सभी भगवान‍्के ही रूप हैं या सभी आत्मरूप हैं—यह समझकर जिन प्राणियोंसे भी सम्पर्क प्राप्त हो, उनके रूप तथा वेशके अनुसार मन, वाणी, शरीरसे दान, सम्मान देकर उनका पूजन या उन्हें सुख-दान करना चाहिये। किसी भी कार्यकी बात सोचते तथा किसी भी कार्यको करते समय यह पूरा ध्यान रखना चाहिये कि इससे किसी भी प्राणीका किसी प्रकारका कोई अहित तो नहीं होगा और केवल मेरा ही नहीं, दूसरोंका भी इससे हित होगा या नहीं।

याद रखो—‘स्व’ जितना ही सीमित होता है, उतना ही ‘स्वार्थ’ परिणाममें हानिकारक, अशान्तिदायक, दु:खप्रद और गंदा होता है। ‘स्व’ जितना ही बृहद्—विशाल होता है, उतना ही ‘स्वार्थ’ भी पवित्र परिणाममें लाभकारक, शान्तिदायक तथा सुखप्रद होता है। जो केवल अपने व्यक्तिगत अथवा कुटुम्बतकके लाभके लिये ही सोचा करता है—इसीको स्वार्थ समझता है, वह व्यक्तिगत लाभके लिये चराचर जीवों तथा विश्वमानवोंकी तो कभी बात सोचता ही नहीं, देशको भी भूल जाता है। उसकी ईश्वरभक्ति, देशभक्ति, जनसेवा—सीमित स्वार्थके निम्नस्तरमें उतरकर ईश्वरद्रोह और देशद्रोह तथा जनसंतापतकमें परिणत हो जाती है। ऐसा ‘ईश्वरभक्त’, ‘देशभक्त’ तथा ‘सेवक’ कहलानेवाला वास्तवमें साधारण मनुष्यकी अपेक्षा भी बहुत अधिक खतरनाक होता है—समाजके लिये, देशके लिये, विश्वके लिये; क्योंकि वह अपने नीच स्वार्थभरे आचरणसे ईश्वर, देश तथा सेवाके पवित्र नामको बदनाम करता है, उनके स्वरूपको लोकदृष्टिमें गिराता है और आदर्शको नष्ट करता है।

याद रखो—सेवक, देशभक्त और ईश्वरभक्त पदका अधिकारी वही होता है, जिसका ‘स्व’ छोटी सीमासे निकलकर उत्तरोत्तर बड़ी-से-बड़ी सीमामें पहुँचता हुआ अन्तमें असीममें जा मिलता है। जिसका ‘स्व’ सर्वभूतमय है, वही सबका सच्चा सेवक बन सकता है, जिसका ‘स्व’ देशके ‘स्व’ में मिलकर ‘देशात्मबोध’ की अनुभूति करा देता है, वही ‘देशभक्त’ होता है और जिसका ‘स्व’ असीम अनन्त सर्वात्मा भगवान‍्के साथ एकात्मताको प्राप्त-कर सर्वात्मरूप हो जाता है, जो प्रत्येक चराचर प्राणीमें सदा-सर्वदा भगवान‍्के ही मंगलमय दर्शन करता है, वही ईश्वरभक्त है। ऐसे लोगोंके जीवनमें उत्तरोत्तर ‘त्याग’ की वृद्धि होकर वह सदा असीमकी ओर अग्रसर होता रहता है। जितना-जितना त्याग बढ़ता है, उतना-उतना ‘स्व’ का विस्तार तथा ‘स्वार्थ’ पवित्र होता है।

याद रखो—जो इन्द्रिय-भोगासक्त है, जो नाम-रूपके मिथ्या सुखका आकांक्षी है, जो प्रत्येक कार्यका भौतिक भोगफल चाहता है, वह कभी यथार्थ त्याग नहीं कर सकता। उसमें कहीं त्याग दिखायी देगा भी तो वह वस्तुत: भोगके साधनरूपमें होगा; विशुद्ध त्यागका उदय उसमें नहीं होगा और त्यागके बिना कभी न सच्ची सेवा हो सकती है, न भक्ति और न प्रेम ही।

याद रखो—निज भोगसुखके लिये जो विचार तथा कर्म होते हैं, उनमें पर-हित तथा पर-सुखका खयाल नहीं रहता, वरं अवहेलनासे और नीच स्वार्थवश तमसाच्छन्न विपरीत बुद्धि हो जानेके कारण आगे चलकर दूसरोंके दु:ख तथा अहितकी चेष्टा तथा प्रयत्न भी होने लगते हैं और यह निश्चित है कि जिस कार्यसे दूसरोंका परिणाममें असुख और अहित होता है, उससे हमारा परिणाममें कभी हित हो ही नहीं सकता। अतएव परिणाममें अपना सुख तथा हित चाहनेवाले बुद्धिमान् पुरुषका यह कर्तव्य होता है कि वह अपने ‘स्व’ को सीमित न रखकर विस्तृत करे और ऐसे ही विचार तथा कर्म करे, जिनसे परिणाममें विश्वके प्राणिमात्रको सुख तथा उनका हित-साधन हो।

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