गीता गंगा
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मान-अपमानमें सम रहें

याद रखो—मान-अपमान ‘रूप’ का या ‘शरीर’ का होता है और स्तुति-निन्दा ‘नाम’ की होती है; और ये रूप तथा नाम दोनों ही तुम्हारे स्वरूप नहीं हैं। देहका निर्माण माताके उदरमें गर्भकालमें होता है और नाम जन्मके बाद रखा जाता है। नाम बदले भी जाते हैं। अतएव ये रूप और नाम आत्माके नहीं हैं। तुम आत्मा हो; इस देहके निर्माणके पहले भी आत्मारूपमें तुम थे, देहावसानके बाद भी रहोगे। आत्माका मान-अपमान और स्तुति-निन्दा कोई कर नहीं सकता। अतएव मान-अपमान तथा स्तुति-निन्दासे तुम न हर्षित होओ, न उद्विग्न। दोनोंको समान समझकर उन्हें ग्रहण मत करो।

याद रखो—सत्कार-मान और बड़ाई-स्तुति जितने प्रिय लगते हैं, उतने ही असत्कार-अपमान और निन्दा-गाली अप्रिय लगते हैं और उसीके अनुसार राग-द्वेष होता है। राग-द्वेषका परिणाम है—आध्यात्मिक दैवी सम्पदाका नाश और भौतिक आसुरी सम्पदाका विकास। जहाँ आसुरी सम्पदाका सृजन-संरक्षण-संवर्धन होने लगता है, वहाँ भाँति-भाँतिके दुष्कर्म, दुर्विचार, पाप, दु:ख, क्लेश, संताप, अशान्ति, यन्त्रणा आदिका होना-बढ़ना अनिवार्य होता है। यों मानव-जीवन दु:खों तथा नरकोंका अमोघ साधन बन जाता है। तुम जरा ध्यान देकर सोचोगे तो यह प्रत्यक्ष दिखलायी देगा कि तुम न देह हो, न नाम हो और यहाँके मान-अपमान तथा स्तुति-निन्दा ही नहीं, लाभ-हानि, जय-पराजय, शुभ-अशुभ, प्रिय-अप्रिय, सुख-दु:ख, मित्र-शत्रु, जीवन-मरण आदि सभी द्वन्द्व केवल देह-नाम या नाम-रूपसे ही सम्बन्ध रखते हैं। तुम इन द्वन्द्वोंको भगवान‍्की माया मान लो या उनका लीलानाट्य बस, तुम इस द्वन्द्वात्मक स्थितिसे ऊपर उठ जाओगे।

याद रखो—यह द्वन्द्व ही जगत् है—माया है और द्वन्द्वातीत या समस्थिति ही ब्रह्म है। द्वन्द्व परिवर्तनशील है, विनाशी है और सम ब्रह्म नित्य अविनाशी है। यही तुम्हारा स्वरूप है। स्वरूप होनेके कारण सहज ही अनुभवगम्य है, तथापि प्रकृतिस्थ अवस्थामें सत्यकी अनुभूति छिपी रह जाती है। अतएव अभी इस प्रकार द्वन्द्व-मोहसे मुक्त रहनेकी साधना करो; न मान-बड़ाईमें हर्षित होओ, न अपमान-निन्दामें दु:खित। इसी प्रकार प्रत्येक द्वन्द्वमें समत्व रखनेकी चेष्टा करो।

याद रखो—व्यवहारमें—शरीरके विभिन्न अंगोंके कार्योंकी भिन्नता रहनेपर आत्मरूपसे जैसे उनमें कोई भेद नहीं है, वैसे ही—व्यावहारिक परिस्थितिके भेदसे भेद प्रतीत हो, पर अन्तस‍्में किसी भी द्वन्द्वमें अनुकूलता-प्रतिकूलताका बोध नहीं होना चाहिये।

याद रखो—देहमें और नाममें अहंबुद्धि होनेसे ही—जो सर्वथा मिथ्या तथा अयुक्तियुक्त है—ममता-आसक्तिका प्रसार होता है और अनुकूलता-प्रतिकूलताकी अनुभूति होती है। अतएव अपनेको सदा-सर्वदा आत्मामें स्थित आत्मरूप देखनेकी चेष्टा करो और मिथ्या नामरूपको सर्वथा कल्पित मानकर अपनेको सदा उनसे पृथक् देखो।

याद रखो—जितने भी भेद हैं—सब नाम-रूपको लेकर हैं। नाम-रूप व्यवहारके लिये हैं। इनसे सर्वथा भेदरहित आत्माका सम-स्वरूप नहीं बदलता। तुम सम आत्मामें, जो तुम्हारा स्वरूप है—स्थित होकर व्यावहारिक जगत‍्में यथायोग्य व्यवहार करो। तुम्हारे व्यवहारमें विषमता रहेगी, पर तुम आत्म-स्वरूपमें नित्य निर्द्वन्द्व—सर्वदा-सर्वथा सम रहोगे। व्यवहारकी लहरियाँ तुम्हारे प्रशान्त स्वरूपमें जरा भी क्षोभ उत्पन्न न कर सकेंगी, वरं वे तुम आत्म-स्वरूप प्रशान्त महासागरकी शोभा होंगी।

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